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कोविड, टैक्स और रूस युद्ध से आ रही महंगाई की मार, घट सकती है इकनॉमी की रफ्तार

भारत में पेट्रोल-डीजल की महंगाई की वजह सिर्फ बाहरी कारण नहीं हैं, घर में भी कई मसले हैं

दीपांशु मोहन
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>कोविड, टैक्स और रूस युद्ध से आ रही महंगाई की मार, घट सकती है इकनॉमी की रफ्तार</p></div>
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कोविड, टैक्स और रूस युद्ध से आ रही महंगाई की मार, घट सकती है इकनॉमी की रफ्तार

फोटो- क्विंट

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तेल की कीमतें देश में 14 दिन में 12 बार बढ़ी हैं. पेट्रोल डीजल (Petrol Diesel) की कीमत 8 रुपए से ज्यादा बढ़ गई है. यह पिछले कुछ समय से मालूम है कि अलग-अलग राज्यों में पेट्रोल और डीजल की कीमतें राज्यों के वैट लगाने और सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी से अलग अलग हो जाती हैं. एक्साइज ड्यूटी केंद्र सरकार लगाती है.

हालांकि इस तरह की बढ़ोतरी रूस और यूक्रेन युद्ध (Russia Ukraine War) के वजहों से भी हो रही है, पर पांच राज्यों में चुनाव की वजह से भारत सरकार ने पिछले 4 महीने से तेल के दाम नहीं बढ़ाए. अब पिछले हफ्ते से कीमतें तेजी से बढ़ाई जा रही हैं. पूरी दुनिया समेत भारत में लगातार तेल की कीमतें क्यों बढ़ रही हैं ? इसके कई कारण हैं – बाहरी और भीतरी दोनों ही.

यूक्रेन-रूस युद्ध से तेल बाजार में अफरा-तफरी?

मौजूदा महंगाई रूस-यूक्रेन में संघर्ष और ग्लोबल टेंशन से ज्यादा जुड़ी हुई है. इसने ग्लोबल तेल सप्लाई (एक्सपोर्ट-इंपोर्ट) और शिपिंग रूट को बुरी तरह प्रभावित किया है. साथ ही रूस पर जो पाबंदियां लगाई गई हैं उसका भी असर किसी ना किसी रूप में इस पर है. क्योंकि ऑयल एक्सपोर्ट का जो उसका करार था वो भी पाबंदियों से प्रभावित हुआ है. नीचे के आंकड़े क्रूड कीमतों में पिछले कुछ महीने से चल रही उठापटक बताता है.

क्रूड फ्यूचर 106 डॉलर प्रति बैरल से ज्यादा पर ट्रेड कर रहा था जो कि 7 फीसदी की गिरावट के बाद के बाद इस दर पर था. निवेशक अभी भी यूक्रेन और चीन में कोविड से लगे लॉकडाउन के असर का विश्लेषण करने में जुटे हैं. जहां तक रूस-यूक्रेन संघर्ष का सवाल है, आक्रमण से पहले ही से तेल की कीमतें बढ़ने का अनुमान पूरी दुनिया में लगाया जा रहा था. क्योंकि सबको आशंका थी कि युद्ध होने पर पश्चिमी देश रूस पर पाबंदी लगाएंगे, जो कि हुआ भी.

यहां तक कि अमेरिका, UK की रूस पर पाबंदियों से पहले ही कुछ देशों ने रूस से तेल खरीदना बंद कर दिया था तो कुछ देशों ने हड़बड़ी में खूब तेल खरीदा. कुछ समय के लिए क्रूड की कीमतें 7 मार्च को 140 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गईं जो कि 14 साल का सबसे ऊपरी स्तर था. हालांकि वहां से कीमतें घटी हैं पर ये बहुत कम गिरी हैं. अमेरिका, सऊदी अरब के बाद रूस तेल का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है. ग्लोबल प्रोडक्शन का 14 फीसदी हिस्सा रूस से ही आता है. ये 7-8 मिलियन बैरल तेल रोजाना दुनिया भर में बेचता है. अभी भी कई यूरोपीय देश रूस से तेल और गैस खरीद रहे हैं. लेकिन लंबे वक्त तक जो बैन लगाया गया है उसका असर ग्लोबल ईंधन सप्लाई पर पड़ेगा. सप्लाई कम रहने से कीमतों में उठापटक शॉर्ट टू मीडियम टर्म में चलती रहेगी.

यूक्रेन-रूस युद्ध के नतीजों से अलग, ग्लोबल ऑयल प्रोडक्शन सप्लाई चेन पहले से ही COVID-19 और लॉकडाउन से प्रभावित होती रही है और पूरी दुनिया पर इसका भयावह आर्थिक प्रभाव पड़ा है.

दक्षिण एशिया में श्रीलंका के दिवालिया होते हालात से इसको बेहतर तरीके से समझा जा सकता है. विदेशी मुद्रा का भंडार घटने और महंगाई ज्यादा बढ़ने से वो तेल मंगाने में असमर्थ हो गया है.

भारत में तेल आयात पर निर्भरता भी जिम्मेदार

भारत अपनी तेल जरूरतों को पूरा करने के लिए इंपोर्ट पर 85 फीसदी तक निर्भर है. मोटे तौर पर, एक दिन में 7 मिलियन बैरल क्रूड की खपत होती है, जिसे पश्चिमी एशिया और अमेरिका से इंपोर्ट किया जाता है.

अकेले रूस से, भारत अपने कुल इंपोर्ट का 2 फीसदी हिस्सा मंगाता है. भले ही ये बहुत कम लगे लेकिन ग्लोबल मार्केट में उथलपुथल, रूस के ऑयल इंपोर्ट पर पाबंदी से इसे समझा जा सकता है. कुल मिलाकर, तेल के लिए भारत को इंपोर्ट पर बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है और इसका देश की आर्थिक स्थिति पर प्रतिकूल असर पड़ता है.

यहां एक ऐतिहासिक बात है कि तेल के लिए भारत दूसरे देशों पर निर्भर रहा है और पिछले कुछ दशकों में ये निर्भरता और ज्यादा बढ़ गई है. ऐसे में स्वाभाविक तौर पर जब अतंरराष्ट्रीय मार्केट में उथलपुथल होती है तो घरेलू मार्केट पर भी इसका असर पड़ता है. कई सरकारों ने अलग अलग देशों के साथ करार करके इंपोर्ट बास्केट को डायवर्सिफाई किया है, जैसे ईरान और दूसरे देशों से तेल मंगवाने का इंतजाम करके.

फिर भी ये एक बड़ी गलती होगी कि हम बढ़ती कीमतों के लिए सिर्फ बाहरी फैक्टर पर आरोप मढ़ें. नीचे दिए आंकड़े बताते हैं किस तरह से क्रूड कीमतें कम होने के बाद भी (सितंबर2019-मार्च 2020) पेट्रोल और डीजल की कीमतें बहुत ज्यादा बढ़ी रहीं.

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केंद्र और राज्यों के बीच जुबानी जंग

जब इंटरनेशनल मार्केट में क्रूड की कीमतें कम थीं तब भी सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी और राज्यों के वैट से देश में तेल की कीमतें काफी बढ़ी हुई थी. नीचे ब्रेक अप के लिए आप ग्राफ देखें.

दिल्ली में पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतें 16 अक्टूबर, 2021 तक

ऊपर का डेटा दिल्ली और अन्य राज्यों (2021 से) में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में अंतर को दिखाता है. दिल्ली ने पहले पेट्रोल पर 30% वैट और डीजल पर 16.75-17% वैट लगाया. दूसरे राज्य जैसे कर्नाटक, असम और राजस्थान ने और ज्यादा टैक्स लगा दिए. और इसलिए कीमतें वहां और ज्यादा हैं.

केंद्र सरकार की एक्साइज डयूटी तेल की कुल खुदरा कीमतों का 31% है, जबकि डीलर की कीमतों पर 42% है. यहां ये जानना जरूरी है कि पेट्रोल और डीजल पर लगने वाली एक्साइज ड्यूटी में दो फैक्टर अहम होते हैं. टैक्स कंपोनेंट (बेसिक एक्साइज ड्यूटी), और सेस & सरचार्ज. इसमें से केवल टैक्स से जो रेवेन्यू आता है वो राज्यों को दिया जाता है. सरचार्ज या सेस के जरिए जो भी रेवेन्यू सेंटर को मिलता है वो राज्यों को नहीं दिया जाता.

फिलहाल पेट्रोल-डीजल बेचने पर सरचार्ज के अतिरिक्त एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर और डेवलपमेंट सेस भी लगाया जाता है. पिछले बजट से प्रति लीटर 2.5 और 4 रुपया लिया जाता है. हालांकि इसके साथ साथ बेसिक एक्साइज ड्यूटी और सरचार्ज को घटा दिया गया ताकि ओवरऑल रेट बना ही रहे. इससे पेट्रोल पर 1.5 रुपए प्रति लीटर और डीजल पर 3 रुपया प्रति लीटर का रेवेन्यू केंद्र सरकार के पास चला गया.

इसी तरह, पिछले चार वर्षों में, एक्साइज ड्यूटी में टैक्स कंपोनेंट की हिस्सेदारी पेट्रोल में 40% और डीजल में 59% घट गई है. अभी पेट्रोल (96%) और डीजल (94%) पर लगाया जाने वाला अधिकांश एक्साइज ड्यटी , सेस और सरचार्ज के तौर पर ही है जो पूरी तरह केंद्र के हिस्से में है. अब ऐसे हालात में राज्यों के पास तेल की बिक्री पर हाई VAT लगाने के सिवाय कोई और ऑप्शन बचता नहीं है. नतीजा होता है कि कंज्यूमर दोहरे टैक्स की मार झेलता है. ये एक बड़ी चिंता है लेकिन हमने इसे कभी मुद्दा बनाकर उछाला नहीं.

जंग और कोविड से पहले भी भारत परेशानी में था

जैसा कि हालिया PRS स्टडी कहती है-

“जून 2014 और अक्टूबर 2018 के बीच, ग्लोबल मार्केट में तेल की कीमतों में जो बदलाव हुआ उसे रिटेल में लागू नहीं किया गया. जून 2014 और जनवरी 2016 के बीच ग्लोबल कीमतें घटीं और फिर फरवरी 2016 और अक्टूबर 2018 के बीच बढ़ीं. लेकिन रिटेल तेल के मूल्य अगर इन सालों में देखें तो वो स्थिर हैं."

मतलब ग्लोबल कीमतें घटने से खुदरा दाम में नहीं घटाया गया. ग्लोबल कीमतें और भारत में रिटेल कीमतों में ये अंतर मुख्य तौर पर टैक्स दरों में बदलाव के कारण ज्यादा रहा. उदाहरण के लिए पेट्रोल-डीजल पर सेंट्रल टैक्स जून 2014 से जनवरी 2016 के बीच में 11 रुपए और 13 रुपए तक बढ़ाए गए. इसी तरह टैक्स चार रुपए तक घटाए गए फरवरी 2016 से अक्टूबर 2018 के बीच में इसी तरह जनवरी- अप्रैल 2020 के बीच क्रूड की ग्लोबल कीमतें 69 % तक गिरने के बाद , केंद्र सरकार ने मई 2020 मे पेट्रोल पर 10 रुपए तो डीजल पर 13 रुपए प्रति लीटर एक्साइज ड्यूटी बढ़ा दिया.

ये हालात महामारी से पहले और रूस-यूक्रेन युद्ध से शुरू होने से पहले चले आ रहे थे. दरअसल ये उदाहरण दिखाते हैं कि पॉलिसी को लेकर जो दिक्कतें सरकार में हैं, उसे कोविड और युद्ध के साए से ढंका जा रहा है. भारत के लिए बाहरी इवेंट जैसे यूक्रेन युद्ध जैसी परेशानी का तुरंत में कोई उपाय निकालना मुश्किल है.

तेल की बढ़ती कीमतों से पूरी दुनिया में कमोडिटी महंगी हो गई है. ऐसे में अब एक उम्मीद बस ये बची है कि केंद्र और राज्य सरकारें आपस में बेहतर तालमेल बनाएं. संघीय ढांचे को बनाए रखते हुए तेल पर टैक्स के बोझ घटाएं, कम से कम ग्लोबल कीमतें कम होने तक. नहीं तो इस बात की प्रबल संभावना है कि तेल की बढ़ती कीमतों का असर लंबे वक्त तक दिखेगा और कंज्यूमर और प्रोड्यूसरों पर महंगाई की मार बढ़ेगी. और ये सब ऐसे वक्त में आएगा जब बेरोजगारी अपने चरम पर होगी. कम और मध्यम आय वालों की कमाई रुकी रहेगी. इनका नतीजा घर के किचन पर ज्यादा पड़ेगा और डिमांड पर इसका नकारात्मक असर होगा. ओवरऑल डिमांड घट जाएगा जिससे फिर प्रोडक्शन भी प्रभावित होगा.

भारत पहले से ही धीमी ग्रोथ वाली इकोनॉमी बन चुकी है और इससे परेशानी और ज्यादा बढ़ जाएगी जिसे इकोनॉमी में ‘कीन्सियन टेलस्पिन’ यानि डिमांड के अनियंत्रित होकर गोता लगाने वाली नौबत आ जाएगी.

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