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दिल्ली के शाहीन बाग में महिलाओं के बेमिसाल धरने का दूसरा महीना शुरू होने जा रहा है. दरअसल ये धरना कई कारणों से बेमिसाल है – अब तक हमें अक्सर हेडलाइन देखने को मिलती थी, “महिलाओं ने ‘भी’ भारी संख्या में शिरकत की”; लेकिन इस धरने में महिला ही अगुवा हैं.
दूसरी अहम बात है कि पहचान को तरसती सियासत के इस दौर में ये आन्दोलन किसी धर्म या जाति विशेष पर आधारित नहीं है, बल्कि भारतीय नागरिकता पर प्रहार के खिलाफ है. तीसरी बात, कि ये आन्दोलन देश के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन के लिए प्रेरणा का स्रोत है.
पहले तो सरकार ने सोचा कि जल्द ही इस आंदोलन की हवा निकल जाएगी, लेकिन अब सरकार के माथे पर चिन्ता की लकीरें साफ दिख रही हैं. पूरी तरह शान्तिपूर्ण और गांधीवादी तरीके से चल रहे विरोध प्रदर्शन के कारण पुलिस बल प्रयोग का भी कोई मौका नहीं मिल रहा है. आखिरकार केन्द्र सरकार को सफाई देनी पड़ी है कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर में माता-पिता के जन्म की तारीख और जगह की सूचना दर्ज कराना जरूरी नहीं, स्वैच्छिक है.
ऐसा मूल रूप से इस कारण मुमकिन हुआ क्योंकि बीजेपी का आकलन पूरी तरह गलत साबित हुआ. ये सिर्फ एक ‘मुस्लिम मुद्दा’ नहीं रहा, बल्कि CAA, NRC और इसकी क्रोनोलॉजी भारत के समावेशी विचारों और संवैधानिक मूल्यों पर आघात करने वाले अधिनियम के रूप में उभरकर सामने आई. ढुलमुलाती अर्थव्यवस्था को संभालने में नाकामी के बाद खुद को सही साबित करने की सरकार की कोशिश ने इस आन्दोलन के जरिये युवाओं में असंतोष को हवा दी.
CAA कड़वी राजनीति का अहसास बन गया, जिसमें भावनाओं को आहत करने और उग्र ‘राष्ट्रवाद’ को हवा देने वाले गुण भरे हुए थे और इसके मुस्लिम विरोधी होने का अहसास करा रहे थे. इस बार युवाओं को इस नियम के पीछे छिपी कलाकारी समझ में आने लगी. प्लेकार्ड पर लिखे ऐसे नारे इसी सोच के दर्शाते हैं – ‘हिन्दू हूं...#... नहीं’.
निश्चित रूप से CAA की अवधारणा भारतीय नागरिकता को साम्प्रदायिक रंग में रंगती है. मुस्लिमों को दूसरे अल्पसंख्यकों से अलग कर सोचा गया कि इससे किसी भी विरोध प्रदर्शन को ‘मुस्लिम विशिष्ट’ बताकर आसानी से ‘देश विरोधी’ करार दिया जा सकता है. लेकिन कुल मिलाकर प्रदर्शनकारियों ने इस जाल से बचने में अभूतपूर्व बुद्धिमानी दिखलाई. समुदाय विशेष को निशाना बनाने की साजिश का पर्दाफाश हो गया.
नागरिकता और ‘हक’, यानि अधिकार के विस्तृत आयाम को सवालों के घेरे में लेकर ही ये मुमकिन हो पाया. संयोगवश हक का प्राथमिक अर्थ सत्य होता है. लिहाजा सत्य की अवधारणा मान्य है और यहां ‘हक’ की व्याख्या प्राथमिक अर्थ के रूप में की जाती है.
ये वैसे लोगों के लिए सबक है, जो मुस्लिम होने के आधार पर CAA और NRC का विरोध कर रहे हैं. ये उनके लिए एकता प्रदर्शन का माध्यम हो सकता है, लेकिन इस आंदोलन का मतलब है नाइंसाफी का सीधा विरोध. अपने साथ न सही, दूसरों के साथ भी नाइंसाफी हो, तो भी उसका विरोध करना चाहिए. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो नाइंसाफी का विरोध करने के लिए खुद को दलित या महिला बताना जरूरी नहीं है.
इसी प्रकार प्रेम बेहद खुशनुमा इंसानी अहसास है जिसका इजहार आलिंगन के जरिये होता है. लेकिन दूसरे भावों की तरह प्रेम की भी एक सीमा होनी चाहिए. आप आंख मूंदकर हर किसी से प्यार नहीं कर सकते. व्यक्तिगत हो या संस्थागत, कट्टरता, क्रूरता और नाइंसाफी का विरोध इंसानियत का तकाजा है.
निजी रिश्तों में भी दिखावटी प्रेम के लिए आलिंगन करना किसी का हक या अधिकार छीनने के लिए किया जा सकता है. दूसरी ओर ये समस्याओं की ओर से आंखें मूंदने का भी तरीका हो सकता है. राजनीति में कथित प्रेम हिंसक कट्टरपंथ की ओर ले जा सकता है. सही हो या गलत, आपको अपने राष्ट्र से प्यार निश्चित रूप से करना चाहिए. दरअसल निजी और राजनीतिक क्षेत्रों में प्रेम, नफरत या दूसरे भाव निश्चित रूप से तर्कसंगत और नैतिक होने चाहिए.
आने वाले समय में नतीजा जो भी हो, चाहे दमन का ही रास्ता क्यों ना अख्तियार करना पड़े, लेकिन शाहीन बाग में चल रहे विरोध प्रदर्शन के साथ पूरा देश सत्याग्रह के दूसरे दौर में प्रवेश कर चुका है. इसका कारण है कि पहचान से जुड़ी और भावनाओं (प्रेम या नफरत) की राजनीति का विरोध राजनीति में सच (हक) का समावेश करता है, जो निश्चित रूप से वैश्विक मानवीय मूल्यों में लोकतांत्रिक अधिकारों को प्रोत्साहन देगा.
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