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पिछले हफ्ते, इस लेख के पहले हिस्से में, मैंने लिखा था कैसे चीन की हरकतें भारत को भौंचक्का कर देती हैं. मुझे नहीं मालूम था कि ठीक दो दिन बाद, गलवान घाटी में चीन के बर्बर हत्याकांड से भारत में आक्रोश और मातम छा जाएगा. लेकिन जिस आक्रोश के पीछे एक्शन ना हो वो सिर्फ ‘आवेश में की गई बातें’ भर रह जाती हैं. इसलिए, जरूरत इस बात की है इस आक्रोश के जरिए उन नीतियों और बाधाओं को तोड़ किया जाए जिसने भारत की आर्थिक क्षमता को बेड़ियों में जकड़ रखा है.
विडंबना ये है कि अब देंग शियाओ पिंग से प्रेरित होने का वक्त आ गया है, जिसने चीन की अर्थव्यवस्था को लॉन्च कर उसे ‘पलायन वेग’ यानी एस्केप वेलॉसिटी के साथ दूसरे ऑर्बिट में पहुंचा दिया, जिससे करीब एक अरब लोग गरीबी की जंजीर से बाहर निकल आए और मौत की कगार पर खड़ा साम्यवादी देश देखते ही देखते एक सुपरपावर बन गया.
1991 में जहां चीन और भारत की प्रति व्यक्ति आय एक समान थी; आज देंग के ‘पलायन वेग’ ने चीन को भारत से पांच गुना ज्यादा दौलतमंद बना दिया है, 15 ट्रिलियन डॉलर की इसकी जीडीपी से हमारी 2.8 ट्रिलियर डॉलर की जीडीपी बौनी नजर आती है, और यही उसकी सेना को बहुत ताकतवर बनाती है.
देंग ने चीन की अर्थव्यवस्था को कैसे बदला इस पर कई मोटी-मोटी किताबें लिखी जा चुकी हैं. मेरी किताब, सुपरपावर? द अमेजिंग रेस बिटवीन चाइनाज हेयर एंड इंडियाज टॉर्टस (पेंगुईन ऐलेन लेन, 2010), में मैंने ‘पलायन वेग’ (Escape Velocity) मॉडल की बात की है, जिसे हासिल करने के लिए चीन को सोवियत संघ और जापान जैसे दो इंजन की जरूरत पड़ी. मैं यहां चंद पक्तियों में अपनी इस थ्योरी को आपके सामने रखना चाहूंगा. जबरन वसूली की साम्यवादी ताकत का इस्तेमाल करते हुए चीन ने 1970 से 1990 के दशक तक अपार संपत्ति (सरप्लस) जमा कर ली:
पूंजी (सरप्लस) की उगाही का ये स्तर रूस में स्टालिन काल जितना खौफनाक था. लेकिन इसके बाद देंग ने पूरी कहानी को नया मोड़ दे दिया. सोवियत संघ के विपरीत, उसने जापान की आर्थिक क्रांति का रास्ता अपनाया, और चीन को विदेशी कारोबार और निवेश के लिए खोल दिया. देंग ने ‘साम्यवादी पूंजी’ को भौतिक संपत्ति और समाजिक बुनियादी ढांचा तैयार करने में इतने बड़े पैमाने पर निवेश किया जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी.
एक वक्त ऐसा आया, जब चीन अपनी जीडीपी का आधा हिस्सा – मैं दोबारा कहूंगा – करीब 50 फीसदी बुनियादी ढांचे में निवेश कर रहा था. देंग ने सरप्लस का एक बड़ा हिस्सा विदेशी निवेशकों को सस्ती जमीन, सस्ते मजदूर और करेंसी मुहैया कराने में खर्च किया ताकि चीन ‘दुनिया की फैक्ट्री’ बन सके. पश्चिमी देशों की ये कंपनियां चीन से जितना निर्यात करती थी, चीन के सरप्लस में उतना ही इजाफा हो रहा था क्योंकि उसने युआन की कीमत को जानबूझकर कम कर रखा था.
क्या भारत कभी चीन के साथ सम्मानजनक शक्ति समीकरण बना सकता है? हां, हम ऐसा करते हैं, शर्त ये है कि हम आमूलचूल तरीके से, बिना किसी हिचकिचाहट के सरकार के सोचने के तरीके और ढांचे में बदलाव लाएं. साफ तौर पर कहूं तो भारतीय सरकार की मौजूदा मानसिकता को खत्म करना होगा, – दूसरों पर काबू करने की सनक, परभक्षी और छोटी-छोटी चीजों को भी कंट्रोल करने की मानसिकता से बाहर निकलकर उसे ऐसा बनना होगा जो समान मौके, कारोबार और काबिलियत को बढ़ावा देता है. इसे मुनाफाखोरी और व्यापारिक मानसिकता को छोड़कर सामाजिक क्रांति के आगाज पर ध्यान केन्द्रित करना होगा.
आप पूछ सकते हैं, ये कैसे मुमकिन है? मेरी किताब में मैंने दो एक्शन, जो कि मुश्किल जरूर हैं लेकिन नामुमकिन नहीं, का जिक्र किया है, जिससे ये हासिल किया जा सकता है.
शुरुआत करते हैं सबसे मूलभूत सवाल से – देश को गरीबी से निकालने के लिए जरूरी ‘पलायन वेग’ तैयार करने के लिए भारत ट्रिलियन डॉलर का इकनॉमिक सरप्लस कैसे जुटाए? एक लोकतंत्र होने के नाते हम चीन की तरह किसानों, मजदूरों और उपभोक्ताओं का शोषण नहीं कर सकते. लेकिन हमारे पास भारत के नागरिकों द्वारा दिए गए टैक्स और बचत से बने धन का पहाड़ मौजूद है. मैं देश के अलग-अलग पब्लिक सेक्टर बैंक और कॉरपोरेशन में जमा अरबों की उस संपत्ति की बात कर रहा हूं जिसका इस्तेमाल नहीं किया जाता. इन पैसों में जान डाली जाए तो इनकी कीमत में बेतहाशा वृद्धि हो सकती है. मैं आपको एक शानदार उदाहरण देता हूं जो सियासी तौर पर सही कदम होगा.
मारुति उद्योग लिमिटेड एक नाकाम कार कंपनी थी जबतक जापान की सुजुकी मोटर कॉरपोरेशन ने उसमें छोटी सी हिस्सेदारी खरीदी थी – मैं दोबारा कहना चाहूंगा वो एक छोटी सी हिस्सेदारी थी – ये अपने आप में एक अनोखा और असामान्य तालमेल था:
सरकार आसानी से ये दावा कर सकती है वो अपनी संपत्ति को बेच नहीं रही है. उल्टा उसका अपनी संपत्ति पर मालिकाना हक जारी है; उसने तो बस कारोबार में एक पार्टनर को जोड़ा है जो चांदी को हीरे-जड़े प्लैटिनम में तब्दील करेगा, इससे सबसे ज्यादा भारत के नागिरकों को और धनवान बनाएगा. मारुति, BALCO और VSNL की कीमत में जिस तरह से इजाफा हुआ है, उस हिसाब से भारत के पब्लिक सेक्टर में आज मौजूद कुछ सौ अरब रुपये आने वाले दस साल में कई ट्रिलियन डॉलर के सरप्लस में तब्दील हो जाएंगे.
एक बार आर्थिक पूंजी (इकनॉमिक सरप्लस) तैयार हो जाए तो हमें वो ईंधन चाहिए होगा जिससे एस्केप वेलॉसिटी यानि ‘पलायन वेग’ मिलेगा. और वो हासिल होगा अर्थव्यवस्था को Un-mix करने से, मतलब सरकार खुद को व्यावसायिक गतिविधियों से अलग-थलग रखकर पांच महत्वपूर्ण क्षेत्र पर पूरा ध्यान केन्द्रित करे:
यही है वो तरीका. ऐसा करने से भारत में गरीबी से मुक्ति दिलाने वाला ‘पलायन वेग’ तैयार होगा. हमें वो साधन हासिल होंगे जिससे चीन और दुनिया के सामने हमारी अहमियत बढ़ेगी, हम उनका सामना कर सकेंगे.
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