advertisement
कोविड-19 ने साफ तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था के दो अंगों को भारी नुकसान पहुंचाया है. पहला दुखद तौर पर रोज सामने आते मामलों और मौत की घटनाओं से स्पष्ट है. दूसरा डर के उस मनोविज्ञान से स्पष्ट है जिसने उत्पादकों और उपभोक्ताओं को अपने शिकंजे में लिया है, जो कि डिजिटल गुफाओं में जीने की इकलौती जरूरत के अलावा बाकी सबकुछ टाल चुके हैं. इस जानलेवा वायरस ने अस्पतालों, मास्क-निर्माताओं, टेस्टिंग लैब और बेरोजगारों सबको तहस-नहस कर दिया है; शोरूम, मॉल्स, सिनेमाघरों, बाजारों और हवाई अड्डों को तबाह कर दिया है. ये सब बेहद दर्दनाक नजर आता है.
लेकिन इसके अलावा एक तीसरा, छिपा हुआ नुकसान भी है. जिसे मैं COVID-19/70 कह रहा हूं, जो कि वायरस की एक जहरीली उप-नस्ल जैसी है, जो अब 1970 के दशक की डरावनी समाजवादी नीतियों को हवा दे रहा है. भारत में लॉकडाउन के बाद जारी किए गए कई फरमान हैरंतअंगेज तरीके से नुकसानदायक और तर्कहीन हैं.
जैसे कि ये:
हां, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि भारत एक फ्री मार्केट वाला लोकतंत्र माना जाता है; और निश्चित रूप से यह कोई मायने नहीं रखता है कि हम करीब पचास साल पीछे चले जा रहे हैं, हां, मैंने यह पहले भी कहा था, 1970 के डरावने दशक में.
मैं मिलेनियल पीढ़ी की आंखों में अभी से अविश्वास देख रहा हूं. ये सब ‘उदारीकरण के बाद की संतान’ हैं, जो 1991 के बाद एक ऐसे देश में पैदा हुए, जिसने निजी कंपनियों का जश्न मनाना शुरू कर दिया था. निश्चित तौर पर मैं अतिशयोक्ति कर रहा हूं, है ना? निश्चित तौर अतीत इतना भयानक नहीं हो सकता था?
प्यारे दोस्तों, क्योंकि आपको इसका कोई अंदाजा नहीं है वो भारत कैसा था, इसलिए दर्द और ड्रामा से भरी 1957 में बनी मशहूर फिल्म, मदर इंडिया, की एक अद्भुत कहानी से मैं शुरुआत करता हूं, जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था के उन बुरे दिनों की त्रासदी को बखूबी दिखाया गया है.
अमेरिकी लेखक कैथरीन मेयो ने 1927 में नफरत भरी एक किताब लिखी ‘मदर इंडिया’. यह भारत के गरीब हिंदुओं के खिलाफ एक अपमानजनक और भड़काऊ लेखनी थी. महात्मा गांधी ने अपने स्वभाव के विपरीत बेहद कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए इसे एक ‘ड्रेन इंस्ट्रक्टर यानी नाली निरीक्षक का काम’ बताया था. करीब 25 साल बाद, आजाद भारत में, महबूब खान ने मेगास्टार नरगिस के साथ ‘मदर इंडिया, नाम से फिल्म बनाई. यह विपत्ति का सामना करते इंसानी सादगी और त्याग की कहानी थी, जो कि मेयो के जहरीली किताब को करारा जवाब था.
उस वक्त युवा और स्वतंत्र भारत नेहरूवादी समाजवाद के दर्द से गुजर रहा था. 1952 में महबूब खान को फिल्म की शूटिंग के लिए विदेश से स्टॉक मंगाने के लिए आवेदन देकर इजाजत लेनी पड़ी थी. उसके बाद, नौकरशाही के कई दांव-पेंच झेलते हुए पूरी फिल्म बनाने में उन्हें आधा दशक लग गया. फिल्म की खूब सराहना हुई और सिनेमा के तौर पर इसे प्रतिभा की कृति माना गया. पहली बार भारत से कोई फिल्म बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज की कैटगरी में अकादमी अवॉर्ड के लिए नॉमिनेट हुई, हालांकि फेलिनी की ‘नाइट्स ऑफ कैबिरीया’ के आगे ये फिल्म एक वोट से पिछड़ गई. कारलोवी वेरी में नरगिस बेस्ट एक्ट्रेस चुनीं गईं. महबूब खान और नरगिस को फिल्मफेयर अवॉर्ड्स मिले. फिल्म की अनगिनत प्रशंसा हुई.
लेकिन समाजवादी भारत में जिसका जश्न नहीं मनाया जा सका वो थी फिल्म की अद्भुत कारोबारी सफलता. इस महान फिल्म को भारी भरकम बजट के साथ 60 लाख रुपये (उस वक्त के एक्सचेंज रेट के हिसाब से करीब 13 लाख डॉलर) में बनाया गया था. जबरदस्त हिट रही इस फिल्म ने लागत से करीब 7 गुना ज्यादा कमाई की, करीब 4 करोड़ रुपये बॉक्स ऑफिस पर कमाए (जो कि आज के हिसाब से 2-3 बिलियन डॉलर या 20,000 करोड़ रुपये होंगे, जिसके सामने आज ‘100 करोड़ क्लब’ पर होने वाला हो-हल्ला बेतुका लगता है!). फिल्म को पूरी दुनिया में 10 करोड़ लोगों ने देखा. साथ में आपको ये भी बता दें कि नये नवेले सुनील दत्त ने फिल्म के सेट पर आग लगने के दौरान नरगिस की जान बचाई थी. नरगिस ने इसके बाद घायल सुनील की सेवा की, उनसे मोहब्बत कर बैठीं और उनसे शादी कर ली. इन बातों का मेरे मुद्दे से कोई लेना देना नहीं है, लेकिन मदर इंडिया की बात हो और इन अहम मील के पत्थरों की बात ना हो ये मुमकिन नहीं है.
फिल्म मदर इंडिया से लोगों में एक कुरूप और स्थायी धारणा बन गई. महान चरित्र अभिनेता कन्हैयालाल ने सुखीलाला का किरदार निभाया, जो कि लालची, ऐय्याश, बेरहम, ब्याजखोर और गांव वालों का शोषण करने वाला साहूकार था, जो भूख से मरते नरगिस के बच्चों को भोजन देने के बदले उसे शारीरिक संबंध बनाने के लिए परेशान करता था.
सुखीलाला इतना घिनौना था कि पूरा भारत उससे नफरत करने लगा. पूरे देश की चेतना में उसकी छवि एक ठेठ ‘पूंजीवादी’ की बन गई, जो कि लाचार महिलाओं को सेक्स या फायदे के लिए बेच या खरीद सकता था. ऐसे भी हिंदुस्तान उस वक्त, 50, 60 और 70 के दशक में, वामपंथ की तरफ, साम्यवादी रूस की तरफ झुक रहा था. कारोबारियों को भ्रष्ट और बिकाऊ बताकर उनकी निंदा करना भारत का राष्ट्रीय खेल बन चुका था.
बॉलीवुड ने इस लोकप्रिय धारणा को ‘रंगीन बुरे पुरुषों’ – अजीत, जीवन, प्राण - के जरिए और हवा दी, जो कि तस्करी किए गए स्कॉच पीने वाले, 555 सिगरेट फूंकने वाले और कामकाजी दिन के बीच तंग कपड़ों में कैबरे डांस करने वाली ‘मोना डार्लिंग्स’ से घिरे बेईमान कारोबारियों का किरदार निभाते थे.
भारत ने पूरी तन्मयता से इस अय्याश छवि को ही सच मान लिया. हर व्यापारी, हर उद्यमी का शुरू से ही बेईमान होना तय मान लिया गया. इसके बाद हमने कारोबारियों पर शिकंजा कसने वाले कानून बनाए. ‘बिजनेसमैन है, चोर होगा’ एक तरह की मनोवृति बन गई और कारोबारियों को लोग सुखीलाला समझने लगे. हैरानी इस बात की है कि हम उत्पादन क्षमता में बढ़ोतरी के लिए भी सजा देने लगे, जो कि मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था में समृद्धि और संपत्ति के प्लाजमा माने जाते थे. लेकिन भारत में अगर आपने कम साधन से ज्यादा उत्पादन कर दिया – यानी आपने उत्पादन क्षमता बढ़ा दी – तो आपके साथ अपराधियों जैसा बर्ताव किया जाएगा. आपने जितने की ‘लाइसेंस’ मिली है उससे ज्यादा उत्पादन कैसे कर दिया?
आह, कोविड-19/70 ने हमारी अर्थव्यवस्था की नसों में फिर से उस पुराने वायरस की सुई लगा दी है. दुर्भाग्य से किसी लैब या यूनिवर्सिटी में वायरस की इस उप-नस्ल की कोई वैक्सीन नहीं बनाई जा रही. इसे हम सिर्फ एक तरीके से रोक सकते हैं, अगर हम, सारी जनता, 1991 में मुश्किल से हासिल की गई आर्थिक आजादी को बचाए रखने के लिए पूरा जोर लगा दें.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined