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..तो क्या अबकी बार 2019 में ‘जुगाड़ सरकार’?

क्या बीजेपी राजीव गांधी के फॉर्मूले पर चलेगी?

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चुनाव का वक्त करीब आ चुका है. अब से करीब दस महीने बाद देश एक नई सरकार चुन रहा होगा. कोई चमत्कार नहीं हुआ, तो तय मानिए कि बीजेपी को अपने दम पर बहुमत नहीं मिलने जा रहा है. हां वो लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी जरूर होगी.

ऐसे में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के इच्छुक होते हैं या नहीं ये इस बात निर्भर करेगा कि बीजेपी अभी के मुकाबले कितनी सीटें गंवाती है.

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1989 में कांग्रेस ने सरकार गठन की कोशिश नहीं की

साल 1989 में जब कांग्रेस अपने 415 सीटों के आंकड़े घटकर 197 पर रह गई थी, तो कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि भले ही उनकी पार्टी लोकसभा में सबसे बड़ा दल है फिर भी जनादेश उनके खिलाफ है, इसीलिए वो सरकार बनाने की कोशिश नहीं करेंगे.

उस समय राजीव गांधी ने इस भरोसे पर सरकार नहीं बनाई थी. वी पी सिंह की अगुवाई वाली जनता दल की सरकार अपने विरोधाभासों के चलते जल्दी ही गिर जाएगी. राजीव गांधी का अनुमान सही निकला और वी पी सिंह सरकार एक साल में ही गिर गई. ये सरकार तब तक की सबसे विनाशकारी सरकार साबित हुई.
क्या बीजेपी राजीव गांधी के फॉर्मूले पर चलेगी?
1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की उत्तर प्रदेश में रैली 
(फोटो: रॉयटर्स)
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क्या बीजेपी राजीव गांधी के फॉर्मूले पर चलेगी?

क्या बीजेपी राजीव गांधी के फॉर्मूले पर चलेगी?

अगर बीजेपी 130 से 140 सीटें हार जाती है, जो कि मुमकिन है. तो सवाल रहेगा कि क्या वो राजीव गांधी के फॉर्मूले पर चलेगी? तीन वजहों से ऐसा मुमकिन लगता है.

  1. पहला- अगर बीजेपी अटल बिहारी वाजपेयी की जगह किसी बड़े गठबंधन की सरकार का नेतृत्व करती है, तो उनका कोर एजेंडा कमजोर पड़ जाएगा.
  2. दूसरा- मोदी शायद ऐसी किसी सरकार की अगुवाई नहीं करना चाहेंगे, जो सहयोगी पार्टियों पर निर्भर हो. ऐसे में वो नेतृत्व कर रही कमजोर पार्टी (बीजेपी) पर दबाव होगा. और नरेंद्र मोदी, वाजपेयी नहीं हैं.
  3. तीसरा- किसी भी बीजेपी विरोधी गठबंधन में आगे चलकर वैसी ही सैद्धांतिक और राजनीतिक मुसीबतें पैदा होंगी, जो कुछ 1977 और 1989 में कांग्रेस विरोधी मोर्चे के अंदर हुईं थीं.
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क्या बीजेपी राजीव गांधी के फॉर्मूले पर चलेगी?
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतिहास के हिंदू संस्करण के हिमायती हैं
(Photo: Reuters)
फिर नेता की पसंद का भी मुद्दा रहेगा. भले ही इसका (नेता का) चुनाव गठबंधन की पार्टियां आमचुनाव के बाद करें. लेकिन इस पर कई बार चर्चा हो चुकी है और हर बार यही कहा गया है कि अभी इस मुद्दे को अलग ही रखा जाए.
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पार्टी, नेता और असंतोष

संभावित महागठबंधन की पार्टियों के अंकगणित को देखते हुए एक बात पूरे भरोसे के साथ कही जा सकती है कि इनके बीच कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होगी, क्योंकि बाकी तमाम पार्टियां क्षेत्रीय हैं और इनमें से कोई भी हद से हद 50 सीटें तक जीत सकती हैं.

दूसरी ओर कांग्रेस अगर अपने मौजूदा आंकड़े में 5 सीटों का भी इजाफा करती है, तो लोकसभा में उसके सांसदों की संख्या 53 हो जाएगी. इसके बाद कांग्रेस राहुल गांधी से अलग किसी चेहरे के साथ गठबंधन की सरकार की अगुवाई के लिए सामने आ सकती है. ये स्थिति एक तरह से 2004 के सोनिया-मनमोहन के वक्त के दोहराव की तरह होगी.

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क्या बीजेपी राजीव गांधी के फॉर्मूले पर चलेगी?
मायावती और ममता बनर्जी भी पीएम की कतार में हो सकती हैं.
(फोटो: क्विंट)
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ये भी मुमकिन है कि कांग्रेस के सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी विरोधी इस मोर्चे के कुछ दूसरे दल प्रधानमंत्री की कुर्सी पर दावा करें और सरकार का गठन असंभव हो जाए. ऐसे नेताओं में शरद पवार साफ तौर पर दिख रहे हैं. जबकि मायावती और ममता बनर्जी भी इस कतार में हो सकती हैं.
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दोबारा चुनाव का खतरा

ऐसी स्थिति में अगर बीजेपी भी सरकार बनाने से मना कर दे, तो शायद हमारे पास एक और आमचुनाव के सिवा कोई और रास्ता नहीं होगा.

1989 का दोहराव: तब बीजेपी, सीपीएम और सीपीआई सबने जनता दल का समर्थन किया था. आगे भी हम भारतीय राजनीति की ‘बाहर से समर्थन’ की विचित्र घटना देख सकते हैं, जिसमें कि दुश्मन पार्टियां भी बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के नाम पर एक साथ हो सकती हैं. ठीक वैसे ही, जैसा कि 1989 में कांग्रेस को बेदखल करने के नाम पर हुआ था.

हमें इतिहास से इस बात की जानकारी है कि ये एक बहुत ही अस्थिर समाधान होगा. ऐसा ही एक प्रयोग 1977-79 में भी फेल हो गया था. ऐसा ही हाल 1996-98 के बीच रहा, जब हमने इतनी छोटी-अवधि में तीन प्रधानमंत्री और दो सरकारें देखीं.

हमें ये सोचकर अपनी आंखों में धूल नहीं झोंकना चाहिए कि ऐसी स्थिति दोबारा नहीं आएगी. मैं कह सकता हूं कि यही 2019 चुनाव से निकलने वाली सबसे प्रबल संभावना है.

हम कुछ गंभीर राजनीति उठा-पटक की तरफ बढ़ रहे हैं, जो कुछ समय तक कायम रह सकती है.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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