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मुस्लिम धर्मगुरुओं के सबसे बड़े संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद (Jamiat ulema-e-hind) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक देवबंद में हुई. इसमें जमीयत ने समान नागरिक संहिता का पुरजोर विरोध करते हुए इसे संविधान में दिए गए धार्मिक आजादी के अधिकार का उल्लंघन करार दिया, वहीं ज्ञानवापी (Gyanvapi Masjid), मथुरा की शाही ईदगाह (Mathura Idgah) समेत अन्य मस्जिदों को लेकर उठाए जा रहे विवादों पर संविधान के दायरे में रह कानूनी लड़ाई लड़ने की बात कही. जमीयत ने जहां सरकार को पुरानी मस्जिदों और ऐतिहासिक इमारतों से संबंधित गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ने की नसीहत दी है. वहीं मुसलमानों से ''मौजूदा बेहद मुश्किल हालात'' में हिंदू समाज से सीधे टकराव से बचने और सब्र से काम लेने की अपील की है.
सम्मेलन में हिंदू संगठनों की तरफ से मुसलमानों को लगातार दी जा रहीं धमकियों का नरम लहजे में बेहद सख्त जवाब दिया गया है. इस पर जमीयत के महासचिव मौलाना महमूद मदनी ने दो टूक बात कही. एक तरफ मदनी ने मुसलमानों को समझाने की कोशिश की तो दूसरी तरफ कट्टर हिंदूवादी संगठनों और उनके नेताओं से कहा,
मुसलमानों को समझाते हुए वो आगे बोले, ‘भेजना नहीं है किसी को. क्योंकि वो जरा-जरा सी बात पर कहते हैं न कि जाओ पाकिस्तान चले जाओ. भैया तुम्हें मौका नहीं मिला था पाकिस्तान जाने का. हमें मिला था, लेकिन हमने उस मौके को ठुकरा दिया था. इसलिए हम तो कहीं नहीं जाने वाले. जो हमें जाने को कहते हैं वो ही इस मुल्क को छोड़कर कहीं और चले जाएं.'
देश में मुसलमानों के खिलाफ लगातार बनाए जा रहे नफरत के माहौल के बीच जमीयत के इस सम्मेलन को काफी अहम माना जा रहा है. सम्मेलन में जमीयत ने साफ किया कि नफरत का जवाब नफरत से नहीं दिया जा सकता. आग को आग से नहीं बुझाया जा सकता. लिहाजा मुसलमानों के खिलाफ चलाए जा रहे नफरती अभियान के खिलाफ जमीयत ने देशभर में 10,000 ‘सद्भावना संसद’ करने का ऐलान किया है. इनमें सभी धर्मों के प्रभावशाली लोगों को न्यौता दिया जाएगा.
साथ ही जमीयत ने संयुक्त राष्ट्र संघ से साल 14 मार्च को 'इस्लामोफोबिया की रोकथाम का अंतरराष्ट्रीय दिवस' घोषित करने की मांग की है. जिसके जरिये सभी धर्मों, जातियों और कौमों के बीच आपसी सद्भाव, सहनशीलता और शांति का संदेश दिया जा सके. इस अंतरराष्ट्रीय दिवस पर नस्लवाद और धार्मिक भेदभाव को मिटाने का साझा संकल्प लेने की भी योजना है.
जमीयत के दो दिवसीय सम्मेलन में अलग-अलग विषयों पर सात प्रस्ताव पास किए जाने की चर्चा थी लेकिन आखिर में 4 प्रस्ताव ही पास किए गए. इन चारों प्रस्तावों का सार कुछ यूं है:
ज्ञानवापी और मथुरा की शाही ईदगाह सहित अन्य मस्जिदों के खिलाफ इस समय ऐसे अभियान जारी हैं, जिससे देश की शांति, गरिमा और अखंडता को नुकसान पहुंचा है. इन विवादों से नकारात्मक राजनीति के लिए अवसर निकाले जा रहे हैं, लेकिन पुराने विवादों को जीवित रखने और गलतियों को सुधारने जैसे आंदोलनों से देश को कोई फायदा नहीं होने वाला. जब पूजा स्थल एक्ट-1991 से तय हो चुका है कि 15 अगस्त 1947 को इबादतगाह की जो हैसियत थी, वह बरकरार रहेगी. ऐसे में इतिहास के मतभेदों को बार-बार जीवित करना शांति-सद्भाव के लिए उचित नहीं है.
जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने इस पर चिंता जताई है कि पैगंबर मुहम्मद के नाम पर नफरत भरे बयानों, लेखों और नारों की एक शृंखला फैलाई जा रही है. यह सोची-समझी साजिश का नतीजा है. इसलिए सरकार से मांग की गई है कि जल्द ऐसा कानून बनाएं, जिससे मौजूदा कानून-व्यवस्था की अराजकता खत्म हो. इस तरह के कामों पर रोक लगे और सभी धर्मों के महापुरुषों का सम्मान हो. जमीयत ने इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की है.
तीसरा अहम प्रस्ताव समान नागरिक संहिता को लेकर पास किया है. मुस्लिम पर्सनल लॉ में शामिल मामले शादी, तलाक, विरासत आदि के नियम-कानून किसी समाज या व्यक्ति ने नहीं बनाए हैं, बल्कि ये नमाज-रोजा की तरह मजहबी आदेशों का हिस्सा हैं, जो कुरान और हदीसों से लिए गए हैं. इसलिए इनमें कोई बदलाव करना इस्लाम में हस्तक्षेप करने के बराबर होगा. अनेक राज्यों में सरकारों में बैठे लोग पर्सनल लॉ को खत्म करने की मंशा से कॉमन सिविल कोड लागू करने की बात कर रहे हैं. यह दखलअंदाजी स्वीकार नहीं होगी. हम मांग करते हैं कि सरकार भारत के संविधान की इस मूल विशेषता और गारंटी को ध्यान में रखकर मुस्लिम पर्सनल लॉ की सुरक्षा के बाबत निर्देश जारी करे.
जमीयत ने इस प्रस्ताव के जरिए देश में इस्लामी शिक्षाओं के बारे में गलत धारणाओं को दूर करने के लिए एक अभियान चलाने की जरूरत महसूस की है. मुसलमानों से सोशल मीडिया पर ऐसे संदेश पोस्ट करने की अपील की गई है जो इस्लाम के गुणों और मुसलमानों के सही पक्ष को सामने लाएं. नई शिक्षा पाने वालों को उचित सामग्री उपलब्ध कराएं. वही मुस्लिम समाज में इस्लाम को लेकर जानकारी बनाने के लिए सीरत-ए-रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के विषय पर बड़े पैमाने पर इस्लामी क्विज आयोजित किए जाएं.
जमीयत के दो दिवसीय सम्मेलन में पास किए गए प्रस्तावों पर संघ ने कड़ा ऐतराज जताया है. हालांकि संघ ने सीधे तौर पर इस पर कोई टिप्पणी नहीं की है. लेकिन संघ से जुड़े 'राष्ट्रीय मुस्लिम मंच' की तरफ से इसे मुसलमानों को भड़काने वाले प्रस्ताव करार दिया गया है. हालांकि राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के किसी बड़े पदाधिकारी ने इस पर टिप्पणी नहीं की. उसने अपने सहारनपुर के जिला संयोजक को आगे करके जमीयत के खिलाफ मोर्चा खोला है.
यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर जमीअत उलमा-ए-हिंद का मुसलमानों पर कितना असर है? क्या यह संगठन वाकई देश भर के मुसलमानों की नुमाइंदगी करता है? अभी तक ज्ञानवापी और मथुरा जैसे मुद्दों पर मुसलमानों की तरफ से अकेले असदुद्दीन ओवैसी बोल रहे थे. उन पर मुसलमानों के जज्बात से खेल कर राजनीति करने का आरोप लग रहा था. अब जमीयत भी इस मैदान में उतरी है. लेकिन जमीयत राजनीतिक दल नहीं बल्कि एक सामाजिक संगठन है. हालांकि जमीयत मूल रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश का संगठन है. लेकिन इसका वजूद देशव्यापी है.
जमीयत से जुड़ी ज्यादातर उलेमा मस्जिदों के इमाम और मदरसों में पढ़ाने वाले मौलाना हैं. इनका आम मुसलमानों से सीधा संपर्क रहता है. लिहाजा उनकी बात का मुस्लिम समाज पर असर पड़ता है.
जमीयत के सम्मेलन का आम मुसलमानों पर कितना असर पड़ेगा और इससे देश की राजनीति कैसे प्रभावित होगी? अभी मुकम्मल तौर पर इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. लेकिन इतना तय है कि जमीयत के सम्मेलन में लगातार डराए और धमकाए जा रहे हैं मुसलमानों को एक भरोसा जरूर मिला है कि उनके मुद्दों पर सामाजिक और संवैधानिक लड़ाई लड़ने के लिए जिम्मेदार लोग आगे आ रहे हैं. हालांकि पिछला रिकॉर्ड बताता है कि मुसलमानों से जुड़े धार्मिक मुद्दों पर टकराव से बीजेपी को राजनीतिक फायदा होता रहा है. इस बात का अंदाजा जमीयत उलमा-ए-हिंद को भी है.शायद इसीलिए वो इस बार फूंक-फूंक कर कदम रख रही है.
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Published: 31 May 2022,08:01 AM IST