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वाजपेयी ने जो BJP बनाई थी वो अब उनके विचारों से बिल्कुल अलग है

वाजपेयी ने जो पार्टी बनाई थी, वो मोदी के नेतृत्व में बदल गई

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जब प्रधानमंत्रियों के साथ ‘पूर्व’ शब्द जुड़ जाता है, तो वे महान लगने लगते हैं. अटल बिहारी वाजपेयी भी इस नियम के अपवाद नहीं हैं. यहां तक कि इंदिरा गांधी का भी कद उन लोगों से बड़ा माना जाता है, जिन्हें उन्होंने नुकसान पहुंचाया था. इंदिरा ने देश को भी काफी नुकसान पहुंचाया था और इनमें से कुछ से वह आज तक नहीं उबर पाया है.

दूसरे पूर्व प्रधानमंत्रियों की तुलना में वाजपेयी वाकई अच्छे इंसान थे. बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व के मुकाबले वह ‘सॉफ्ट’ यानी ‘नरम’ थे, वह देश को बेहतर समझते थे. उन्होंने हिंदुओं का जिक्र कभी भी पीड़ित अल्पसंख्यकों के तौर पर नहीं किया और इसी वजह से वाजपेयी ने वास्तविक अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने की बात नहीं कही. उनके लिए राजधर्म का मतलब कुछ और था.

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वाजपेयी के कार्यकाल में बाबरी गिराई गई होती तो?

वाजपेयी अपने दोस्त और पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव की तरह निराशावादी भी नहीं थे और ना ही उनमें कांग्रेसी नेता की तरह साहस की कमी थी. वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तब सांसदों को रिश्वत नहीं दी गई. जब जरूरी लगा, उन्होंने पोखरण 2 पर आगे बढ़ने का फैसला किया, जबकि राव ने अमेरिका की धौंस में आकर परमाणु परीक्षण टाल दिए थे.

हमें यह नहीं पता है कि वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते अगर बाबरी मस्जिद गिराई गई होती तो वह क्या करते. हालांकि, अपने कार्यकाल में जिस तरह से उन्होंने चुनौतियों का सामना किया था, उसे देखकर यह माना जा सकता है कि वाजपेयी ने इसे रोकने की पूरी कोशिश की होती. हो सकता है कि वह मस्जिद गिराए जाने से रोक ना पाते, लेकिन उन्होंने इसकी कोशिश जरूर की होती.

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वाजपेयी को थी अच्छे और बुरे की बेहतर समझ

वाजपेयी जब प्रधानमंत्री बने, तब वह राजीव गांधी की तरह राजनीति में नौसिखिए नहीं थे. इसलिए जब अंदर से वाजपेयी को चुनौती दी गई तो वह सबको साथ बनाए रखने में सफल रहे. वहीं, तजुर्बे की कमी के चलते राजीव ऐसा नहीं कर पाए. जिस तरह से वी.पी. सिंह ने राजीव को छोड़ने के बाद उनके खिलाफ आग उगलना शुरू कर दिया था, वैसा वाजपेयी ने नहीं होने दिया.

मनमोहन सिंह की तरह वाजपेयी भी बहुत कम बोलते थे. यहां तक कि उन्हें सहयोगियों और अधिकारियों से भी बहुत बात करना पसंद नहीं था, लेकिन दोनों के बीच समानता यहीं खत्म हो जाती है. उसकी वजह यह है कि वाजपेयी को अच्छे और बुरे की बेहतर समझ थी. उनके लिए अपना हित सर्वोपरि नहीं था. जिस तरह से डॉ. सिंह खुद को बंधा हुआ महसूस करते थे, वैसा वाजपेयी ने नहीं होने दिया. इससे आरएसएस के साथ उनका टकराव हुआ, लेकिन प्रधानमंत्री पद की गरिमा बनाए रखते हुए उन्होंने सब कुछ संभाल लिया.

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हर काम को चुनावी चश्मे से नहीं देखते थे वाजपेयी

नरेंद्र मोदी की तरह वाजपेयी दिन में 15-17 घंटे काम नहीं करते थे. उन्हें यह हास्यास्पद लगता था. इसलिए लक्ष्यों का पीछा करने के बजाय वह यह सोच पाते थे कि कौन से काम ज्यादा जरूरी हैं. वह सिर्फ चुनाव के चश्मे से हर चीज को नहीं देखते थे. चुनाव में जीतना जरूरी था, लेकिन वह इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार नहीं थे. आज बीजेपी में ऐसा नहीं है.

वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तब उनकी पार्टी में कई लोग बुजुर्ग की तरह काम करने के उनके तरीके की आलोचना करते थे. एक मंत्री तो उन्हें ‘वो बुड्ढा’ कहा करते थे. 

इस मामले में वह नरसिम्हा राव की तरह थे. राव के बारे में भी उनके कुछ मंत्री ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते थे. हालांकि, राव की तरह वाजपेयी को अपनी पार्टी का अध्यक्ष बनने की जरूरत नहीं पड़ी. यह जिम्मेदारी उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी के पास रहने दी थी. राजनीति में ऐसा आत्मविश्वास बहुत कम लोगों में दिखता है. मोदी ने भी पार्टी का जिम्मा अमित शाह पर छोड़ा हुआ है, लेकिन वह उनके प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं. देश के बहुत कम प्रधानमंत्रियों ने वाजपेयी की तरह राजनीतिक उतार-चढ़ाव देखे हैं.

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वाजपेयी ने जो पार्टी बनाई थी, वो मोदी के नेतृत्व में बदल गई

1996 में जब वह पहली बार प्रधानमंत्री बने, तब बहुमत नहीं जुटाने के कारण 13 दिनों में ही उन्हें पद छोड़ना पड़ा था. दूसरी बार उनका कार्यकाल कुछ लंबा चला, लेकिन इस बार संसद में सिर्फ 1 वोट से मिली हार से सरकार चली गई. उस अविश्वास प्रस्ताव को जिन लोगों ने भी देखा था, वे उसके नतीजे के ऐलान के बाद पसरे सन्नाटे को भूल नहीं सकते. दिलचस्प बात यह भी है कि वह अविश्वास प्रस्ताव बिना किसी वजह के लाया गया था. तीसरी बार यानी 2004 आम चुनाव में जनता ने वाजपेयी को पद से हटने का फैसला सुनाया. यह चौंकाने वाला नतीजा था. यह 1999 में एक वोट से सरकार गिरने जैसी ही घटना थी, जो आज तक हैरान करती है.

वाजपेयी स्वेच्छा से सक्रिय राजनीति से दूर हुए और उसके बाद उन्हें बीमारी ने जकड़ लिया. उनके प्रतिद्वंद्वी के नेतृत्व में बीजेपी ने 2009 आम चुनाव लड़ा, लेकिन हार गई. वाजपेयी के प्रतिद्वंद्वी 2013 में चुनौती देने वाले नरेंद्र मोदी को भी मैनेज नहीं कर पाए. वाजपेयी ने जो पार्टी बनाई थी, वह मोदी के नेतृत्व में पूरी तरह बदल गई है. बीजेपी अभी जिस तरह से काम कर रही है या वह जो सोच रही है, वाजपेयी कभी उससे सहमत नहीं होते.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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