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आखिर क्यों किसानों-मजदूरों तक नहीं पहुंच पाती सरकारी जानकारियां?

कृषि कानूनों की जानकारी आंदोलन के कारण किसानों तक पहुंच रही हैं. इसे किसान आंदोलन की बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है.

अनिल चमड़िया
नजरिया
Published:
16 दिसंबर 2020 को सिंघु बॉर्डर पर किसान प्रदर्शनकारी
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16 दिसंबर 2020 को सिंघु बॉर्डर पर किसान प्रदर्शनकारी
(फोटो: PTI)

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किसानों तक उसके लाभ और हानि की सूचनाएं सरकारी मशीनरी या तो पहुंचा नहीं पाती है या फिर काफी देर से पहुंचती है. कोविड-19 के दौर में केंद्र सरकार द्वारा लागू किए गए कृषि उत्पादों से जुड़े तीनों कानूनों की जानकारी भी किसान संगठनों के आंदोलन के कारण खेतिहर परिवारों तक पहुंच रही हैं. इसे किसान आंदोलन की बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है.

केंद्र सरकार ने जब जून 2020 में किसानी ढांचे से संबंधित तीन अध्यादेशों को लागू किया, तो उसके पांच महीने बाद भी चंद किसानों तक ही यह सूचना पहुंच पाई थी, लेकिन वे जानकारियां भी टूटी-फूटी ही थी.

किसानों तक नहीं पहुंच रही जानकारी

लोकनीति-सीएसडीएस ने बिहार में विधानसभा चुनाव के पूर्व अक्टूबर में मतदाताओं के बीच एक सर्वेक्षण किया था. तब तक केंद्र सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेशों को एक विधेयक के रूप में संसद के मॉनसून सत्र में पारित भी कराया जा चुका था, लेकिन लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वेक्षण में यह जानकारी सामने आई कि केंद्र सरकार ने कृषि उत्पादों की खरीद-बिक्री से जुड़ा जो नया-नया कानून बनाया है, उसके बारे में महज 30.5 प्रतिशत लोगों को ही जानकारी थी. यानी दोगुने से ज्यादा लोगों- 69.5 प्रतिशत को उसके बारे में जानकारी नहीं थी.

केंद्र सरकार के कानूनों के बारे में जो जानकारियां थी, वह भी कितनी स्पष्ट थी इसका अंदाजा, सर्वेक्षण में पूछे गए गए अगले प्रश्न के जवाब से जाहिर होता है. जवाब देने वाले 41.4 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्हें नए कृषि कानून के बाद, उन्हें उनकी फसल की कीमत बेहतर मिलेगी जबकि 24 प्रतिशत का मानना था कि उन्हें पहले के मुकाबले फसल की कीमत कम मिल सकती है.

18.3 प्रतिशत ने बताया कि उन्हें ऐसे किसी कानून से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. उनके लिए स्थितियां जैसी है वैसी ही रहेगी, जबकि 26.3 प्रतिशत ने तो केंद्र सरकार के कानूनों के बारे में कुछ भी कहने से इंकार कर दिया .

विदित हो कि केंद्र सरकार ने जून 2020 में तीन अध्यादेशों के जरिये कानून लागू किया था, जिन्हें विधेयक के रूप में सितंबर में संसद के मॉनसून सत्र में पारित कराने की संवैधानिक औपचारिकता पूरी की गई थी.

किसानों-मजदूरों तक सूचनाएं नहीं पहुंच पाने का एक व्यवस्थित ढांचा लंबे समय से बना हुआ है.

कई स्तरों पर सुधार की है जरूरत

यह पहला मौका नहीं है कि किसानों को उनके लिए बनाए जाने वाले कानूनों और कार्यक्रमों की जानकारी उन तक लंबे समय तक नहीं पहुंच पाती है. 2016 में राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना के स्थान पर प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को शुरू करने का फैसला किया. सरकार ने कृषि समुदाय के हित में इसे एक बड़े फैसले के रुप में प्रचारित किया, लेकिन भारत के नियंत्रक एवं महालेखाकार (कैग) परीक्षक ने एक सर्वेक्षण में दावा किया है कि दो तिहाई किसानों को इन योजनाओं के बारे में जानकारी ही नहीं हैं. कैग ने संसद में प्रस्तुत अपनी ऑडिट रिपोर्ट में बताया है फसल बीमा योजनाओं के बारे में जानकारी केवल 37 प्रतिशत किसानों को ही जानकारी थी. देश में किसानों के लिए तीन दशक पहले कृषि फसल बीमा योजनाओं की शुरुआत हुई थी.

केंद्र सरकार ने इन तीन दशकों में कृषि समुदाय की सहायता के लिए इन योजनाओं में कई स्तरों पर सुधार करने का दावा किया है.

कैग ने संसद में प्रस्तुत अपने कृषि एवं किसान मंत्रालय 2017 की प्रतिवदेन संख्या 7 में टिप्पणी की है कि किसानों को फसल बीमा योजनाओं के बारे में जानकारी नहीं होना इस तथ्य को स्थापित करता है कि योजनाओं का प्रचार-प्रसार पर्याप्त और प्रभावी नहीं रहा है. कैग ने फसल बीमा योजनाओं का लाभ गरीब जरूरतमंद किसानों तक नहीं पहुंच पाने को लेकर भी गंभीर स्थिति का आकलन अपनी रिपोर्ट में पेश किया है. कैग ने चयनित जिलों और गांवों में जिन किसानों के बीच सर्वेक्षण किया, उनमें 80 प्रतिशत किसान वैसे थे जिन्होंने कर्ज लेकर फसल में लगाया था. केवल 15 प्रतिशत किसान गैर श्रृणी थे.

देश के विभिन्न जिलों में कैग द्वारा किए गए सर्वेक्षण में 5993 किसानों के भाग लिया. उनमें केवल 2232 किसानों ने बताया कि उन्हें फसल बीमा योजनाओं के बारे में जानकारी है. इन किसानों को प्रीमियम की दरों, आवृत जोखिम और दावों, नुकसान आदि के बारे में जानकारी थी.

आंदोलन और MSP की जानकारी का बढ़ता दायरा

एक अन्य अध्ययन में यह तथ्य सामने आया है कि देश के ज्यादातर किसानों को ये पता ही नहीं था कि उनके द्वारा पैदा किए जाने वाले उत्पादों का समर्थन मूल्य क्या होता है. देश में कृषि उत्पादों के लिए समर्थन मूल्य तय करने की नीति 1964 में एल. के. झा की अध्यक्षता में एक समिति के गठन के बाद से चली आ रही है. कृषि में खाद, केमिकल्स और बाजार के बीज पर आधारित हरित क्रांति के लिए जन संचार के माध्यमों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करती रही है और इसे विकास पत्रकारिता की सफलता के रुप में पेश किया जाता रहा है. लेकिन किसानों के आर्थिक हितों की सुरक्षा और जागरूकता के लिए जन संचार के माध्यमों की उपयोगिता सफल नहीं मानी जा सकती है.

दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर किसान प्रदर्शनकारी, 1 दिसंबर 2020 की तस्वीर(फोटो: PTI)
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देश में 12 करोड़ 82 लाख कृषि परिवार है, जिनमें 63 प्रतिशत सीमांत स्तर के है और 18.88 प्रतिशत लधु स्तर के है.

कृषि से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने किसानों के उत्पादों के लिए सरकार की ओर से समर्थन मूल्य तय करने की प्रक्रिया के अध्ययन के दौरान, कृषि विभाग के अधिकारियों से पूछा था कि क्या देश में किसानों को समर्थन मूल्य के बारे में पता है, तो कृषि विभाग ने जो जवाब दिया कि 71 फीसदी किसानों को समर्थन मुल्य के बारे में जानकारी नहीं है.

कृषि विभाग के अधिकारियों ने बताया कि उन्होंने अपने स्तर पर ये अध्ययन नहीं कराया है कि देश में कितने किसानों को समर्थन मूल्य के बारे में पता है और कितने किसानों को सरकार द्वारा खरीद करने वाली एजेंसी के बारे में पता है. लेकिन अधिकारियों ने राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा 2003 में कृषि क्षेत्र में किए गए एक अध्ययन के नतीजों के बारे में जानकारी दी.

लेकिन यह जानकारी कितनी पुख्ता है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है; संसद की स्थायी समिति को बताया गया कि देश के स्तर पर 29 प्रतिशत खेतिहरों को ये पता है कि सरकार द्वारा दिया जाने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य क्या है. लेकिन इसमें केवल 19 प्रतिशत को समर्थन मूल्य के साथ यह भी जानकारी थी कि बाजार में उनके उत्पाद की कीमत कम होने के हालात में वे अपना उत्पाद सरकारी एजेंसी को बेच सकते हैं.

इसका अर्थ यह निकाला गया है कि 29 में भी 10 प्रतिशत किसान ऐसे है जिन्होंने न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में सुना तो जरूर हैं, लेकिन वह ये नहीं जानते हैं कि समर्थन मूल्य पर खरीदने वाली कोई सरकारी एजेंसी भी होती है.

संसद की स्थायी समिति के इस अध्ययन में जितने किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का नाम मालूम था उसके आंकड़ों का उल्लेख तो किया गया है. संसद की इस स्थायी समिति की रिपोर्ट 2007-2008 में ही तैयार की गई थी, लेकिन किसानों की दूर्दशा के कारणों को बारीकी से सामने लाने वाली इस रिपोर्ट की खबरें जन संचार माध्यमों में नहीं के बराबर आईं.

इसी पर आधारित सूचना यूपीए की सरकार में कृषि मंत्री शरद पावर ने संसद में दी थी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के बारे में 71 प्रतिशत लोगों को जानकारी नहीं हैं. 2020 तक के आंकड़े जाहिर करते हैं कि बिहार में 1 प्रतिशत कृषि उत्पादों की न्यूनतम समर्थन मूल्य कर खरीद होती है.

मनरेगा की भी सूचना मजदूर आंदोलनों ने ज्यादा पहुंचाई

मनरेगा के नाम से रोजगार की गारंटी करने वाले कानून को प्रचार मिला है. यूपीए सरकार ने रोजगार गारंटी योजना लागू किया था. इस कानून के लागू होने के बाद 23 जनवरी 2010 से तीन महीनें तक मनरेगा को लेकर टेलीविजन चैनलों पर एक बड़े बजट वाला प्रचार अभियान चलाया गया. सरकारी मशीनरी ने नई तकनीक पर आधारित यह प्रचार अभियान बड़े जोर-शोर से चलाया.

लेकिन जब ग्रामीण विकास मंत्रालय ने इस प्रचार अभियान का एक अध्ययन कराया तो नतीजा निराशाजनक था. इस अध्ययन का उद्देश्य यह पता लगाना था कि सरकार की इस योजना की सूचना की पहुंच मजदूरों तक कितनी हो सकी है. देश के 157 जिलों में यह अध्ययन किया गया था जिसमें बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली से करीब वाले हरियाणा के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आने वाले जिले शामिल हैं.

अध्ययन के बाद यह तथ्य आया कि सर्वेक्षण में शामिल ज्यादातर परिवारों को इस प्रचार अभियान से रोजगार गारंटी योजना के बारे में जानकारियों में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई. यह अध्ययन ग्रामीण विकास मंत्रालय ने फरवरी 2011 में प्रकाशित किया था.

किसान आंदोलन में शामिल कई कार्यकर्ताओं का यह दावा है कि जब आंदोलन होते हैं तो आंदोलन खुद में सूचनाएं फैलाने और जानकारियों को बढ़ाने में सबसे ज्यादा कारगर साबित होते हैं. 2020 के किसानों के आंदोलन से न्यूनतम समर्थन मूल्य, मंडी व्यवस्था के बारे में सूचनाएं बहुत तेजी से खेती से जुड़े परिवारों तक पहुंच रही हैं.

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