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(श्रीनगर में 22-24 मई तक आयोजित हुई जी-20 बैठक ने कश्मीर के आसपास की राजनीतिक संवेदनशीलता को देखते हुए स्थल के चयन को लेकर एक बहस छेड़ दी थी. लेकिन, सुरक्षा की दृष्टि से सबकुछ ठीक रहा. इस लेख में कार्यक्रम स्थल के चयन के पक्ष में तर्क रखे गए हैं. यहां आप कार्यक्रम स्थल के चयन के खिलाफ तर्क पढ़ सकते हैं)
भारत ने श्रीनगर में 22-24 मई के बीच पर्यटन पर जी-20 कार्यकारी समूह की बैठक की मेजबानी की. यह देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग मुद्दों और विषयों पर जी-20 बैठकें आयोजित करने की प्रक्रिया का हिस्सा था. केंद्र शासित प्रदेशों में जम्मू-कश्मीर और लद्दाख भारत के हिस्से हैं और इसलिए, इन केंद्र शासित प्रदेशों में G-20 बैठकें आयोजित करना एक सामान्य प्रस्ताव के रूप में पूरी तरह मुनासिब था.
साथ ही, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर दशकों से पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद का शिकार रहा है. इसलिए ऐसी बैठकों का आयोजन करते समय केंद्र शासित प्रदेश में सुरक्षा व्यवस्था को ध्यान में रखा जाना चाहिए. जाहिर है, सरकार को भरोसा था कि वह जी-20 अधिकारियों की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकती थी और इसलिए कश्मीर घाटी में इस तरह की बैठकें आयोजित करने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी.
11 अप्रैल को जारी एक प्रेस रिलीज में पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने भारत द्वारा इस बैठक के आयोजन पर "सख्त एतराज" जाहिर किया थी. उसने इसे "गैर-जिम्मेदाराना" कदम और "जम्मू-कश्मीर पर अपने अवैध कब्जे को बनाए रखने के लिए “आपने फायदे की कोशिशों का हिस्सा" करार दिया था. इन पाकिस्तानी आपत्तियों में कुछ भी नया नहीं था और न ही इस बात में कि पाकिस्तान, जम्मू-कश्मीर को "अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त विवाद" (Internationally recognised dispute) कह रहा है.
हकीकत तो यह है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय थक गया है और जम्मू-कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के लगातार राग अलापने से चिढ़ता है.
चीन की मदद से वह जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर UNSC के साथ दो अनौपचारिक परामर्श करने में सक्षम था, लेकिन इनसे स्पष्ट रूप से पता चला कि UNSC के सदस्य चाहते थे कि भारत-पाकिस्तान अपने मतभेदों को द्विपक्षीय रूप से आपस में सुलझा लें. अंतरराष्ट्रीय समुदाय तब तक इन मुद्दों में शामिल नहीं होना चाहता है जब तक कि आग लगने का कोई खतरा नहीं है.
जम्मू-कश्मीर पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का संदेश पाकिस्तान के नेतृत्व को समझ में नहीं आया है. इमरान खान के नेतृत्व वाली पिछली सरकार ही नहीं, बल्कि शाहबाज शरीफ के नेतृत्व वाली वर्तमान PML(N) सरकार भी लगातार यह राग अलापती रही है कि जब तक संवैधानिक बदलावों को वापस नहीं लिया जाता, तब तक भारत-पाकिस्तान के बीच कोई संबंध नहीं हो सकता.
मई के पहले हफ्ते में शंघाई सहयोग संगठन के विदेश मंत्रियों की बैठक के लिए अपनी गोवा यात्रा के दौरान विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी के एक सवाल के जवाब में श्रीनगर में जी-20 बैठक के खिलाफ पाकिस्तान की नाराजगी भी जाहिर थी.
पाकिस्तान के युवा मंत्री ने कहा था कि ''जाहिर तौर पर हम इसकी निंदा करते हैं." इसके बाद उन्होंने जोश में आकर कहा, 'वक्त पर हम ऐसा जवाब देंगे, वह याद रखा जाएगा।'
जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों द्वारा हाल ही में किए गए आतंकी हमलों के कारण बिलावल की टिप्पणी के निहितार्थ कल्पना के लिए बहुत कुछ नहीं छोड़ते हैं.
पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश की. यह कहा गया कि “विदेश मंत्री की टिप्पणी को हिंसा की धमकी के साथ जोड़कर कोई भी एतराज न केवल शरारतपूर्ण है, बल्कि बहुत ही गैर-जिम्मेदाराना भी है.
यह बातचीत के माध्यम से और अंतर्राष्ट्रीय कानून और यूएनएससी प्रस्तावों के अनुसार विदेश मंत्री के संघर्ष समाधान के प्रमुख संदेश से ध्यान हटाने का एक प्रयास है. लगभग चार दशकों के कूटनीतिक तजुर्बे में लेखक किसी भी ऐसे विदेश मंत्री को याद नहीं जानता जो दूसरे पक्ष को "लंबे समय तक याद रखी जाने वाली प्रतिक्रिया" की धमकी देकर "बातचीत के माध्यम से संघर्ष समाधान" की मांग कर रहा हो!
निश्चित रूप से अगर बिलावल और पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय ने सोचा था कि श्रीनगर बैठक का जी-20 सदस्य देशों द्वारा बहिष्कार किया जाएगा, तो यह नाकाम रहा है. क्योंकि, इस बैठक में 17 देशों के प्रतिनिधि शामिल रहे. इस बैठक में शामिल नहीं होने वाले देशों में चीन, सऊदी अरब और तुर्की शामिल हैं.
पाकिस्तान के अलावा, अल्पसंख्यक मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष रैपोर्टेयर फर्नांड डी वेरेन्स ने जी-20 श्रीनगर बैठक का विरोध किया है, क्योंकि यह जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति से अलग होगा. जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों की वास्तविकताओं पर वारेन्स की टिप्पणियां फालतू हैं. उन्हें कोई भी देश गंभीरता से नहीं लेता.
व्यापक संचार प्रतिबंध और कर्फ्यू की अवधि समाप्त हो गई है, हालांकि सुरक्षा की स्थिति लोगों के लिए और ज्यादा मुश्किलें पैदा करती है. गौरतलब है कि डे वारेन्स के पास आतंकवादियों की गतिविधियों और लोगों पर उनके असर के बारे में कहने के लिए कुछ नहीं था. इसके अलावा, कश्मीर घाटी में किसी भी गहरे डेमोग्राफिकल चेंज या इसके रीति-रिवाजों और आस्था के लिए खतरा बिल्कुल भी नहीं है.
जिस तरह से, परिवर्तनों के सार से अलग, जिसमें ये बदलाव किए गए थे, भारत की राजनीति के लिए व्यापक और लॉंग टर्म असर हो सकते हैं, अदालत को इस मामले की सुनवाई करनी चाहिए, भले ही सरकार उचित समय पर जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने की प्रतिबद्धता दी हो.
पिछले दो वर्षों में राज्य में पर्यटन में बढ़ोत्तरी देखी गई है. जम्मू-कश्मीर पृथ्वी पर सबसे खूबसूरत जगहों में से एक है और इसकी पर्यटन क्षमता बहुत अधिक है. इसके अलावा क्या जम्मू-कश्मीर में पर्यटन पर कार्यदल का आयोजन करना बुद्धिमानी थी जबकि अहम चिंता शामिल होने वाले लोगों की सुरक्षा के रखरखाव को लेकर थी?
इस तरह की बैठक में भाग लेने वाले व्यक्तियों पर किसी स्थान की पर्यटक क्षमता को प्रभावित करने का यह सबसे अच्छा तरीका नहीं है यदि उनका आवागमन गंभीर रूप से प्रतिबंधित है. आखिरकार, टूरिज्म की पहली आवश्यकता प्राकृतिक सुंदरता वाले स्थानों या बाजारों में पर्यटकों की मुक्त आवाजाही है. साफ सुथरे माहौल में गाइडेड टूर असल में टूरिज्म के लिए बेहतरीन विज्ञापन नहीं होता है.
क्या इस पर गौर किया गया था? जम्मू और कश्मीर में एक अलग G-20 कार्यक्रम आयोजित करने पर गौर किया जा सकता था.
(लेखक, विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव [वेस्ट] हैं. उनका ट्विटर हैंडल @VivekKatju है. यह एक ओपिनियन पीस है. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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