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मेरे हाथों में खून है. और लेडी मैकबेथ के अनुभव से मैं जानती हूं कि “अरब की सारी खुशबू भी मेरे छोटे हाथों को और सुगंधित नहीं बना सकती”. तो मैं उनके बजाए मैडम डीफार्ज की ओर मुखातिब होती हूं और अपने ऊपर लगे कलंक में कुछ शब्द जोड़ती हूं- मेरे सहयोगी की उन जटिलताओं को सामने लाएं, जिन्होंने दिल्ली के वंचित इलाकों में नरसंहार फैलते वक्त अपने इन हाथों को सूंघने से मना कर दिया.
इस खेल के रिंग लीडर, प्रधानमंत्री, मोदी सरकार और गृहमंत्री अमित शाह; इनके पास इतनी काबिलियत है कि वो समझ पाते कि इन घटनाओं को बढ़ने से रोका जा सकता था. एक टास्क फोर्स बनाते, पुलिस बल को आगे बढ़ने का निर्देश देते और दंगे रोकने में लगाते, हर जरूरी जगहों पर पर्याप्त दस्ते भेजते, बचाव और राहत कार्यों को प्रभावशाली तरीके से चलाते.
भगवान के लिए समझिए कि यह देश की राजधानी है. यह सब आपकी नाक के नीचे हो रहा है. जरूरी ताकत आपके पास है. आपने इसे हासिल किया है. बस आप इसका इस्तेमाल करना नहीं चाहते. आप शहर को जलते देखना चाहते हैं. और, इससे आपकी संलिप्तता बढ़ती जा रही है.
दिल्ली चुनाव अभियान के दौरान आपकी पार्टी के नेताओँ की ओर से ध्रुवीकरण के मकसद से दिए गये अतिवादी बयानों की आपने कई दिनों बाद बहुत हल्के तरीके से निन्दा की. आपकी पार्टी के एक और नेता कपिल मिश्रा ने ऐसे बयान दिए जिस बारे में बताया जा रहा है कि इसने ताजा हिंसा का दौर शुरू किया. अब हम सब जानते हैं कि आप कठोरता के साथ शासन करते हैं. ऐसे में उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं किए जाने का एक मात्र जवाब यही हो सकता है कि वे आपकी जुबान बोल रहे हैं.
आप सत्ता की भूख में बस ध्रुवीकरण करते चले गये- वोट, सीट, प्रभाव, पैसे में इसे बदलते जाने दिया. और अब आपकी पार्टी के लोगों ने जहर भरा वो अब सड़कों पर फैल रहा है और देश में जो कुछ अच्छा और महान है, उन्हें मटियामेट कर रहे हैं.
दिल्ली पुलिस, हम जानते हैं कि आप निष्ठा के साथ कर्त्तव्य के लिए हमेशा आजाद नहीं होते. आपका ऐसा अस्तित्व दयनीय है. आपको वेतन कम मिलता है, पास में अस्त्र-शस्त्र कम होते हैं, कम प्रशिक्षित भी हैं और आप अपने राजनीतिक आकाओं की दया पर होते हैं. लेकिन इस बार आप इन बहानों की आड़ में नहीं छुप सकते.
आपने कामकाज की सामान्य प्रक्रिया का पालन भी शायद अपनी मर्जी से नहीं किया. जमीन पर आपकी बर्बरता महज फूहड़ बुराई भर नहीं है. प्रमाण वाले वीडियो दुनिया देख सकती है और यह आपके बुरे इरादे, घटिया दर्जे की कट्टरता और अक्षम्य अमानवीयता को बयां करती है.
किराए के लड़ाके और विचारक, जिन्होंने भारतीय युवाओं के दिल और दिमाग में लगातार जहर भरे, उनमें डर और असुरक्षा की भावना को हवा दी, बुरी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया और उन्हें अपने ही लोगों के खिलाफ लड़ने के लिए सड़कों पर खड़ा कर दिया. ऐसा इसलिए कि वे भारत की सोच को खाक कर सकें जो राष्ट्रवादी गौरव के मूल में हैं, एक ऐसी लड़ाई लड़ें जिसमें किसी की जीत नहीं होनी है, गलत कारणों से अपनी ही जिन्दगियों को दांव पर लगाएं. जबकि, उन्हें हांक रहे लोग अपनी बोयी खूनी फसल काट रहे हैं.
नवनिर्वाचित दिल्ली सरकार और अरविंद केजरीवाल- मेरा यकीन कीजिए, हम जानते हैं कि आप पुलिस को नियंत्रित नहीं करते. आपने हमें यह बात भूलने नहीं दी. लेकिन आप बेपर्दा हो चुके हैं. क्यों नहीं समय पर केंद्रीय सुरक्षा बलों की मांग की गई? जिला अधिकारी क्या कर रहे थे? वे आपको रिपोर्ट करते हैं कि नहीं?
आपकी वह फौज कहां रही जो बचाव और राहत के काम करती, घायलों के साथ खड़े होती, अस्पतालों का मुआयना करती? कुछ हफ्ते पहले आपकी चुनावी जीत ‘जहां चाह वहां राह’ का प्रमाण थी. जब दिल्ली जल रही थी उस वक्त खुद को दूर रखने का संगीन गुनाह करते हुए आपने यह बिल्कुल साफ कर दिया कि आप उस वक्त भी आदर्श राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखा सके, जब सबसे ज्यादा इसकी जरूरत थी.
रची-रचाई हिंसा के बीच पूरे शहर से मदद की आवाजों पर बहरी रही सरकार को सोनिया गांधी की प्रेस कॉन्फ्रेंस ने प्रतिक्रिया का अवसर देने से ज्यादा कुछ नहीं किया. किस वजह से इतनी देरी हुई? राजनीतिक रूप से कांग्रेस बहुत प्रासंगिक नहीं रह गयी है लेकिन क्या किसी संगठन के लिए सत्ता ही वह चीज होती है जो उसे आम लोगों से गहरे जोड़े रखती है?
आप नेहरू की विरासत का दावा करते नहीं थकते, सोशल मीडिया को उनकी उपलब्धियों के बखान से पाट देते हैं. आप जानते हैं कि नेहरू ने क्या कुछ किया? जब 1947 में वे दिल्ली से गुजर रहे थे तो उन्होंने कनॉट प्लेस के पास सांप्रदायिक हिंसा भड़कती देखी. वे अपनी कार से कूद गये. सुरक्षा घेरे को तोड़ दिया. दौड़कर भीड़ में जा घुसे. हस्तक्षेप किया और संघर्ष को रोका.
आगे कुछ और करें. अपने कार्यकर्ताओं को मदद के लिए भेजें, अपने से जुड़े छात्रों को संगठित करें और भी ज्यादा हो-हल्ला करें. और जब आप ऐसा कर रहे हों तो यह संकल्प लें कि राहुल गांधी को एक और मौका नहीं देंगे.
आराम पसंद पत्रकार जिन्होंने सारे प्राइम टाइम शो यही बताते हुए किए कि आखिरकार बीजेपी ने अपनी गलती सुधार ली है क्योंकि गृहमंत्री ने देर से ही सही उन अतिवादी बयानों की निंदा की है जिनके कारण दिल्ली चुनावों में बीजेपी की हार हुई.
अपनी सरलता और इच्छा से आप इसे नकार सकते हैं. नफरत शक्तिशाली भावना होती है. यह इस तरीके से नहीं आती कि आप जब चाहें तब नियंत्रित कर लें. इसके ठहर जाने जैसी कोई स्थिति नहीं होती. इसे साधारण तरीके से न खत्म किया जा सकता है न घटाया जा सकता है. अगर आपने इस दानव को पैदा किया है तो आप केवल एक काम कर सकते हैं- इस भावना को मजबूत बनाते रहें.
संपादक और मीडिया मालिक जिन्होंने लोकतंत्र के चौथे खम्भे को उत्पादक फैक्ट्रियों में बदल दिया है और जिसका एकमात्र सिद्धांत मुनाफा है. इस देश में बहादुर और प्रतिभाशाली पत्रकारों की कमी नहीं है लेकिन जमीनी रिपोर्ट और खोजी पत्रकारिता के लिए बुनियादी सुविधाओं और धन की घनघोर कमी है. इसी कारण जबरदस्त आर्थिक मदद से चलते प्रोपेगेंडा टीवी चैनलों को हावी होने का मौका मिल जाता है और हम तक पहुंच रही आग की उन लपटों को वे हवा दे पा रहे हैं.
सभ्य समाज का समूह जो शाहीन बाग जैसे प्रदर्शन स्थलों पर दिखाई देता है वह गरीब तबके को मजबूती प्रदान करता है. उनमें आशा जगती है और सुरक्षा का भाव होता है कि देश उनके साथ खड़ा है और वे अकेले नहीं हैं. संवैधानिक अधिकार मांगने के लिए आज मुसलमानों की पिटाई हो रही है, घर लूटे जा रहे हैं, उनसे बर्बरता हो रही है, उनकी हत्या की जा रही है और उनकी वित्तीय गतिविधियां तबाह की जा रही हैं. ‘हम देखेंगे’ का बिल्कुल नया मतलब निकाला जा रहा है.
टिप्पणीकार जल्द ही राहत की सांस लेना शुरू करेंगे और वे सरकार की सराहना करेंगे जब अंत में काम पूरा हो जाएगा- क्योंकि यह देर-सबेर निश्चित होगा. इसे उनके आक्रोश की जीत माना जाएगा. सनक का भी एक तरीका होता है. अशांति का भी एक लक्ष्य होता है. क्रिस्टलनाच (जर्मनी में नाजियों द्वारा रची गयी हिंसा) एक रात के लिए घटित हुई थी लेकिन इसने जर्मनी में तीसरे युग का मंच सजाया था. जो संदेश भेजा गया वह ऊंचा और स्पष्ट था. यहूदी दूसरे दर्जे के नागरिक थे. उनका जीना या मरना बहुसंख्यकों की दया पर था जिसका नेतृत्व हिटलर के हाथों में था. और, अगर वे विरोध का दुस्साहस दिखाते तो नतीजा बुरा और केवल बुरा होता.
न्यायपालिका कानून के शासन के लिए प्रतिबद्धता से दूर हो चुकी है. इंतजार लम्बा होता है और उससे हासिल थोड़ा होता है. आप चाहते हैं कि याचिका की सुनवाई होते समय चीजें दोबारा सामान्य हो चुकी हों. आपने पीड़ितों को इतनी दफा निराश किया है कि हम बस बोलने भर को लोकतंत्र रह गये हैं, कि सही तरीके से कुछ अच्छे जज कार्य करते हैं तो वे हमें क्रांतिकारी लगते हैं, कि अब कोई जगह नहीं बची है जहां जाकर न्याय मांगा जाए.
हमारे संविधान की जीवन धारा न्यायालय के कलम की धार में बह गयी. उनकी कलम की निब अब पूरी तरह से टूट चुकी है. एक सामूहिक काला वारंट ही देश के लिए अंतिम आदेश है.
हर कलाकार जो चुप है, आपकी अभिव्यक्ति का कोई नैतिक अधिकार नहीं बचा है. अपने औजारों को टांग दीजिए. हर नागरिक जो किसी और तरीके से सोच रहा है. भूगोल का इतना प्रभाव पहले कभी नहीं देखा गया जितना आज है. कैफे, बार, बगीचे, स्कूल, दक्षिण और मध्य दिल्ली के कार्यस्थलों पर कोई असर नहीं है जबकि थोड़ी ही दूरी पर उसी शहर में खौफनाक साया है.
लोग असीम रूप से उदास और निराश हैं क्योंकि किसी ने किसी के दरवाजे से मुंह मोड़ लिया है और यह मान लेने की त्रासदी पैदा हो गयी है कि विशेषाधिकार के ये दरवाजे अब कभी रास्ता नहीं देंगे. मैं और भी बहुत कुछ बोल सकती हूं क्योंकि हम सभी एक ही घेरे में हैं जहां हम अपने अहंकारों में बंटे हैं, जटिलताओं से बंधे हैं.
लेकिन जब तक सांस है तब तक आस है. दोबारा पुरानी स्थिति लौट सकती है. जो लोग यह मानते हैं कि जीवन चलता रहता है. यह अपने मार्ग पर केवल एक बार रुकता है. इतिहास बदलने के लिए, अपने देश की किस्मत बदलने के लिए, जिन्दगियां बचाने के लिए, नफरत के शिकार लोगों की मदद के लिए- दोनों तरह के लोग जो इस जहर के शिकार हुए और जो दूसरी ओर खड़े थे, उन सबके लिए हर वो काम करें जो आप कर सकते हैं. हममें से हर कोई जो आज की रात सोने वाले हैं, हम जागें और अपने हाथों को सूंघें. दिल्ली में गिरते हर खून की बूंद के बाद यह बदबूदार और खूनी होता चला जा रहा है.
(प्रज्ञा तिवारी दिल्ली की लेखिका हैं जो इससे पहले वाइस-इंडिया से जुड़ी थीं. यह एक वैचारिक लेख है. इसमें व्यक्त विचार लेखक के हैं. क्विंट का इससे कोई सरोकार नहीं है.)
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Published: 28 Feb 2020,12:45 PM IST