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डेटा चोरी को लेकर बाजार गर्म है. फेसबुक सवालों के घेरे में है और कैंब्रिज एनालिटिका इसके केंद्र में है. फेसबुक की महत्वाकांक्षा की वजह से 5 करोड़ लोगों का डेटा कैंब्रिज एनालिटिका के हाथ लग गया. मामला इतना बड़ा है कि फेसबुक का बाजार खतरे में पड़ गया और उसके शेयरों के दाम 7 फीसदी गिर गए.
अरबों डॉलर एक दिन में स्वाहा हो गए. आखिर मामला इतना बड़ा क्यों है? आखिर कौन सा डेटा है जिसे लेकर इतना हड़कंप मचा हुआ है. फेसबुक पर नाम, जन्मदिन, स्कूल, कॉलेज और लोकेशन जैसी जानकारियों के अलावा कोई ऐसी जानकारी तो आम लोग देते नहीं जिसे लेकर बवाल मचे?
कुछ कारोबारी लोग अपना बैंक डिटेल डालते हैं, लेकिन वह भी तब तक खतरनाक नहीं जब तक बैंकों की व्यवस्था में सेंध न लग जाए तो फिर आखिर इतना बवाल क्यों? उस अमेरिका में जहां दो दलीय व्यवस्था है और ज्यादातर लोग अपना सियासी मत पहले ही साफ कर देते हैं वहां सियासी मत को लेकर बवाल हो इस बात में भी दम नहीं है? तो फिर वह कौन सा डेटा है जिसे लेकर इतना बवाल मचा हुआ है? आपकी निजी जिंदगी और आजादी क्यों खतरे में है?
इसे समझने कि लिए हमें यह समझना होगा कि निजी डेटा आखिर कौन-कौन सी श्रेणियों में है.
आप ये जानकारियां कहां-कहां साझा करते हैं और किन जानकारियों से खतरा है? आमतौर पर हम और आप बुनियादी जानकारियों को तमाम वेबसाइट पर साझा करते हैं.
फेसबुक पर हम अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को भी जोड़ते हैं. इसलिए वहां पर हमारे संबंधों का एक बड़ा हिस्सा साझा है. फेसबुक और ट्विटर पर अपने पोस्ट और लाइक्स/फॉलो के जरिए हम अपना राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक रूझान बताते हैं.
फेसबुक और इंस्टाग्राम पर हम अपनी तस्वीरें साझा करते हैं. अमेजन, फ्लिपकार्ट जैसी ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स पर हम कुछ बुनियादी जानकारियों के अलावा अपने घर का पता और क्रेडिट/डेबिट कार्ड की अतिरिक्त जानकारी भी देते हैं. फेसबुक पर रिलेशनशिप स्टेटस शेयर करते हैं. मतलब शादी हुई है या नहीं. किसी रिश्ते में हैं या नहीं. टिंडर, ग्रिंडर जैसे डेटिंग ऐप्स पर सेक्सुल ओरिएंटेशन और सेक्सुअल हैबिट्स बताते हैं.
मतलब इतनी जानकारियां साझा होने के बाद निजता स्वभाविक तौर पर खतरे में हैं. लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं है. यहां से खेल शुरू होता है. खेल इंसान की निजता की ट्रेडिंग का. ट्रेडिंग कमाल की चीज है. ये किसी की हो सकती है. कॉर्बन डाइऑक्साइड की भी ट्रेडिंग हो जाती है तो फिर आपकी निजता तो अनमोल है.
इसे ऐसे समझे कि हम और आप सोशल नेटवर्क पर जुड़ते तो मुफ्त में हैं, लेकिन हम कई तरह से सौदे में भूमिका निभाते हैं. पहला जब हमारे जैसे लाखों-करोड़ों लोग किसी नेटवर्क से जुड़ते हैं तो एक ताकतवर समूह में तब्दील होता है. उसके बाद वह एक ऐसा सीधा माध्यम बनता है जो विज्ञापन के जरिये पैसे जुटाता है या फिर सर्वे जैसी अन्य सर्विसेज देने के नाम पर पैसे जुटाता है.
पैसे कंपनियों और सरकार से जुटाता था या फिर उस व्यक्ति से जो उस माध्यम का इस्तेमाल करता है. यहां आप पहली भूमिका में हैं. आप ग्राहक हैं. लेकिन यहीं से उत्पाद बनने का क्रम शुरू हो जाता है.
ऊपर के बातों को केंद्र में रखते हुए अब मैं आपसे एक सवाल करता हूं कोई स्टील कंपनी किसका सौदा करती है? स्टील का ही न. इस लिहाज से टेलिकॉम कंपनियां किसका सौदा करती हैं? डेटा का. मतलब डेटा का पैसा टेलीकॉम कंपनियों के खाते में जाता है मगर सोशल नेटवर्क कंपनियां किसका सौदा करती हैं आपका और आपकी निजता का.
उनकी आय का जरिया आप हैं और आप की निजता है. इसलिए सोशल नेटवर्क पर आप दोहरी भूमिका में हैं. ग्राहक भी हैं और उत्पाद भी. लेकिन एक भूमिका इसके आगे की भी है. उसमें आप सिर्फ उत्पाद हैं.
जब फेसबुक या उसकी जैसी कोई कंपनी अपने नेटवर्क पर मौजूद आपके निजी डेटा का सौदा तीसरी कंपनी से करे तो वहां आप और हम सिर्फ उत्पाद बन जाते हैं. इस सूरत में हमारी निजता का यानी हमारा सीधा सौदा होता है. ठीक वैसे ही जैसे स्टील कंपनी स्टील बेचती है. यही वो खतरनाक पहलू है जिससे भय उत्पन्न होता है.
मतलब साइबर संसार में हम और आप पूरी नग्नता के साथ खड़े हैं. आप अपनी पसंद के मुताबिक जो कुछ भी कहते हैं उस पर कोई न केवल निगरानी रख रहा है बल्कि उसका रिकॉर्ड दर्ज कर रहा है और वह किसी तीसरी पार्टी के लिए काम का हो सकता है. यह खतरनाक है.
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अब आप सोच रहे होंगे कि अगर कोई आपकी उम्र, आपका पता और आपकी पसंद-नापसंद जान ले तो इसमें डरने की क्या बात है? सबसे पहला सवाल तो यहां निजता के अधिकार का है, लेकिन अगर इसे थोड़ी देर के लिए किनारे रख दें तो भी सवाल यह है कि क्या आपको सच में यही लगता है कि सिर्फ आप नाम-पता और उम्र जैसी जानकारियां ही साझा कर रहे हैं? नहीं.
आप यहां सोच रहे होंगे कि आपने तो फेसबुक के साथ प्राइवेसी समझौता किया है. साथ ही आपने सेटिंग में जाकर आपने सबकुछ लॉक कर रखा है. मतलब आपकी चीजें सिर्फ वही देख सकते हैं जिन्हें आप दिखाना चाहता हैं. लेकिन जैसे ही फेसबुक किसी और कंपनी के साथ कारोबारी समझौता करता है वह उस कंपनी को आपका सारा डेटा मुहैया करा देता है.
फेसबुक ने ऐसा करार सिर्फ कैंब्रिज एनालिटिका के साथ ही नहीं किया है बल्कि यह करार उसने कई और ऐप बनाने वाली और सर्विसेज देने वाली कई कंपनियों के साथ किया है. उसकी नजर में यह बिजनेस बढ़ाने का एक तरीका था, मगर इस तरीके ने करोड़ों लोगों की निजी सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है.
ये कंपनियां काम कैसे करती हैं? कैंब्रिज एनालिटिका डेटा के जरिए आपका मनौवैज्ञानिक विश्लेषण करती है. इसके लिए आपकी सारी ऐक्टिविटी पर नजर रखी जाती है. अगर आपने फेसबुक या गूगल पर मोबाइल फोन के बारे में जानकारी हासिल की तो ऑनलाइन स्टोर के वो विज्ञापन आपके सामने आने लगेंगे जिसमें तरह-तरह मोबाइल फोन होंगे.
अगर आपने कोई दवा चेक की तो ये आपकी सेहत का अंदाजा लगाती हैं. अगर आपने लिटरेचर चेक किया तो उससे ये आपके पढ़ने-लिखने का टेस्ट का अंदाजा लगाते हैं. और सबकुछ मिला कर ये आपके व्यक्तित्व का चित्रण करते हैं. उसी के आधार पर व्यक्तियों के हिसाब से लक्ष्य आधारित कम्युनिकेशन रणनीति बनायी जाती है.
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अब बात करते हैं कि डेटा का इस्तेमाल कितने तरह से हो सकता है?
कारोबारी इस्तेमाल के बारे में ऊपर काफी कुछ लिख चुका हूं. ये लक्ष्य आधारित मार्केटिंग के काम आता है. मतलब यहां आप कंज्यूमर हैं और डेटा विश्लेषण के जरिए आपकी पंसद का माल बेचने के लिए गूगल और फेसबुक तमाम कंपनियों का विज्ञापन करती हैं.
यह विज्ञापन प्रत्येक व्यक्ति के हिसाब से होता है. यह एक सटीक तरीका है. यही गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियों की कमाई का मुख्य जरिया है.
हाल ही में टेलिकॉम कंपनियों ने भी इस मामले पर अपना एतराज जताया है. वोडाफोन के मुताबिक टेलिकॉम सेक्टर में तकनीक के विकास में उसके जैसी कंपनियां काफी पैसा खर्च करती हैं लेकिन ज्यादातर कमाई गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियां खा जाती हैं. और वो तकनीकि विकास में कुछ योगदान नहीं करती. ये बड़ा मामला है और भविष्य में एक लड़ाई इस मसले पर भी होगी.
आप कंज्यूमर होने के साथ-साथ वोटर भी हैं और सोशल इंजीनियरिंग जैसे शब्द आपके कानों पर पड़ते रहते होंगे. आमतौर पर यह सामाजिक विज्ञान की वो तकनीक है जिसका इस्तेमाल सियासी दल करते हैं.
वह कई वर्गों में बंटे वोटरों का मानसिक विश्लेषण करके कुछ खास श्रेणियां तैयार करती हैं और फिर उन्हें प्रभावित करने के लिए खास तरह तक विज्ञापन तैयार किए जाते हैं. इसके अलावा चूंकि विरोधी खेमे के हाईप्रोफाइल लोगों की गोपनीय जानकारियां या कमजोरियां इनके हाथ लग चुकी होती हैं तो उन्हें तोड़ने के लिए हनी ट्रैप या फिर ब्लैकमेल करने के अन्य दूसरे हथकंडे भी अपनाती हैं. कैंब्रिज एनालिटिका पर एक आरोप यह भी है.
अब आप यह भी समझ गए होंगे कि जिस तकनीक का इस्तेमाल वोटरों को रिझाने, दबाव समूह तैयार करने या फिर ताकतवर लोगों को जैसे भी हो अपनी तरफ मिलाने के लिए हो सकता है, उस तकनीक का इस्तेमाल किसी देश की सुरक्षा हितों के खिलाफ भी हो सकता है. इसे समझने के लिए आपको अमेरिका और ब्रिटेन में जो कुछ हुआ उस पर गौर करना होगा.
अगर इन दोनों मामलों में कैंब्रिज एनालिटिका ने वोटरों को मैनुपुलेट (छल-प्रपंच के जरिए प्रभावित करना) करने में भूमिका निभाई है तो उसने राष्ट्र की मौलिक धारा को एक अलग दिशा में मोड़ने का काम किया है. यह शोध का विषय है कि वोटर किस हद तक मैनुपुलेट किए गए और दबाव समूहों (प्रेशर ग्रुप्स) को किन-किन हथकंडों के जरिए तोड़ा गया, लेकिन शुरुआती खबरों से यह साफ हो रहा है कि छल-प्रपंच हुआ है. यह नैतिक और कानूनी दोनों लिहाज से एक अपराध है.
यह बात व्यक्ति, संगठन और देश सभी पर लागू होती है. इससे बचने के उपाय करने के लिए सभी सरकारों को कुछ ठोस कदम उठाने होंगे. यही मौका है, अब देखना है कि सरकारें इस अवसर का लाभ उठाती हैं या इसे यूं ही गंवा देती हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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