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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) ने शुक्रवार, 11 अगस्त को देश के तीन बुनियादी आपराधिक कानूनों (Indian criminal law) को बदलने के लिए संसद में तीन नए विधेयक पेश किए:
भारतीय न्याय संहिता (भारतीय दंड संहिता, 1860 की जगह लेने के लिए)
भारतीय साक्ष्य विधेयक (भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की जगह लेने के लिए)
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की जगह लेने के लिए)
यह लेख नई ‘न्याय संहिता’ (The Bhartiya Nyay Sanhita) के सेक्शन 69 के प्रावधान ‘शादी के झूठे वादे पर सेक्स संबंध’ नाम के अपराध की श्रेणी पर केंद्रित है और इसके नतीजों पर रौशनी डालता है.
यह धारा कहती है:
धारा 69. जो कोई “कपटपूर्ण साधनों” (deceitful means) या शादी के इरादे के बिना किसी महिला से शादी का वादा करता है और उसके साथ सेक्स संबंध बनाता है, ऐसा सेक्स संबंध जो बलात्कार के अपराध की श्रेणी में नहीं आता, उसे किसी भी तरह के कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसकी अवधि 10 साल तक हो सकती है और उस पर जुर्माना भी लगाया जाएगा.
स्पष्टीकरण: “कपटपूर्ण साधनों” में रोजगार या तरक्की का झूठा वादा, लालच देकर या पहचान छिपाकर शादी करना शामिल है.
इस तरह यह धारा दो अपराध बनाती है: एक, धोखे से सेक्स संबंध बनाना, और दूसरा, शादी का वादा करके सेक्स संबंध बनाना.
दूसरी श्रेणी के तहत अपराध, जिस पर यह लेख केंद्रित है, के दायरे में आने के लिए तीन चीजों की जरूरत होगी:
आरोपी शादी करने का वादा करता है
वादा पूरा करने का कोई इरादा नहीं है
आरोपी ने पीड़िता के साथ शारीरिक संबंध बनाए
भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375-376 बलात्कार को परिभाषित और सजा की बात करती है.
धारा 90 में कहा गया है कि चोट पहुंचने के डर से या तथ्य की गलतफहमी में दी गई रजामंदी, रजामंदी नहीं है. अदालतों ने धारा 90 और 375 (जो बलात्कार को परिभाषित करती है) को एक साथ रखकर ‘शादी का झूठा वादा’ और सिर्फ ‘वादा तोड़ने’ के बीच फर्क किया है.
‘झूठे वादे’ का मतलब ऐसे हालात से है, जहां आरोपी शुरू से ही शादी करने का इरादा नहीं रखता था, और ‘वादा तोड़ने’ का मतलब ऐसे हालात से है, जहां आरोपी शुरू से ही सहज मंशा से शादी करने का इरादा नहीं रखता था, लेकिन बाद में अपना वादा पूरा नहीं कर सका.
पहली कैटेगरी तथ्य की गलतफहमी है यानी झूठे वादे पर हासिल रजामंदी को वैध सहमति नहीं माना जाएगा और इस तरह बलात्कार का मुजरिम ठहराया जा सकता है, जबकि सिर्फ वादा तोड़ने पर सजा नहीं दी जा सकती है.
और यही इस प्रावधान के साथ गहरी समस्या है.
उदाहरण के लिए, एक खास मुकदमे (उदय बनाम कर्नाटक राज्य, 2003) में एक सवर्ण जाति (ब्राह्मण) के आरोपी ने ओबीसी जाति की एक महिला से प्रेम संबंध बनाया, उससे बलात्कार किया, उसे गर्भवती किया और बाद में छोड़ दिया.
अदालत ने आरोपी को इस आधार पर बरी कर दिया कि पीड़िता ‘साफ तौर पर जानती’ थी कि उनके रिश्ते को उनकी ‘जाति’ के कारण ‘जबरदस्त विरोध’ का सामना करना पड़ेगा और इस तरह यह नहीं कहा जा सकता कि वह शादी के वादे को लेकर ‘गलतफहमी’ में थी.
कानून विशेषज्ञ निकिता सोनवणे कहती हैं, अदालत ने इस मामले में सजातीय शादी की हिमायत की. उदय के मुकदमे में अदालत का फैसला तब से बार-बार जातिवादी आधार पर लागू किया गया है.
एक और मुकदमे (प्रमोद पवार बनाम महाराष्ट्र राज्य, 2019) में अदालत ने पीड़ित के खिलाफ आरोपी द्वारा जातिवादी गालियां देने के बावजूद ‘जाति संबंधी विचारों’ को लेकर ऐसी ही राय जाहिर की.
अदालतों ने यह तय करने के लिए कि क्या महिला द्वारा शादी के वादे पर भरोसा करना ठीक था, उसके पिछली सेक्सुअल हिस्ट्री, पिछली वैवाहिक स्थिति और पीड़िता की उम्र का सहारा लिया है.
उदाहरण के लिए, एक मुकदमे में दिल्ली हाई कोर्ट ने पीड़िता की उम्र और पिछली टूटी हुई शादी पर ध्यान दिया और कहा कि, “अगर एक परिपक्व उम्र की महिला शादी के वादे पर सेक्स के लिए सहमति देती है और लंबे समय तक इसे जारी रखती है तो इस तरह की गतिविधि उसके किसी से भी संबंध बना लेने की बानगी मानी जाएगी, न कि गलतफहमी पर उठाया गया कदम.
एक मामले में अदालत ने पीड़िता से पूछा कि यह पक्का किए बिना कि आरोपी और उसका परिवार शादी के लिए तैयार होगा, शारीरिक संबंध बनाने के पीछे उसकी क्या मजबूरी थी.
हाल के दिनों में न्यायपालिका ने ऐसे मामलों में आपराधिक कानून के इस तरह के इस्तेमाल को लेकर कुछ जागरूकता दिखाई है. हालांकि, अब जब विधायिका ने अपराध को धारा में रख दिया है, तो उस तरह की संभावनाएं खत्म हो गई हैं, मगर भ्रम जारी रहेगा.
जातिवाद-विरोधी नारीवादी बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट काफी समय से सवाल उठाते रहे हैं कि क्या इन मामलों में आपराधिक कानून पर निर्भरता सही तरीका है. आपराधिक कानूनों का लगातार बहुत ज्यादा इस्तेमाल वंचित वर्गों को ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है.
पहली नारीवादी आपत्ति में कहा गया है कि ‘शादी के झूठे वादे’ की श्रेणी स्वाभाविक रूप से मानती है कि महिलाएं शादी से बाहर सेक्स के लिए सहमति नहीं दे सकती हैं.
दूसरा नारीवादी एतराज जातिवाद-विरोध का है, जो दलील देता है कि दलित जातियों की महिलाओं से जुड़े मामले दलित-बहुजन महिलाओं के सम्मान को चोट पहुंचाते हैं, और इसलिए विधायिका को सामाजिक चोट पहुंचाने वाले आपराधिक कानून से इतर उपायों की तलाश करनी होगी.
नारीवादी और जातिवाद-विरोधी आपत्तियों पर ध्यान देने के बजाय, विधायिका उलटी दिशा में दौड़ रही है. मानसून सत्र के आखिरी दिन मसौदा विधेयक को पहले सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराए बिना और विधायी बिंदुओं पर चर्चा के बिना लाया गया. यह साबित भी होता है!
(सुरभि करवा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से BCL ग्रेजुएट हैं. वह धारा 68 पर सुझावों के लिए शुभम कुमार की शुक्रगुजार हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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