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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) ने पिछले तीन सालों में संसद में अपने प्रचंड बहुमत के बल पर बिजली की रफ्तार से ऐसे कई कानून पेश किए और पास कराए हैं, जो हमारी अभिव्यक्ति, सूचना, डेटा और इसके प्रसारण की आजादी को खत्म करते हैं या कम करते हैं.
हमारे पास यह यकीन करने के कारण हैं कि नागरिकों की करीब से निगरानी रखने वाले राज्य के सिस्टम को, गुप्त रूप से, लेकिन निश्चित रूप से, हमारे मौजूदा सिस्टम में शामिल किया गया है ताकि सभी डिजिटल मीडिया, इंटरनेट, दूरसंचार, ओटीटी और सोशल मीडिया पर असहमति और रचनात्मक स्वतंत्रता का पता लगाया जा सके और उसे खत्म किया जा सके. जब इसकी सीमा पूरी तरह समझ में आ जाती है तो सिहरन पैदा हो जाती है.
लेकिन इससे पहले कि हम इस सवाल पर आएं कि सुप्रीम कोर्ट ने आईटी संशोधन नियम 2023 (IT Amendment Rules, 2023) के तहत अपनी ‘Fact-Checking Unit’ स्थापित करने की अधिसूचना को क्यों रद्द कर दिया, इस बड़ी तस्वीर के दूसरे हिस्सों को भी समझना जरूरी है. तभी हम इस बात का सही, तर्कसंगत मूल्यांकन कर सकेंगे कि सरकार का इरादा क्या है.
याद करें कि दिसंबर 2023 में टेलीकम्युनिकेशन बिल को संसद में किस तरह बमुश्किल दो घंटे में फटाफट पारित किया गया था. कोई चर्चा नहीं हुई (सिर्फ सुप्रीम लीडर का गुणगान हुआ), क्योंकि अभूतपूर्व संख्या में 146 विपक्षी सांसदों को निलंबित कर दिया गया था और बाकी विरोध में वॉकआउट कर गए थे. यह टेलीकम्युनिकेशन एक्ट वायर, इंटरनेट या दूसरे माध्यमों से प्रसारित, बनाए गए या हासिल हुए मीडिया के हर रूप पर एक लाइसेंस राज थोपता है और सरकार का पूर्ण नियंत्रण लगाता है.
पिछले साल दिसंबर में प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ पीरियोडिकल्स एक्ट भी पास किया गया था. इसका मकसद प्रकाशनों के पंजीकरण के बोझिल काम का डिजिटलाइजेशन करना है. लेकिन यह खुराफाती तरीके से “पत्रिकाओं के पंजीकरण को लेकर है, जिसमें आम समाचार या आम समाचार पर टिप्पणियों वाला कोई भी प्रकाशन शामिल है.” प्रशासन निश्चित रूप से इसका इस्तेमाल उन पत्रिकाओं के खिलाफ करेगा जिनकी जन सरोकारों के मामलों पर कठोर टिप्पणियों को हजम कर पाना सरकार के लिए मुश्किल होता है.
संसद के इसी नाखुशगवार और निराशाजनक शीतकालीन सत्र में नया पोस्ट ऑफिस बिल भी पारित किया गया. वैसे यह हानिकारक नहीं है, मगर यह कानून सरकार को किसी भी फिजिकल मेल को रोकने का अधिकार देता है. सरकार-प्रायोजित जासूसी को पूरी तरह से कानूनी जामा पहनाने के साथ योजना और गहरी होती जा रही है, और सच बोलने के नतीजे और ज्यादा बदतर होते जा रहे हैं.
जनता और राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर यह सरकार को बेरोक-टोक डेटा को हथियार बनाने की ताकत देता है. यह और आगे बढ़कर डेटा उल्लंघन के खिलाफ नागरिकों के अब तक संरक्षित (हालांकि अस्पष्ट) अधिकारों को भी खत्म करने या कम करने का अधिकार देता है.
सरकार अब देश की सुरक्षा, अखंडता और कानून व्यवस्था के नाम पर व्यावहारिक तौर पर डेटा के साथ जो चाहे कर सकती है. बड़ी टेक कंपनियों के सिर पर भी तलवार लटकी हुई है– जाहिर तौर पर उन्हें अपने कड़ी सुरक्षा में रखे गए एन्क्रिप्टेड डेटा और जानकारी को ‘दखल रखने वाली सरकार’ के मांगने पर बताने में ‘सहयोग’ करने के लिए कहा जा सकता है. ऐसा नहीं करने पर इन ‘इंटरमीडिएटरी’ (प्लेटफॉर्म) को सरकार के गुस्से का सामना करना पड़ेगा.
संसद के उसी मानसून सत्र में कुछ दिन पहले सरकार ने अपने सिनेमैटोग्राफ (संशोधन) एक्ट, 2023 को पेश किया, जिसमें ‘पायरेसी’ के खिलाफ प्रावधान थे. मगर इसका असल मकसद OTT (ओवर-द-टॉप) टेक्नोलॉजी थी जो एंटरटेनमेंट और ओपिनियन को रेडियो वेव्स या सिनेमा हॉल के बजाय इंटरनेट के माध्यम से स्क्रीन पर पेश करती है. Voot, Disney+, Netflix, Amazon Prime और Hotstar OTT के उदाहरण हैं और सरकार अब उनकी फिल्मों के लिए प्री-सर्टिफिकेशन लागू करना चाहती है, जिसकी पहले जरूरत नहीं थी.
इस कठोर व्यवस्था से OTT की आजाद दुनिया को, जिसे सबसे पहले 2021 के आईटी रूल्स से नियंत्रित किया गया था, अब सरकारी नियंत्रण के लिए और ज्यादा जवाबदेह बना दिया गया है. वह आजादी जिसके साथ OTT ने भारत में आंखों और दिलों पर राज किया (खासकर 2020 के COVID-19 लॉकडाउन में) एक अति महत्वाकांक्षी सरकार के लिए लगातार ईर्ष्या की वजह था. जिन्न अब वापस चिराग के अंदर डाले जाना वाल है, क्योंकि इसे 2021 के आईटी रूल्स, 2023 के टेलीकॉम एक्ट और संशोधित सिनेमैटोग्राफ एक्ट को मिलाकर नियंत्रित किया जा रहा है.
हिंदू धर्म हमेशा से एक सहिष्णु और शांतिप्रिय धर्म (कई सहस्राब्दियों से विविधताओं और विरोधाभासों को समायोजित करने वाला) रहा है और इसमें ‘ईशनिंदा’ (blasphemy) का कोई प्रावधान नहीं है. यह इकलौता लफ्ज सदियों से यहूदी, ईसाई और इस्लाम में चरमपंथियों और कट्टरपंथियों को दूसरे विचारों या अभिव्यक्तियों के लोगों पर पूरी बेरहमी से हमला करने का अधिकार दिया है. ऐसे प्रावधानों के माध्यम से ‘धार्मिक रूप से आहत’ होने के प्रावधान को अब हिंदू धर्म में वैध बनाया जा रहा है. जाहिर है यह दुनिया के सबसे उदार धर्म में खुल कर बोलने और विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी के हिमायतियों को डराने के लिए शायद, पहली बार किया जा रहा है.
अब हम सबसे बुनियादी रूप से जिम्मेदार, इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडिएटरी गाइडलाइंस एंड डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड) अमेंडमेंट रूल्स 2021 का विश्लेषण करते हैं, जो दो चुनौतीपूर्ण माध्यमों– डिजिटल या ऑनलाइन न्यूज और OTT को नियंत्रित करने के लिए ‘आहत होने की भावना’ का प्रावधान पेश करता है. इसने रजिस्ट्रेशन की शुरुआत की और अपने पंजे खतरनाक ढंग से डिजिटल पब्लिकेशन तक फैला दिए– मीडिया का इकलौता वर्ग जो काफी हद तक सरकार या ग्रेट लीडर के अधीन नहीं है. यह गुट पालतू और पराधीन प्रिंट और टीवी मीडिया से बिल्कुल अलग है और इसलिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय की टेढ़ी नजर का शिकार है.
2021 के ये नियम मंत्रालय को बेलगाम डिजिटल प्रकाशन इंडस्ट्री और OTT की दुनिया पर शिकंजा कसने का अधिकार देते हैं.
इनमें से कई प्रावधान कानूनी समीक्षा और चुनौती के अधीन हैं. मगर फिर भी सरकार ‘फैक्ट चेकिंग यूनिट्स’ (FCU) शुरू करने के लिए 2023 में इन नियमों में संशोधन लेकर आई. हालांकि, जाहिर तौर पर FCU का मकसद ‘फेक न्यूज’ पर काबू पाना है, लेकिन असल में इनका मकसद सिर्फ उनके खिलाफ प्रतिकूल खबरें और विचार हैं– आम आदमी की हिफाजत के लिए नहीं. यह हमें जॉर्ज ऑरवेल की कहानी ‘मिनिस्ट्री ऑफ ट्रुथ’ के बहुत करीब ले जाता है, क्योंकि जैसे ही सरकार ‘फैक्ट-चेकिंग’ में किसी कंटेंट को ‘फेक’ या ‘भ्रामक’ घोषित करती है ‘X’, फेसबुक या इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया इंटरमीडिएटरी उस कंटेंट को हटाने या डिसक्लेमर जोड़ने के लिए बाध्य हैं.
सरकार ने कई स्वतंत्र, पारदर्शी और पेशेवर फैक्ट-चेकिंग यूनिट्स को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जो पहले से मौजूद हैं और जिन्होंने कई सालों की कड़ी मेहनत और तटस्थता से विशेषज्ञता और सम्मान हासिल किया है.
MCA ने साफ तौर पर प्रस्ताव दिया था कि वह सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को फैक्ट-चेकिंग सेवाएं मुहैया करा सकता है. मगर सरकार ने इसके बजाय अपने मातहत काम करने वाले प्रचार विभाग, प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो (PIB) पर भरोसा किया. यह तय किया जाता है कि क्या फेक या आपत्तिजनक है और उसके बाद, सरकार प्लेटफार्मों को अवांछनीय खबर या व्यंग्य जैसे कंटेंट को हटाने के लिए बाध्य कर सकती है.
स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा, एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजीन्स, न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने सरकार के नए फैक्ट-चेक नियम को बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दी है. काफी लंबी सुनवाई के बाद खंडपीठ के एक जज ने सरकार की नई शक्तियों को बरकरार रखा जबकि दूसरे ने इसके खिलाफ फैसला सुनाया.
इससे पहले कि कोई तीसरा जज मामले को ठीक से सुन पाते और अपना फैसला सुना पाते, सरकार ने औपचारिक रूप से PIB को इकलौता FCU अधिसूचित कर दिया. कामरा और याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, जिसने PIB को FCU नियुक्त करने की सरकार की अधिसूचना पर रोक लगा दी है.
लेकिन कुछ लोगों की चाहत के उलट, अदालत ने नियम को खारिज नहीं किया और इसके बजाय मामले को बॉम्बे हाई कोर्ट की तीन जजों की पीठ के पास वापस भेज दिया– ताकि “बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार पर प्रावधान के असर पर फैसला लिया जा सके.”
इस तरह राहत सिर्फ अस्थायी है लेकिन यह भारत के चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली पीठ के ‘मूड’ की एक फौरी झलक भी दिखाती है. ये सभी मामले खासतौर से इस बिंदु तक ही सीमित हैं कि 2021 के IT रूल्स में 2023 का संशोधन वैध है या नहीं. लेकिन 2021 के IT रूल्स वैध हैं या नहीं, इस बड़े मुद्दे का फैसला बाकी है.
इस बीच, ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ की तरफ से जारी प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत सिर्फ एक साल के अंदर 11 पायदान नीचे खिसक चुका है. मौजूदा समय में 180 देशों में इसकी रैंक 161वीं है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे तानाशाही माना जाता है. विडंबना यह है कि, थोड़े से समझदार और बेहद जागरूक लोगों को छोड़कर बाकी भारतीयों को इस खामोश तख्तापलट के बारे में पता तक नहीं है. उन्हें शायद तब पता चलेगा जब बोलने या कम्युनिकेशन या असहमति की आजादी का इस्तेमाल करने पर पकड़कर ले जाने के लिए सुरक्षा बलों के जवान आधी रात को उनके दरवाजे पर दस्तक देंगे.
(जवाहर सरकार एक रिटायर्ड IAS अधिकारी हैं. दूसरे पदों के अलावा वह प्रसार भारती के CEO और भारत सरकार के संस्कृति सचिव रह चुके हैं. वह @jawharsircar पर ट्वीट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. क्विंट हिंदी इसके लिए जिम्मेदार नहीं है.)
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