2 अप्रैल के भारत बंद से बीजेपी और आरएसएस हिले हुए हैं. ये बंद दलितों ने किया था सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के खिलाफ, जिसमें SC/ST एक्ट को कमजोर करने का आभास होता है. दलितों में इस बात का गुस्सा था कि वो हजारों साल से अत्याचार सह रहे हैं और जो एक कानून उनकी सुरक्षा के लिए आया, वो भी कमजोर कर दिया गया.
वो इस बात से भी गुस्से में थे कि मोदी सरकार ने उनका पक्ष अदालत में सही तरीके से नहीं रखा, उलटे कानून को कमजोर करने वाली दलीलें दी गईं. लिहाजा उनका गुस्सा फूटा. देशभर में हिंसा हुई.
अब मोदी सरकार की तरफ से दलितों को लुभाने के लिए कई उपक्रम किए जा रहे हैं. जैसे बाबासाहेब के जन्मदिन पर बीजेपी के विधायक, सांसद और नेता गांव-गांव जाएं और ये बताए कि दरअसल बीजेपी ही दलितों की हितैषी है.
वैसे दलितों को लुभाने का ये तरीका नया नहीं है. अमित शाह पिछले दिनों कई दलितों के घर गए, खाना खाया और 'विचार-विमर्श' किया. योगी भी सरकार बनने के बाद दलितों के घरों का दौरा कर आए हैं. मोदी को अब ये डर सता रहा है कि कहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में दलित उनकी लुटिया न डुबो दें, क्योंकि यही दलित थे, जिन्होंने 2014 में मोदी को वोट दिया था.
माहौल बदला-बदला सा है, लिहाजा आने वाले दिनों में बीजेपी, संघ और सरकार पूरी ताकत से लगेगी, दलितों के गुस्से को कम करने की दिशा में बाबासाहेब का महिमा मंडन होगा, उनकी मूर्तियों पर मत्था टेका जाएगा. वैसे आरएसएस ये काम बरसों से करने का प्रयास कर रहा है. वो बाबासाहेब को अपना बनाने की भी कोशिश कर चुका है.
दरअसल दलित तबका आरएसएस की सबसे कमजोर नस है. इसे जितना दबाओ, वो उतना ही फड़फड़ाता है. तकलीफ में रहता है. इसका सबसे बड़ा कारण है, जो संघ परिवार कभी नहीं मानता कि वो ब्राह्मणवादी संगठन है और वैदिक काल की दुहाई देकर देश में एक बार फिर से ब्राह्मणवाद को स्थापित करना चाहता है.
मुस्लिम कट्टरपंथियों की तरह उसका भी ये मानना है कि हिंदू धर्म का पराभव इसलिए हुआ कि वो अपनी मूल धारा से भटक गया. वो वैदिक संस्कारों से च्युत हो गया. इसलिए उसके सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ. पहला झटका बौद्ध धर्म ने दिया, उससे उबरा, तो इस्लाम और ईसाई धर्म ने जकड़ लिया. इसलिए वो हिंदू धर्म की पुनर्स्थापना और मजबूती के लिए अतीत के रास्ते पर समाज को ले जाना चाहता है. और जब वो ऐसा करना चाहता है, तो उसे रास्ते में बाबासाहेब खड़े मिलते हैं, जो उनके सामने दलितों का इतिहास उडेल देते हैं.
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संघ एक और चाल चलता है
दलित बताते हैं कि हिंदू धर्म के ब्राह्मणवादीकरण ने उनका जीवन नर्क बना दिया, वो गुलामों से भी बदतर जिंदगी जीने को मजबूर हुए. उन्हें जानवरों से कम आंका गया. तब आरएसएस ये जताने में जुट जाता है कि वो दलितों के हितैषी हैं. संघ एक और चाल चलता है. वो दलितों को बताने की ये कोशिश भी करता है कि बाबासाहेब ने भले बौद्ध धर्म अपना लिया था, पर वो थे सच्चे हिंदू और हिंदू धर्म की मान्यताओं में उनका पूरा यकीन था. इसके लिए वो समय-समय पर छोटी छोटी पुस्तिकाएं भी निकालता है और लाखों में बंटवाता भी है.
सत्याग्रह के संदर्भ में हम गीता का सहारा लेते हैं... सत्याग्रह गीता का मुख्य प्रतिपादित विषय है. कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि बैठो मत. जिन कौरवों ने तुम्हारा राज्य हड़पा है, उनसे जंग लड़ो. अर्जुन ने पूछा, ये कैसा सत्याग्रह है ? इस प्रश्न का जो उत्तर कृष्ण ने दिया, वही गीता है. गीता सत्याग्रह पर एक मीमांसा है. अछूत लोग सवर्णों के समान अधिकार पाने का जो आग्रह करते हैं, वह सत्याग्रह है.बाबासाहेब ने गीता के संदर्भ में कहा था
बाबासाहेब के इस उद्बोधन को लेकर संघ ये प्रचार करता है कि बाबासाहेब नाराज थे, पर वो हिंदू धर्म को मानते थे. अगर नहीं मानते, तो गीता को आधार बना कर सत्याग्रह की बात क्यों करते? हकीकत ये है कि बाबासाहेब खुद ही ये कहते हैं कि वो कि गीता के हिंदू दर्शन को नहीं मानते, क्योंकि वो जाति प्रथा की संस्तुति करता है. इसी तरह ये भी बताया जाता है, संघ की तरफ से कि बाबासाहेब के दादा और पिता, दोनों ही ने हिंदू धर्म को अपने जीवन में पूरी तरह से उतार लिया था. सारे कर्मकांड में उनकी आस्था थी. उनके दादा मालोजी राव ने रामानन्द संप्रदाय में दीक्षा ली थी, जबकि पिता कबीरपंथी थे.
बाबासाहेब के पिता राम जी इतने धार्मिक थे कि वो खाने के पहले पूरे परिवार के साथ दोहे, भजन और अभंग का पाठ करते थे. बाबासाहेब कहते भी थे कि पिता की वजह से बचपन में ही उन्हे संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर के पाठ कंठस्थ हो गए थे.
बाबासाहेब ये मानते थे कि उनका परिवार काफी धार्मिक था. पर इस वजह से अगर संघ ये कहे कि बाबासाहेब की हिंदू धर्म की ब्राह्मणवादी व्यवस्था में पूरी आस्था थी, तो ये सिर्फ दलितों को मूर्ख बनाने का एक कार्यक्रम मात्र ही है.
बाबासाहेब कहते थे कि हिंदू धर्म में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के लिए स्थान नहीं है. हिंदू धर्म ऊंच-नीच के सिद्धांत पर आधारित है. इसमें शूद्रों और दलितों को जानवर से भी बदतर माना गया है. ऐसा धर्म, जो इंसान को इंसान न माने, वो मानवतावाद की बात कैसे कर सकता है? संविधान निर्माता के तौर पर वो कहते थे कि संविधान ने दलितों को संवैधानिक तौर समानता और स्वतंत्रता का अधिकार तो दे दिया, वो कानून और अदालत के सामने बराबर तो हो गया, पर आज भी 'बंधुत्व' नहीं मिला, आज भी उसे समाज में उच्च जातियां हेय दृष्टि से देखती हैं.
संघ परिवार सड़क पर उतरकर आंदोलन नहीं करता
संघ परिवार बाबासाहेब के इस समाधान का हल नहीं करता. वो ये तो कहता है कि छुआछूत गलत है और सबको बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए, पर वो कभी भी छुआछूत खत्म करने के लिए सड़क पर उतरकर आंदोलन नहीं करता, जैसे उसने राम मंदिर के लिए किया या गोहत्या के बारे में किया. संघ के पास इसका कोई जवाब नहीं है. वो बस ये कहता है कि वो समाज में टकराव की भाषा के पक्ष में नहीं है, इससे दलितों का ही नुकसान होगा, समाज में जातिवाद बढ़ेगा, विभाजन की रेखा मजबूत होगी. दलितों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए 'समरसता' की बात करनी चाहिए.
बाबासाहेब के बारे में ये भी प्रचारित किया जाता है कि जब वे न्यूयॉर्क पढ़ाई के लिए गए, तो हार्टले हॉल हास्टल उन्होंने इसलिए छोड़ दिया कि वहां गोमांस पकता था. यानी उनके हिंदू होने का एक और सबूत. ये सच है कि बाबासाहेब ने हार्टले हॉल छोड़ा था. पर उसका कारण वो नहीं था, जैसा संघ कहता है.
बाबासाहेब खुद कहते है कि हार्टले हाल में गोमांस बनता था, पर वो ठीक से पकाया नहीं जाता था और खाने का स्तर पर ठीक नहीं था. इसका अर्थ है कि उन्हें गोमांस से कोई तकलीफ नहीं थी, तकलीफ उसके ठीक से नहीं पकने से थी.
दलित चिंतक कंवल भारती कहते हैं कि बाबासाहेब को बीफ से दिक्कत नहीं थी. इससे ये साबित नहीं होता कि बाबासाहेब गोभक्त थे और गोभक्ति में बीफ खाना छोड़ा या हॉस्टल छोड़ा. कंवल भारती कहते हैं कि डॉ. अंबेडकर को गोभक्त बनाने की आरएसएस की साजिश से दलितों को सावधान रहना चाहिए.
संघ यहीं पर नहीं रुकता. वो ये भी कहता है कि बाबासाहेब मुस्लिम विरोधी थे. इसके लिए वो 1940 में लिखे उनके लेख का हवाला दिया जाता है. वो लिखते हैं, “मुसलमानों में वो सारे सामाजिक अवगुण हैं, जो हिंदुओं में हैं और उनसे कहीं ज्यादा. जैसे कि मुसलमानों में पर्दाप्रथा. सड़कों पर चलते हुए इन बुरका पहने महिलाओं को देखना सबसे खराब दृश्य है.”
बाबासाहेब आगे कहते हैं कि ये परदा सिर्फ मुसलमानों तक ही सीमित नहीं है, ये हिंदुओं को मुसलमानों से अलग करता है. बाबासाहेब के इस लेख की आड़ में आरएसएस से जुड़े प्रकाशनों में ढेरों लेख लिखे गए. कुछ संघ समर्थकों ने ये भी लिखा कि ये पढ़कर उनकी धारणा खत्म हो गई कि बाबासाहेब हिंदू विरोधी थे.
स्वयंसेवकों में 15% दलित
संघ एक और घटना का जिक्र धड़ल्ले से करता है कि 1936 में बाबासाहेब संघ के एक कार्यक्रम में गए, तो वहां उन्हें पता चला कि स्वयंसेवकों में 15% दलित थे, पर सब एकसाथ घुल-मिल कर रह रहे थे, खा-पी रहे थे, कहीं कोई छुआछूत नहीं था, इससे बाबासाहेब बहुत प्रभावित हुए. पर क्या इस घटना से बाबासाहेब का मन बदल गया? क्या वो संघ की तारीफ करने लगे? ऐसा लगता नहीं है.
बाबासाहेब ये मानते थे कि संघ की विचारधारा देश के लिए खतरनाक है. वो कहते थे कि संघ के हिंदू राष्ट्र के सपने को बनने से हर हाल में रोकना चाहिए. पिछले चार सालों में देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिये कई गंभीर प्रयास किए गए हैं.
अल्पसंख्यक तबके के प्रति जो नफरत का माहौल पैदा किया गया है, दलितों पर जो अत्याचार हुए हैं, उनके नेताओं को राष्ट्रद्रोही बनाने के लिये जो कदम उठाए गए, लिबरल सोच को विमर्श से पूरी तरह गायब करन की जो कोशिश है, वो इसी दिशा में उठाये कदम हैं, जिसका बाबासाहेब होते, तो जमकर विरोध करते.
बाबासाहेब को हिंदू साबित करने की कोशिश ये साबित करता है कि उसे भी ये एहसास है कि संघ का रास्ता दलित समाज ही रोक सकता है. ये अकारण नहीं है कि पिछले दिनों एक लेख संघ की तरफ से विवेक आर्य नाम के एक व्यक्ति ने लिखा कि सावरकर छुआछूत से लड़ने वाले पहले शख्स थे, जो झूठ है. सावरकर की हिंदू महासभा ने मंदिरों में दलितों के प्रवेश के लिए कानून बनाने की पहल का समर्थन नहीं किया था.
संघ को बस एक बात का जवाब देना चाहिए कि बाबासाहेब ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म क्यों अपनाया? उसके पास जवाब नहीं है, क्योंकि जिस हिंदुत्व की वकालत संघ करता है, उसमें समाज-सुधार की गुंजाइश नहीं है. उसकी कुरीतियों पर संघ हमला नहीं करता. वो दलितों को वोटबैंक की तरह देखता है.
अगर ऐसा नहीं होता, तो दलितों के साथ हो रहे छुआछूत पर हिंदुओं की तरफ से संघ माफी मांगता और सारे काम छोड़कर छुआछूत को खत्म करने के लिए आंदोलन करता. बाबासाहेब को हिंदू साबित करने से दलित मानस बदलेगा नहीं, वो आक्रोशित होगा. ये बात आरएसएस समझ ले, तो बेहतर है.
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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