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दलित मुसलमान और दलित ईसाइयों को क्यों आरक्षण दिया जाना चाहिए?

भारत की SC लिस्ट ही एकमात्र ऐसी सूची है जो आरक्षण के लाभों को किसी की धार्मिक पहचान से जोड़ती है.

तेजस हरद
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>प्रतीकात्मक तस्वीर</p></div>
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प्रतीकात्मक तस्वीर

फोटो-Altered By Quint

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इस साल जुलाई में पूर्व राज्यसभा सांसद और पसमांदा एक्टिविस्ट अली अनवर अंसारी ने अपने एक पत्र में प्रधानमंत्री से जोर देते हुए पूछा था कि:

“पसमांदा मुसलमानों के भीतर हलालखोर (मेहतर, भंगी), मुस्लिम धोबी, मुस्लिम मोची, भटियारा और गधेड़ी आदि जैसी लगभग एक दर्जन जातियां हैं, इनके लिए सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्रा आयोग ने अनुसूचित जाति का दर्जा देने की सिफारिश की है. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के एक सवाल के जवाब में क्या आपकी सरकार ने कहा था कि वह इस सिफारिश को स्वीकार नहीं करेगी? क्या अनुसूचित जाति का कोटा बढ़ाकर आप इस धर्म आधारित भेदभाव को खत्म करेंगे?”

इस सवाल का जवाब हमें मोदी सरकार से जल्द ही मिल सकता है, क्योंकि 30 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म से इस्लाम या ईसाई धर्म में परिवर्तित होने वाले दलितों के लिए अनुसूचित जाति की स्थिति के मुद्दे पर केंद्र सरकार के रुख को प्रस्तुत करने के लिए तीन सप्ताह का समय दिया था. रिपोर्ट्स के अनुसार, सरकार उनकी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक आयोग के गठन की भी योजना बना रही है.

एक ऐसी मांग जिसे लंबे समय से किया गया नजरअंदाज

लंबे समय से दलित मुस्लिम और दलित ईसाई अपने लिए अनूसूचित जाति यानी SC का दर्जा मांग रहे हैं. हालांकि, केंद्र सरकार और भारतीय अदालतों ने उनकी मांग पर बहुत कम ध्यान दिया है. सिविल सोसाइटी ने भी काफी हद तक इस मुद्दे की अनदेखी की है. संविधान (अनुसूचित जनजाति आदेश 1950) ने अनुसूचित जाति के आरक्षण को केवल हिंदुओं के लिए सीमित कर दिया. संविधान में कहा गया है कि "कोई भी व्यक्ति जो हिंदू धर्म से अलग किसी धर्म को मानता है तो उसे अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जाएगा.

हालांकि सिख धर्म की चार जातियां (रामदासी, कबीरपंथी, मजहबी और सिकलीगर) अपवाद हैं, क्योंकि इन्हें अनुसूचित जाति की सूची में शामिल किया गया है."

1950 के आदेश में 1956 में सिख धर्म को और 1990 में बौद्ध धर्म को उन धर्मों के तौर पर शामिल करने के लिए संशोधन किया गया था जिनसे अनुसूचित जाति का दर्जा पाने के लिए योग्य जातियों का चयन किया जा सकता था.

स्पष्ट तौर पर आदेश यह बात को साफ नहीं कर पाता है कि एससी लिस्ट में इन तीन धर्मों को क्यों शामिल किया गया और बाकियों को क्यों छोड़ दिया गया.

जमीनी दृष्टिकोण पर किताबी दृष्टिकोण को विशेष महत्व 

संविधान सभा की बहसों, अदालती फैसलों और संसदीय चर्चाओं को जब कोई देखता है तो दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों के बहिष्कार के दो संभावित कारणों की पहचान होती है:

  1. जाति, हिंदू धर्म की एक अनूठी विशेषता है, जबकि इस्लाम और ईसाई धर्म अधिक समतावादी धर्म हैं और उनका धर्मशास्त्र जाति की स्वीकृति नहीं देता है.

  2. जब कोई व्यक्ति हिंदू धर्म से अन्य धर्मों में परिवर्तित हो जाता है, तब जाति को कमजोर करने वाले प्रभाव या तो समाप्त हो जाते हैं या कम गंभीर हो जाते हैं.

धर्मशास्त्र और विश्वास प्रणाली पर जो केंद्रित होता है उसे किताबी दृष्टिकोण कहा जा सकता है जबकि वास्तव में विद्यमान अंतर-जाति/समुदाय/बिरादरी संबंधों को जमीनी दृष्टिकोण कहा जा सकता है. ऐसा प्रतीत होता है कि दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने से इनकार करने के लिए अदालतों और संसद ने जमीनी दृष्टिकोण के आगे किताबी दृष्टिकोण को विशेष महत्व दिया है. इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि क्योंकि अब्राहमिक धर्म जाति का समर्थन नहीं करते हैं, इसलिए इसे कानूनों द्वारा भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है.

इस स्थिति में ध्यान देने वाली दिलचस्प बात ये है कि जाति व्यवस्था पर उनके धर्मशास्त्र का दृष्टिकोण बौद्ध धर्म और सिख धर्म, इस्लाम और ईसाई धर्म से बहुत अलग नहीं है. सैद्धांतिक रूप से ये सभी धर्म या तो जाति से घृणा करते हैं या इसके प्रति उदासीन हैं.

इसके साथ ही, अधिकांश जानकार अब इस बात से सहमत हैं कि जाति व्यवस्था और इसके भेदभावपूर्ण प्रभाव भारत में केवल हिंदू धर्म तक ही सीमित नहीं हैं. अनुभव के आधार पर साक्ष्य पर्याप्त हैं.

रंगनाथ मिश्रा आयोग (2007) और सतीश देशपांडे एवं गीतिका बापना (2008) द्वारा तैयार रिपोर्ट्स केंद्र सरकार के इशारे पर तैयार की गई थीं. इन रिपोर्ट्स ने अतिरिक्त सबूत प्रदान किए हैं. उदाहरण के लिए, देशपांडे और बापना के अनुसार "निर्विवाद रूप से गरीबी या संपन्नता में जनसंख्या के अनुपात के संबंध में ग्रामीण और विशेष रूप से शहरी दोनों क्षेत्रों में सभी दलितों में दलित मुस्लिम सबसे खराब स्थिति में हैं."

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उत्तर प्रदेश में 2016 के एक सर्वेक्षण के मुताबिक दलित मुसलमानों में लगभग एक तिहाई लोगों ने कहा था कि "उन्हें अपने मृतकों को "उच्च-जाति" के कब्रिस्तान में दफनाने की अनुमति नहीं है. कई दलित मुसलमानों को गैर-दलित शादियों में आमंत्रित नहीं किया जाता है. वहीं कुछ को गैर-दलित मुस्लिम दावतों में अलग बैठाया जाता है और प्रमुख जातियों के लोगों के बाद खाने दिया जाता है. कक्षाओं में और लंच ब्रेक के दौरान कुछ बच्चों को अलग बैठाया जाता है. इसके अलावा दलित मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा यह महसूस करता है कि "उच्च जाति" के मुसलमान और हिंदू उनसे दूरी बना लेते हैं."

तमन्ना इनामदार की मराठी पुस्तक मुस्लिम बलुतेदार 2018 में प्रकाशित हुई है, इस किताब में महाराष्ट्र में निचली जाति के मुस्लिम समूहों के बारे में व्यापक तौर पर नृवंशविज्ञान (मानव जाति के विज्ञान) संबंधी जानकारी दी गई है.

देशपांडे और बापना ने अपनी रिपोर्ट में केसी अलेक्जेंडर का संदर्भ दिया. केसी अलेक्जेंडर केरल (1977) के बारे में लिखते हैं कि "अमीर सीरियाई ईसाइयों की उपस्थिति में हरिजन ईसाइयों को अपने सिर की पोशाक उतारनी पड़ती थी. हरिजन ईसाइयों को अपने सीरियाई ईसाई आकाओं के साथ बात करते समय एक हाथ से अपना मुंह बंद रखना पड़ता था. पुलाया ईसाइयों को सीरियाई ईसाई के घर के अंदर या अच्छे बर्तन में खाना नहीं दिया जाता था. उन्हें घर के बाहर टूटे हुए बर्तन में खाना दिया जाता था और खाना खाने के बाद उन्हें ही उन बर्तनों को धुलना पड़ता था."

एक और कारण धर्मांतरण का अंतर्निहित डर है, जिसकी वजह से सरकारों ने दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं दिया है. 1950 के आदेश का अनुच्छेद 3 अनुसूचित जाति के दर्जे के लिए धर्म की शर्त जोड़ता है. पूर्व सांसद पीजे कुरियन ने 1950 के आदेश से अनुच्छेद 3 को हटाने के लिए 1980 में एक निजी सदस्य विधेयक पेश किया था. भारतीय समाजशास्त्र में योगदान के लिए एक शोध पत्र में तनवीर फजल लिखते हैं कि

इस विषय पर बोलने वाले अधिकांश सदस्यों ने धर्मांतरण को प्राथमिक कारण के रूप में पहचाना, इस तथ्य के बावजूद कि विधेयक का उद्देश्य उन समस्याओं का निवारण करना था जो अनुसूचित जाति ने अनुभव की थी. सदस्यों ने धर्मांतरण के पीछे प्रलोभन और जोर-जबरदस्ती की आशंका व्यक्त की और सामाजिक कानून के माध्यम से धर्मांतरण पर रोक लगाने की मांग की. संक्षेप में कहा जाए तो अनुसूचित जाति का दर्जा बचे हुए हिंदू के लिए मुआवजे के तौर पर देखा गया था और इसका इनकार विश्वास को छोड़ने के लिए एक सजा है.

मांग को पूरा करने का समय

जब पहले से ही पर्याप्त सबूत मौजूद हैं, तो नए पैनल की क्या जरूरत है? अगर सरकार दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों के सामाजिक-आर्थिक संकेतकों (सोशियो-इकनॉमिक इंडिगेटर्स) को व्यापक तौर पर समझना चाहती है तो उसे जाति के आंकड़ों को देश की दशकीय जनगणना में शामिल करने के लिए अनुमति देनी चाहिए. इस कदम से ओबीसी को अधिक सटीक रूप से उप-वर्गीकृत करने में भी सरकार को मदद मिलेगी.

भारतीय जनता पार्टी (BJP) के जो भी उद्देश्य हों, लेकिन अब समय आ गया है कि दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को उस सूची में रखा जाए जहां वे न्यायपूर्वक ठीक ढंग से फिट बैठते हैं. अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और अनुसूचित जनजाति (ST) सूचियां, दोनों धर्म-तटस्थ हैं. इनके विपरीत भारत की एससी लिस्ट ही एकमात्र ऐसी सूची है जो आरक्षण के लाभों को किसी की धार्मिक पहचान से जोड़ती है. अब तक, दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को बड़े पैमाने पर ओबीसी सूची में शामिल किया गया है. लेकिन सही मायने में ये एससी सूची से संबंध रखते हैं, इस लिस्ट से उन्हें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की अतिरिक्त सुरक्षा भी मिलेगी.

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