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चुनावी बॉन्ड कई आरोपों में से एक है, लेकिन ‘टेफ्लॉन’ मोदी की नजर चुनावी जीत पर है

सभ्य मंचों से उठाए गए बहुत से मुद्दे भावनात्मक रूप से उन्माद से भरे लोकतंत्र में बड़ी आबादी को आकर्षित नहीं करते हैं.

माधवन नारायणन
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>चुनावी बांड कई आरोपों में से एक है, लेकिन ‘टेफ्लॉन’ मोदी की नजर चुनावी जीत पर है</p></div>
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चुनावी बांड कई आरोपों में से एक है, लेकिन ‘टेफ्लॉन’ मोदी की नजर चुनावी जीत पर है

(फाइल फोटो: PTI)

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पठानकोट. नोटबंदी की तबाही. GST की अफरा-तफरी. झूठे वादे. चीन सीमा पर दी गई छूट. राफेल डील में गड़बड़ी के आरोप. कृषि कानूनों पर यू-टर्न. मणिपुर को अपने हाल पर छोड़ देना. बेरोजगारी. और अब चुनावी बॉन्ड (Electoral bonds) के जरिए उगाही का आरोप.

अगर किसी को लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी BJP सरकार को अपनी सत्ता के एक दशक के दौरान आलोचनाओं, आरोपों और विपक्ष के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा है, तो वो पूरी तरह गलत है.

लेकिन यह भी उतना ही सच है कि हर ओपिनियन पोल और ज्यादातर चुनावी नतीजों ने बताया है कि उनकी छवि पर कोई असर नहीं पड़ता है, उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं है और उनका व्यक्तित्व काफी हद तक बेदाग है.

तो क्या चल रहा है?

‘टेफ्लॉनभाई’ मोदी

आखिरकार यह वही देश है, जिसने संसद में 80 फीसद सीटों के बहुमत वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी को झकझोर कर रख दिया था. विपक्ष ने उन्हें दहला दिया और मीडिया ने शाह बानो फैसले को पलटने (कानून बनाकर) से लेकर, अयोध्या में विवादित राम मंदिर के दरवाजे खोलने, बोफोर्स तोप खरीद घोटाले में कमीशनखोरी, या 1984 में दिल्ली में उनकी मां इंदिरा गांधी की हत्या पर उनके नेताओं पर सिखों के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा देने के आरोप पर कांग्रेस की खामोशी तक हर बात के लिए पर उन पर हमला बोला गया.

यह वही देश है, जहां कैंब्रिज से पढ़े मृदुभाषी, अकादमिक रुझान वाले टेक्नोक्रेट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर 2G स्पेक्ट्रम नीलामी घोटाले में पक्षपात करने और नई सहस्राब्दी पर भारत को हिलाकर रख देने वाले राष्ट्रमंडल खेल घोटाले पर चुप्पी अख्तियार करने का आरोप लगाया गया था.

इन सब के मुकाबले ऐसा लगता है कि मोदी ने आरोपों के छींटों से न सिर्फ खुद को बचा लिया है, बल्कि विरोध के बवंडर और स्कैंडल के आरोपों को खारिज करते हुए और निखर गए हैं. एक इतिहास पुरुष है, जिससे उनकी तुलना की जा सकती है. वह हैं पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन, जिन्हें टेफ्लॉन रीगन कहा जाता था क्योंकि उन्हें जितनी भी आलोचनाओं की गई, उनमें से ज्यादातर उनके व्यक्तित्व से टकरा कर बेअसर हो जाती थीं.

तब हम उस शख्स को भी ऐसा ही नाम दे सकते हैं, जो भारत में लगातार तीसरी बार आम चुनाव में जीत के लिए मैदान में डटा है, टेफ्लानभाई मोदी (Teflonbhai Modi).

सामाजिक और जनसांख्यिकीय संदर्भ,  जिससे मोदी को राजनीतिक ताकत हासिल होती है

इस रुझान को कैसे समझ समझा जा सकता है? कुछ तुकबंदी और तर्क के साथ, चार फैक्टर हमें इसे समझने में मददगार हो सकते हैं: Machinery (मशीनरी), Oratory (भाषण कला), Delivery (अमल) और Imagery (छवि-निर्माण). ये शब्द, आश्चर्यजनक रूप से काफी हद तक एक निश्चित संक्षिप्त नाम बनाते हैं: MODI.

हालांकि, चीजों को समझने के लिए हमें शब्दों का क्रम उलट देना होगा और Oratory, Imagery, Machinery और Delivery के क्रम में रखकर उन पर विचार करना होगा. अंतिम वह है, जिस पर उनके कट्टर समर्थक खुशी से झूम पड़ेंगे, जबकि ज्यादा संभावना है कि उनके आलोचक भी शुरुआती तीन पर सहमत होंगे. इस सब के साथ विश्लेषक एक पांचवां फैक्टर भी जोड़ सकते हैं: समाजिक और जनसांख्यिकी, जिनसे मोदी को राजनीतिक ताकत मिलती है.

मोदी की भाषण कला का अब सभी लोहा मानते हैं. न सिर्फ यह कि वह क्या बोलते हैं बल्कि किस मजबूती से बोलते हैं, वह भी सब जानते हैं. वह हर वक्त कैंपेन मोड में नजर आते हैं. रेडियो, टीवी, सम्मेलनों या चुनाव मंचों पर हर जगह. वह सेना के जवानों, स्कूल के बच्चों, परीक्षा पेपर तैयार करने वालों, नौकरशाहों, सांसदों और दुनिया के नेताओं से बात करते हैं.

हमदर्दी, उत्साहवर्धन, प्रेरणा, भव्यता और अमल के अहसास के साथ डिजाइन किए गए भाषण. वह जानते हैं कि वह किससे बात कर रहे हैं. लगातार और बार-बार खुद को अन्य व्यक्ति (थर्ड पर्सन) के रूप में पेश करना, उनके ब्रांड को बड़ा बनाता है. मोदी की गारंटी (Modi Ki Guarantee) इसका ताजा उदाहरण है, जो दर्शाता है कि वह एक ब्रांड के रूप में खुद के प्रति कितने सचेत हैं.

अगर भाषण कला कोई चीज है, तो मोदी के इर्द-गिर्द बुनी गई छवि एक ऐसे व्यक्ति की है जिसने पूरे देश को अपनी संतान बनाने के लिए अपने परिवार को त्याग दिया. उनकी प्रचारित कम नींद की रूटीन उन्हें एक मेहनती कर्मयोगी साबित करता है. उनका धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों, इतिहास या प्राचीन सभ्यता के गौरव का बार-बार जिक्र करना, दूरदराज के इलाकों में रहने वाली बड़ी आबादी के बीच एक फील-गुड अहसास जगाता है. मंदिरों में उनकी पूजा में ध्यान लगाए तस्वीरें धार्मिक हिंदुओं को मंत्रमुग्ध कर देती हैं. दुनिया के देशों के बीच उनकी आत्मविश्वास से भरी मौजूदगी देख बुजुर्ग चाचा लोग उन पर निहाल हो जाते हैं.

उनकी भाषण कला और छवि-निर्माण एक बड़ी संगठनात्मक मशीनरी की देन है

उन्होंने अयोध्या में जब रामलला मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा की अगुवाई की तो बगल में खड़े संत ने मोदी की तुलना मराठा सम्राट छत्रपति शिवाजी से की और कम से कम एक वायरल वीडियो में एक महिला उन्हें भगवान राम का अवतार बताती दिखीं.

लेकिन मोदी ने जो इससे भी बड़ा काम किया, वह है राम जैसे महान व्यक्तित्व को एक प्राचीन सदाचारी राजा के रूप में पुनःस्थापित करना और उन्हें आधुनिक गणतंत्र को चलाने के लिए एक राष्ट्रवादी प्रतीक बनाना. इस तरह उन्होंने अपने व्यक्तित्व को महाकाव्य के चरित्र से जोड़ते हुए सदियों में बनी जनचेतना का इस्तेमाल किया है. मोदी को समझने के लिए आपको कार्ल मार्क्स को कम और रूसी मनोवैज्ञानिक इवान पावलोव को ज्यादा जानना होगा.

उनकी भाषण कला और छवि-निर्माण दोनों एक विशाल संगठनात्मक मशीनरी की देन है, जो उनके बहुप्रचारित कौशल को कई गुना बढ़ाती है, चमकाती है, दमदार बनाती है और कमियों की भरपाई कर दिखाती है. BJP का वैचारिक अभिभावक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पार्टी के संदिग्ध छवि वाले मशहूर IT सेल (सोशल मीडिया) और मोदी के कट्टर समर्थक पार्टी कार्यकर्ता बेहिसाब दौलत से लबरेज हैं, जो अब उन खबरों के बाद विवादों में घिर गए हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड, यानी अपारदर्शी साधन से दिए गए पूरे डोनेशन का आधे से ज्यादा हिस्सा 6061 करोड़ रुपये BJP को मिला है.
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आलोचक मोदी की मशीनरी में सरकारी कंपनियों को भी शामिल मानेंगे, जो उनके पोर्ट्रेट को पेश करने में कॉरपोरेट फंड का इस्तेमाल करते हैं और ऐसे सरकारी विभाग जो उन दोस्ताना मीडिया संस्थानों में उनकी योजनाओं का विज्ञापन करते हैं, जो उनके प्रशंसक एंकरों और संपादकों को नियुक्त करते हैं. विपक्षी दल रेलवे स्टेशनों और पुस्तक मेलों में नेता के कटआउट के साथ बनाए गए सेल्फी प्वाइंट पर सवाल उठाते हैं. आलोचकों का मानना है कि इस मशीनरी में CBI और ED जैसी जांच एजेंसियां भी शामिल हैं, जो प्रधानमंत्री के सकारात्मक धूम-धड़ाके और उत्साह के उलट विपक्ष में नकारात्मकता भरती हैं.

मोदी के धूम-धड़ाके में कल्पना के लिए गुंजाइश बहुत कम है. उनके जाने-पहचाने चेहरे को चमकदार दिखाने के लिए सब कुछ आपकी आंख के सामने पेश कर दिया जाता है. वैज्ञानिक शोध और विज्ञापन की कला में बताया गया है कि ग्राफ और आंकड़ों की तालिका, जो ड्राइंग रूम और कोर्ट रूम तक ही सीमित हो सकती हैं, की बारीकियों के मुकाबले पिक्चर और इमेज ज्यादा असरदार होती हैं

यह हमें D यानी Delivery पर ले आता है. इसमें कोई शक नहीं है कि एयरपोर्ट, रेलवे, नई ट्रेनें, चौड़े हाईवे और शहरी सफर को आसान बनाने वाली मेट्रो जैसी आकर्षक बुनियादी ढांचा परियोजनाएं मोदी के पूरे किए गए कामों की लिस्ट में शामिल हैं. विपक्षी दल अक्सर पुराने मानदंडों का इस्तेमाल कर शिक्षा, स्वास्थ्य, छोटे कारोबार और बेरोजगारी पर जोर देते हैं, और उन चीजों की ओर इशारा करते हैं जिन पर मोदी के सत्ता में रहने के दशक में ध्यान नहीं दिया गया या कम ध्यान दिया गया.

मोदी का डिलीवरी मैकेनिज्म डबल डोज वाला है

एक तरफ कामयाब, साकार परियोजनाओं की बात की जाती है और दूसरी तरफ, गरीब कल्याण योजनाओं जिसमें ग्रामीण शौचालय और उज्ज्वला रसोई गैस सिलेंडर से लेकर ड्रोन दीदियों की बात की जाती है, जो ग्रामीण बहनों के लिए रोजगार के साथ आधुनिक हाई-टेक का मिश्रण है.

मुश्किल यह है कि यह पता लगाने के लिए जरूरी प्रमाणित आंकड़े नहीं हैं कि इन योजनाओं का सच में गरीबों तक कितना फायदा पहुंचा है और 140 करोड़ लोगों के देश में इससे कितने लोगों की जिंदगी बदल गई है. लेकिन यह बताने के लिए बहुत से जनमत सर्वे हैं कि अधूरी जानकारी का लाभ प्रधानमंत्री को दिया जाता है, क्योंकि इन पर अभी भी काम चल रहा है.

इन सब में, हम संदर्भ का फैक्टर जोड़ सकते हैं.

भारत की मध्यमान उम्र 28.2 साल है. यानी करीब 70 करोड़ लोग इस उम्र से कम उम्र के हैं. भारत के ज्यादातर मतदाताओं को सार्वजनिक क्षेत्र की औद्योगिक कंपनियों, उच्च शिक्षा के लिए की गई पहल, हरित क्रांति, श्वेत क्रांति और गरीबी-विरोधी कार्यक्रम जैसी योजनाएं याद नहीं हैं, जो पहले की कांग्रेस सरकारों द्वारा चलाए गए थे.

इसके अलावा नौजवान आबादी मीडिया, न्यायपालिका और शिक्षा जैसे संस्थानों से तेजी से बेजार हो रहा है, जो नजरिया या तार्किक आलोचना पेश करते हैं. अगर नरेंद्र मोदी ने सत्ता में रहते हुए एक भी संवाददाता सम्मेलन को संबोधित नहीं किया है तो इसकी किसे परवाह है? अगर किसी पार्टी को चंदा अनियमितताओं की आरोपी कंपनी से मिलता है तो इसकी किसे परवाह है?

सभ्य मंचों से उठाए गए बहुत से मुद्दे भावनात्मक रूप से उन्माद से भरे लोकतंत्र में बड़ी आबादी को आकर्षित नहीं करते हैं. मध्य वर्ग का एक खास तबका, जिसने राजीव गांधी या डॉ. मनमोहन सिंह को राजनीतिक मंच पर बिठाया था, अब महत्वहीन हो गया है, और एक बड़ा तबका मोदी के काम करने के तरीके से खुश है. यह फैक्टर अपने आप में कई पॉलिटिकल साइंटिस्टों के लिए पीएचडी का विषय हो सकता है.

आज के मासूम नौजवानों वाली एक प्राचीन सभ्यता एक कोरे कागज जैसी है, जिस पर मोदी और उनकी शक्तिशाली मशीनरी ने भगवा रंग के कुछ शेड उकेर दिए हैं. इसके लिए महंगा वाला लोहे का पक्का पेंट और भरपूर टेफ्लॉन इस्तेमाल किया गया है.

(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं, जिन्होंने रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. उनसे ट्विटर @madversity पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखिकों के अपने विचार हैं. क्विंट हिंदी इनके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

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