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ये 21वीं सदी का भारत है. आजाद भारत, जहां “संविधान” लागू है और कहने को “कानून का राज” चलता है. दावा किया जाता है कि भारत के “स्वर्णिम दिन” लौटेंगे और वो अतीत की भांति फिर से “महान” होगा. अहंकार यह भी है कि हिंदू धर्म से “श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं है.” यही वजह है कि हजारों साल के बाद भी यह धर्म टिका हुआ है.
अगर आप भी इसी भ्रम में जीते हैं और अगर आपके भीतर भी धर्म की यही भावना है तो ऊपर दिए गए कुछ उदाहरणों पर एक बार फिर नजर डालिए और खुद से पूछिए कि क्या आपको अपने ही धर्म के लोगों के खिलाफ इतनी बर्बरता करते हुए शर्म नहीं आती है?
ये मेरे सवाल नहीं हैं. आज से करीब 80-90 साल पहले डॉ भीमराव अंबेडकर ने यही सवाल इस देश से पूछे थे. उन तमाम लोगों से जो धर्म के ठेकेदार बने फिरते हैं और उन लोगों से जो देश की राजनीति पर नियंत्रण की ख्वाहिश रखते थे. उन सभी से अंबेडकर ने यह सवाल पूछा था कि क्या सामाजिक आंदोलन के बगैर, हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था के नाम पर हजारों साल से चल रही क्रूरता को खत्म किये बगैर भारत राजनीतिक आजादी के लायक बनेगा?
1936 में जात पात तोड़क मंडल ने अपने वार्षिक कॉन्फ्रेंस में डॉ अंबेडकर से अध्यक्षता करने का आग्रह किया तो उन्होंने हिंदू धर्म और जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था पर काफी मेहनत के बाद भाषण तैयार किया था. भाषण पढ़ने के बाद आयोजकों को यह लगा कि इसमें अंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़ने और धर्म के शास्त्रों को नष्ट करने की जो बात कही है वह खतरनाक है. इसलिए उन्होंने अंबेडकर से यह गुजारिश की वह शास्त्रों को नष्ट करने की बात अपने भाषण से हटा दें वरना उन्हें आयोजन रद्द करना होगा.
डॉ अंबेडकर यह जानते थे कि हिंदू समाज में इतना साहस नहीं है कि वह पूरा सच सुन सके. वह अधूरा सच पेश करने को तैयार नहीं थे, इसलिए उन्होंने यह साफ कर दिया कि अब वह आयोजन रद्द हो या नहीं हो वह उसकी अध्यक्षता नहीं करेंगे.
आज 21वीं सदी में हम यह बात कर रहे हैं कि अंबेडकर किसके हैं? कांग्रेस का दावा है कि अंबेडकर उसके हैं, बीजेपी नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दावा करते हैं कि उन्होंने अंबेडकर के लिए जितना किया है, उतना किसी ने नहीं किया.
बीएसपी से लेकर कुछ अन्य दलों का भी दावा है कि अंबेडकर असल में उनके हैं क्योंकि वो दलितों का प्रतिनिधित्व करते हैं. मतलब कोई उनकी मूर्ति लगा कर उन्हें अपना साबित कर रहा है तो कोई उनके नाम पर एक योजना चला कर उन्हें अपना बता रहा है.
दावेदारी की इस होड़ में वह कोशिश दिखायी नहीं देती जिससे लगे कि हमारे सियासी दल जाति रहित समाज बनाने के उनके सपने के प्रति प्रतिबद्ध हैं. बस यही लगता है कि जातियों की बेड़ियों में जकड़ा हिंदू धर्म, हिंदू समाज और अधिक संकीर्ण हो गया है और नफरत पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है.
इसलिए सवाल यह नहीं होना चाहिए कि अंबेडकर किसके हैं? सवाल यह होना चाहिए कि अंबेडकर का कौन है और अंबेडकर का होने का मतलब क्या है? वह दल जो जाति रहित समाज बनाने की दिशा में कोई काम नहीं कर रहे हैं और इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था को तोड़ने की कोशिश नहीं कर रहे वह न तो अंबेडकर के हो सकते हैं और ना ही अंबेडकर उनके.
इस लिहाज से आप संघ और बीजेपी को सिरे से खारिज कर दीजिए क्योंकि सवर्ण मानसिकता से ग्रसित यह संगठन हिंदू धर्म की रक्षा के नाम पर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बनाए रखना चाहता है, ताकि उसकी दुकान चलती रहे.
अब बात कांग्रेस की. आपको मालूम होना चाहिए कि डॉ अंबेडकर ने पूरे जीवन कांग्रेस की सवर्ण मानसिकता से लड़ाई लड़ी थी. उन्होंने सिलिसिलेवार तरीके से यह बताया था कि कांग्रेस ने कैसे दलितों के साथ धोखा किया है और कांग्रेस दान आधारित व्यवस्था के जरिए खुद को दलितों का हितैषी साबित करने का भ्रामक जाल बुन रही है.
उन्होंने इस पूरे ब्योरे को अपनी पुस्तक “व्हाट कांग्रेस एंड एमके गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स” में सिलसिलेवार तरीके से रखा था और दलितों को आगाह किया था कि वह गांधी और कांग्रेस के जाल में नहीं फंसें.
दरअसल अंबेडकर को यह यकीन था कि संघर्षों की लड़ाई में तब तक अधूरी रहेगी जब तक संस्थागत तौर पर और हर स्तर पर दलितों के अधिकारों को सुरक्षित नहीं किया जाएगा. जब तक उन्हें फैसलों में बराबर का भागीदार नहीं बनाया जाएगा. राज के तमाम अंगों में उन्हें हिस्सेदारी सुनिश्चित नहीं की जाएगी तब तक उनकी स्थिति में कोई स्थायी बदलाव नहीं आएगा. उनका सारा संघर्ष दलितों के स्वाभिमान का संघर्ष है. बराबरी और हिस्सेदारी का संघर्ष है.
लेकिन जब हम डॉ अंबेडकर की कोशिशों और सपनों को केंद्र में रख कर आजादी बाद के हिंदुस्तान का मुआयना करते हैं तो पाते हैं कि लड़ाई आज भी अधूरी है.
देश के दो सबसे बड़े दलों बीजेपी और कांग्रेस को लीजिए. इनके केंद्रीय नेतृत्व में दलितों की हिस्सेदारी कितनी है? सभी राज्यों के देखिए और मूल्यांकन कीजिए कि कितने दलित मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्री हैं. यह विश्लेषण करने पर सारी असलियत सामने आ जाती है.
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न्यायपालिका तो सोशल इन्क्लूजन से कोसों दूर है. जिस संविधान की रक्षा करने के नाम पर न्यायपालिका अपने को हिस्सेदारी की भावना से ऊपर समझती है,.
सुप्रीम कोर्ट की नामी वकील इंदिरा जयसिंह की बात सही है कि न्यायपालिका आज भी सवर्ण मानसिकता से ग्रसित है. यहां बात नीयत की नहीं है बात बनावट की है. कंस्ट्रक्ट की है. जिस देश की बनावट ही घोर सामंती हो, वहां कोई भी “संवैधानिक स्तंभ” इस बनावट से ऊपर होने का दंभ कैसे भर सकता है? कार्यपालिका में आरक्षण की वजह से उनका प्रतिनिधित्व नजर आता है, लेकिन शीर्ष पदों पर उनकी संख्या कम हो जाती है.
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तथाकथित तौर पर चौथा स्तंभ होने का दावा करने वाली मीडिया की स्थिति तो सबसे अधिक शर्मनाक है. हिंदी के पांच मीडिया संस्थानों में तो मैं खुद ही काम कर चुका हूं. यह दावे से कह सकता हूं कि ये संस्थान सवर्ण मानसिकता से ग्रसित बीमार संस्थान हैं और इन्होंने देश में जातीय उन्माद को बढ़ाया ही है. ये सामाजिक बदलाव की किसी भी पहल के खिलाफ सबसे पहले खड़े होते हैं.
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अभी दो दिन पहले “द इंडियन एक्सप्रेस” में जवाहर लाल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एमिरेटस सुखदेव थोराट ने अपने लेख में बताया है कि कैसे बीते चार साल में दलितों के चल रही योजनाओं का बजट घटा दिया गया है.
यही नहीं 2014 के चुनावी घोषणापत्र में बीजेपी ने दलितों और आदिवासियों की सुरक्षा का वादा किया था, लेकिन देश के जिन राज्यों में उनके खिलाफ हुए अपराधों की संख्या सबसे ज्यादा है उनमें पांच बीजेपी शासित राज्य हैं. उस लेख में आखिर में उन्होंने कहा है कि दलितों ने अतीत में जो कुछ हासिल किया था उसमें से बहुत कुछ बीजेपी के चार साल के शासन में गंवा दिया है.
प्रोफेसर थोराट की बात सही है. हम डॉ अंबेडकर के सपनों का भारत बनाने से कोसों दूर हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि हम सवर्ण अपनी जाति को लेकर आज भी गौरवांवित महसूस करते हैं. अपने ही साथियों पर हम सदियों से अन्याय करते आ रहे हैं और जरा भी शर्मिंदा नहीं हैं. शर्मिंदा होते तो उन्हें उनका हक देने की दिशा में ठोस कदम उठाते.
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 14 Apr 2018,05:50 PM IST