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पुस्तकों और उनके लेखकों के लिए प्रशंसा मायने रखती है. बेशक, अवॉर्ड और प्राइज मायने रखते हैं. इसमें उचित प्रकार की प्रशंसा और पुरस्कार भी शामिल हैं. इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर की प्रशंसा के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रशंसा भी शामिल है. उदाहरण के तौर इंटरनेशल बुकर प्राइज (International Booker Prize), जो इस साल गीतांजलि श्री की रचना 'टॉम्ब ऑफ सैंड' (Geetanjali Shree's 'Tomb of Sand') के नाम रहा है, जोकि गीतांजलि श्री की हिंदी पुस्तक 'रेत समाधि' का अंग्रेजी अनुवाद है. ठीक ढंग से की गई प्रशंसा या दिया गया अवॉर्ड लेखक या रचनाकार को पुरस्कृत व सम्मानित करता है, उसके कद और कला के कौशल को पहचान देता है, ऊंचाई प्रदान करता है या उसकी पुष्टि करता है. उस लेखक या रचनाकार पर साहित्यिक प्रकाश डालता है. इसके साथ ही भले ही इससे अपरिहार्य तौर पर ईर्ष्या पैदा होती है लेकिन यह अन्य लेखकों को प्रोत्साहित व प्रेरित करता है.
जब किसी पुस्तक को अंतर्राष्ट्रीय बुकर या नोबेल जैसा स्थापित और सम्मानित अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक पुरस्कार प्राप्त होता है, तो यह न केवल लेखक और पुस्तक के लिए बल्कि उनकी भाषा और देश के लिए भी मायने रखता है. बेशक लेखक को (इस मामले में अनुवादक डेज़ी रॉकवेल को भी) प्रतिष्ठा, पैसा और एक उज्ज्वल पब्लिशिंग भविष्य मिलता है. इसके साथ ही भाषा और उसके रचनाकार को भी नई पहचान, विशेषता, गौरव, ताकत और आत्मविश्वास मिलता है.
इस साल इंटरनेशनल बुकर प्राइज से टॉम्ब ऑफ सैंड को नवाजा गया है. ऐसा पहली बार हुआ है जब भारतीय भाषा से अनुवादित किसी रचना को यह प्रतिष्ठित पुरस्कार प्रदान किया गया है. टॉम्ब ऑफ सैंड गीतांजलि श्री की रेत की समाधि का अंग्रेजी अनुवाद है, जिसके अनुवादक डेज़ी रॉकवेल हैं.
राजकमल प्रकाशन के आमोद माहेश्वरी का कहना है कि "हमें हर दिन पांच से छह नए बुकसेलर्स से कॉल और ऑर्डर मिल रहे हैं. यह अभूतपूर्व व अद्वितीय है."
यह पुरस्कार इस बात पर जोर देता है कि भारतीय साहित्यिक (Indian literary Works) कृतियों के लिए अंग्रेजी और विश्व की अन्य प्रमुख भाषाओं में अच्छे अनुवादकों की जरूरत है.
राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर हिंदी को बढ़ावा देने का ढोंग करने वाली संस्थाएं इस ऐतिहासिक उपलब्धि से स्तब्ध रह गई हैं.
ये पुरस्कार उन साहित्यिक भाषाओं के लिए उतना मायने नहीं रखते हैं जो पहले से ही वैश्विक और शक्तिशाली हैं जैसे अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, जापानी आदि. लेकिन ये पुरस्कार तीसरी या दूसरी दुनिया की कम-ज्ञात भाषाओं के लिए काफी मायने रखते हैं. वे (पुरस्कार) इन भाषाओं में संपूर्ण प्रकाशन उद्योग को बढ़ावा देते हैं, नई ऊर्जा प्रदान करते हैं और सशक्त बनाते हैं; वे (पुरस्कार) ऐसी भाषाओं के साथ-साथ लेखकों को भी इस बात के लिए प्रोत्साहित करते हैं कि वे (भाषाएं और लेखक) अपने लक्ष्य को ऊंचा रखें, अपने प्रयासों व काम में अधिक महत्वाकांक्षी बनें और अपने क्षितिज को व्यापक बनाएं यानी अपने ज्ञान की सीमा का दायरा बढ़ाएं.
टॉम्ब ऑफ सैंड अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार प्राप्त करने वाला पहला भारतीय भाषा से अनुवादित उपन्यास है. अंग्रेजी में अनुवादित किसी भारतीय भाषा की पुस्तक का आखिरी बड़ा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार नोबेल था. रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि के लिए 1913 में नोबेल पुरस्कार दिया गया था, यह रचना मूल रूप से बांग्ला में लिखी गई थी और इसका अनुवाद स्वयं गुरुदेव ने किया था. कई भारतीय लेखकों को प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार सहित अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं, लेकिन जिन रचनाओं के लिए प्राइज मिला वे सभी अंग्रेजी में लिखी गई थीं. सलमान रुश्दी, अमिताभ घोष, अरुंधति रॉय और अरविंद अडिगा विश्व के लिए 'भारतीय' लेखन के वैश्विक प्रतिनिधि बन गए हैं.
एक सदी से अधिक का समय लगा है एक भारतीय भाषा में किसी साहित्यिक कृति को अंग्रेजी को लेकर चले आ रहे पूर्वाग्रह (glass ceiling) को तोड़ने और वैश्विक मंच पर धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराने में. इससे भारतीय भाषाओं की अत्याधिक समृद्ध दुनिया पर वैश्विक ध्यान आकर्षित हुआ है, जो आमतौर पर दुनिया के बाकी लोगों के लिए बहुत कम ज्ञात है.
खासतौर पर तब जैसा कि न्यूयॉर्क टाइम्स के यूरोपियन कल्चर रिपोर्टर ने अपनी रिपोर्ट में बताया "किसी भी प्रमुख ब्रिटिश अखबार द्वारा इस उपन्यास की समीक्षा नहीं की गई थी बावजूद इसने (नॉवेल ने) टाइटल के लिए अपना दावा प्रस्तुत किया." रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि "भारतीय भाषा का यह पहला उपन्यास है जिसने इंटरनेशनल बुकर प्राइज जीता है और इसके साथ ही यह हिंदी का पहला उपन्यास है जिसने नामांकन अर्जित किया है."
इस तरह का एक प्रतिष्ठित पुरस्कार (इंटरनेशनल बुकर प्राइज) लेखक, भाषा, प्रकाशक (पब्लिशर) और लेखक व प्रकाशक समुदाय के लिए क्या व कैसी भूमिका निभाते हैं इसे राजकमल प्रकाशन (पब्लिशर) के आमोद माहेश्वरी के शब्दों में सबसे अच्छी तरह से समझा जा सकता है.
अमोद कहते हैं कि "हिंदी लेखकों और प्रकाशकों के लिए यह काफी मायने रखता है. यह सभी भारतीय भाषाओं के प्रकाशन के लिए अहम है. राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर भारतीय भाषा की लेखन-प्रकाशन की पूरी दुनिया एक नए उछाल, नई दृश्यता का अनुभव करने जा रही है."
यह पुरस्कार न केवल लेखक-प्रकाशक, बल्कि अनुवादकों के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है. जिसे (अनुवादकों को) अक्सर उपेक्षित वर्ग के तौर पर देखा जाता है. हम इंटरनेशनल बुकर प्राइज की उस 'औपनिवेशिक' प्रकृति का मजाक उड़ा सकते हैं कि यह पुरस्कार केवल गैर-अंग्रेजी उपन्यासों के अंग्रेजी अनुवाद को दिया जाता है उसमें से भी एक अहम शर्त यह होती है कि उस कृति का प्रकाशन यूके (ब्रिटेन) या आयरलैंड के प्रकाशक द्वारा किया गया हो. लेकिन इसके साथ ही हमें उसी समय यह भी स्वीकार करना चाहिए कि यह पुरस्कार लेखक और अनुवादक को समान सम्मान व प्रतिष्ठा प्रदान करता है. पुरस्कार की राशि दोनों समान रूप से साझा करते हैं. समान रूप से प्रतिष्ठा और सम्मान देने की इस बात का जोरदार तरीके से स्वागत करना चाहिए. अगर अनुवाद नहीं होते तो शायद 'विश्व साहित्य' जैसी कोई चीज नहीं होती.
यह अनुवाद के माध्यम से ही संभव है कि कोई भी साहित्यिक काम राष्ट्रों, भाषाओं और संस्कृतियों की सीमाओं व सरहदों को पार करता है और वह काम पूरी दुनिया से जुड़ (संबंधित हो) जाता है. ऐसी ही थीम गीतांजलि श्री के शानदार उपन्यास में गहराई से व्याप्त है. तीन साल पहले जब राजकमल के प्रबंध निदेशक अशोक माहेश्वरी ने मुझे यह उपन्यास दिया था तब उन्होंने कहा था आपको ऐसा कहीं नहीं मिलेगा. उन्होंने जो कहा ठीक वही साबित हुआ है.
हालांकि कोई भी इस बात का दावा नहीं कर सकता है कि 2018 के बाद से रेत समाधि दुनिया या भारत में लिखा गया सबसे बेहतरीन उपन्यास है. लेकिन हमें यह बाद याद रखनी चाहिए कि इस उपन्यास ने कई बड़ों नामों के विरुद्ध जीत दर्ज करते हुए पुरस्कार जीता है. इस वर्ष के पुरस्कार के लिए जूरी के अध्यक्ष फ्रैंक वेन के शब्दों में बुकर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट की गई पांच अन्य रचनाओं में 'टॉम्ब ऑफ सैंड' जजों की पसंद पर "अत्याधिक रूप से भारी" थी. यह (टॉम्ब ऑफ सैंड) अन्य पांच उपन्यासों को हराने के लायक थी. जिन किताबों इस उपन्यास ने पछाड़ा उनमें से कुछ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध लेखकों की थीं. जिनमें नोबेल पुरस्कार विजेता पोलैंड के उपन्यासकार ओल्गा ताकारज़ुक की 'द बुक्स ऑफ जैकब' और 'ब्रेस्ट्स एंड एग्स' के लिए जाने जाने वाले जापानी लेखक मीको कावाकामी की 'हेवन' शामिल हैं.
साहित्य के काम की आंतरिक गुणवत्ता या श्रेष्ठता ही अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार के लिए एकमात्र मानदंड या जरूरत नहीं है. इसके लिए अत्यधिक प्रतिभाशाली अनुवाद के साथ-साथ साहित्यिक मध्यस्थों, जैसे साहित्यिक एजेंट या मित्र की जरूरत होती है जिनका अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक प्रतिष्ठान में सही स्थानों पर कनेक्शन हो. टैगोर की गीतांजलि के मामले में उन्होंने (रवीन्द्र नाथ टैगोर ने) खुद ही कई बांग्ला कविताओं का अनुवाद अपने दोस्त और प्रसिद्ध कवि डब्ल्यू.बी येट्स W. B. Yeats की मदद से किया था.
गीतांजलि श्री के मामले में बंगाली और अंग्रेजी लेखक अरुणव सिन्हा ने अमेरिकी अनुवादक-चित्रकार डेज़ी रॉकवेल को अंग्रेजी अनुवाद के प्रकाशक मिलवाया था. इससे शायद यह भी मदद मिली कि गीतांजलि श्री विदेश में पूरी तरह से अनजान नहीं थीं. उनके नाम एक से अधिक पुस्तकें पहले ही हैं और उनका पहले भी अंग्रेजी में अनुवाद किया जा चुका है. इंटरनेशनल बुकर प्राइज से पहले रेत समाधि का अनुवाद और प्रकाशन फ्रेंच भाषा में किया जा चुका है.
यह पुरस्कार भारतीय साहित्यिक कृतियों की अंग्रेजी और विश्व की अन्य प्रमुख भाषाओं में अच्छे अनुवादकों की जरूरत के महत्व को उजागर करता है. हाल के वर्षों में कई भाषा लेखकों का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है और उन्हें खूब सराहा गया है, जो कुछ सांत्वना प्रदान करता है. अनुवादित कार्यों को बुकशेल्फ में जगह मिल रही है उन्हें सराहा जा रहा है. अब इस घटना को और मजबूती मिलेगी. लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है ताकि यह भाषा लेखन के उत्सव का एक प्रासंगिक जश्न बनकर न रह जाए.
प्रमुख प्रकाशकों, सरकारों और शिक्षाविदों को भाषाओं के बीच प्रतिभा के विशाल पूल को पहचानने के लिए, प्रोत्साहित करने और सशक्त बनाने के लिए अपने जाल को व्यापक बनाने की जरूरत है. भारत के जीवन, प्रेम, संघर्ष, जीत और उतार-चढ़ाव और रंगों और संवेदनाओं को भाषा, संस्कृति और देशों की बाधाओं के पार पढ़ने वाली मानवता की चेतना में प्रवेश करने की जरूरत है.
सौभाग्य से, केवल अंग्रेजी अभिजात वर्ग ने धीरे-धीरे उन भाषाओं की खूबियों और ताकत को नोटिस करना शुरू कर दिया है जिन्हें वे भूल गए थे या छोड़ चुके थे. आशा है, रेत समाधि को यह वैश्विक मान्यता न केवल इंडो-एंग्लियन्स के एक वर्ग में हिंदी को नया सम्मान देगी, जिसके लिए साहित्य और अच्छा लेखन भारत के भीतर अंग्रेजी के साथ शुरू और समाप्त होता है, बल्कि यह सामान्य रूप से भारत में भाषा लेखन की जागरूकता और प्रोफाइल को भी बढ़ाएगी. हिंदी के लिए यह वैश्विक मंच पर प्रवेश की एक नई सुबह है. जिसे लंबे समय से गैर-हिंदी अभिजात वर्ग द्वारा सम्मान से वंचित किया गया है और कुछ राज्यों में संकीर्ण विचारधारा वाले राजनेताओं द्वारा कई दोषों का आरोप लगाया गया है.
एक आखिरी बात सत्ता पर विराजमान लोगों की चुप्पी से जुड़ी है. सत्ता पर बने हुए शेर जो कि दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी भारतीय की किसी भी क्षेत्र की उपलब्धि चाहे वह बड़ी हो या छोटी पर सार्वजनिक रूप से बधाई देने नहीं चूकते हैं, उनकी चुप्पी बहरा कर देनी वाली है. .
ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें इस बात का डर है कि इस रचना और इसके लेखक को मान्यता व सम्मान देने से वे और उनकी विचारधारा कमजोर हो जाएंगी. मेरा मानना है कि हमें आभारी होना चाहिए कि पुरस्कार को अभी तक भारत विरोधी या साजिश के रूप में बदनाम व हमला नहीं किया गया है. इस छोटी से दया के लिए भगवान का शुक्र है.
(राहुल देव, लेखक सम्यक फाउंडेशन के पत्रकार और ट्रस्टी हैं. वे @rahuldev2 से ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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Published: 05 Jun 2022,07:41 PM IST