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‘मैं आपको बताऊंगा कि भारत में आखिर आपकी समस्या क्या है’ अमेरिकी बिजनेसमैन ने कहा, “ आपके पास हद से ज्यादा इतिहास है, इतना ज्यादा कि आप शांति से इसे संभाल नहीं सकते. इसलिए आप एक दूसरे के खिलाफ इतिहास को कुल्हाड़ी जैसे हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहते हैं’.
अमेरिकी बिजनेसमैन कोई सच का किरदार नहीं है बल्कि वो मेरे एक उपन्यास दंगा (Riot) का किरदार है. इसे मैंने साल 2001 में लिखा था. ये उपन्यास मैंने लिखा था हिंदू- मुस्लिम दंगों पर जो राम शिला पूजन कैंपेन और राम जन्मभूमि पर (जहां 400 साल से बाबरी मस्जिद थी) मंदिर बनाने के लिए हुए आंदोलन के बाद भड़के थे. जैसा कि हाल के दिनों में ज्ञानवापी मामला मीडिया की सुर्खियों में है, इसमें भी कहा जा रहा है कि मूल काशीनाथ मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी. इन दोनों मामले में भयानक समानता को लेकर कई टिप्पणियां मैंने हाल में देखी हैं.
राम जन्म भूमि आंदोलन और बाबरी मस्जिद को गिराए जाने से देश में दंगे भड़के और इससे जो हिंसा की लपटें उठीं उसने पूरे देश को लगभग अपनी चपेट में ले लिया. फिर भी अब जो ज्ञानवापी का मुद्दा उछाल रहे हैं ऐसा लगता है जैसे वो उन दंगों और हिंसा को भुला चुके हैं. भारत में त्रासदी यही है कि इतिहास जानने वाले भी इस गलती की दोहरा रहे हैं.
यह 21 वीं सदी के भारत की विडंबनाओं में से एक हैं, कि ये भविष्य टेक्नोलॉजी की दृष्टि से प्रेरित है, वहीं अतीत की हठधर्मिता से बंधा हुआ भी है.
साल 1992 में हिंदू कट्टरपंथियों के समूह ने बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया. 16वीं सदी की मस्जिद जिसका इस्तेमाल नहीं हो रहा था, और शहर में जहां मंदिरों की बड़ी तादाद है उनके बीच में प्रमुख जगह पर मस्जिद खड़ी थी. इस बात की संभावना है कि ज्ञानवापी का कुछ हिस्सा काशी विश्वनाथ के मलबे से बनाया गया लेकिन बाबरी से अलग यहां प्रार्थना और इबादत होती रही है.
साल 1991 का पूजा स्थल कानून कहता है कि सभी धार्मिक जगह जो जैसा है उसे वैसा ही बनाए रखना चाहिए. लेकिन कट्टर हिंदुत्व वादी इससे सहमत नहीं हैं और वो सभी महत्वपूर्ण हिंदू मंदिर जिन्हें मुगलों के समय तोड़ा गया और मस्जिद बनाई गई, वहां मंदिर बनाना चाहते हैं. दरअसल आज जो हिंदुत्व मजबूत हुआ है, अब वो इतिहास का बदला पूरा करना चाहता है और इसके लिए वो सबकुछ बदलने में लगे हैं.
निश्चित तौर पर उनके लिए आस्था बड़ी चीज है और ऐतिहासिक प्रमाण उनके लिए मायने नहीं रखते हैं. उनके लिए इतना ही काफी है कि लाखों हिंदू लोग ये मानते हैं कि मंदिर की जगह पर मस्जिद बनाई गई. दरअसल भारत में ऐसी कई मस्जिदों के उदाहरण हैं- करीब 3000 मस्जिद ऐसी हैं जो मंदिर के मलबे से बनाई गई है. फिर भी इस तरह की मान्यताओं पर काम करने से उन बेगुनाहों के मन को ठेस पहुंचेगा जिनका अतीत की इन गलतियों से कोई वास्ता नहीं है. क्या हमारी जवाबदेही नहीं है कि हम अपने इतिहास से ज्यादा अपने वर्तमान को अहमियत दें ?
ज्यादातर मुसलमानों के लिए मसला किसी खास मस्जिद या फिर तीन (मथुरा हिंदुत्वादियों के एजेंडे पर है) मस्जिद का है ही नहीं ..दरअसल पहले से ही कुतुबमीनार और ताजमहल को भी विवादों में घसीटा जाता रहा है. दावा किया गया है कि ये भी हिंदुओं की जगह पर बनाए गए हैं. मुसलमानों के लिए सवाल भारतीय समाज में अपने हक का है. आजादी के दशकों बाद तक सभी सरकारों ने सेकुलर संविधान और सेकुलर देश का भरोसा उनको दिया. उनकी और उनके अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी दी. उन्हें मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जो देश के सिविल कानून से अलग है उसकी इजाजत दी, मक्का जाने के लिए हज यात्रा के लिए अनुदान भी.
भारत के 3 राष्ट्रपति मुसलमान हुए, कई मुस्लिम कैबिनेट मंत्री बने, कई राजदूत, कई जनरल और सुप्रीम कोर्ट के जज भी. भारत में 1990 के मध्य तक मुसलमानों की आबादी खूब पली बढ़ी और भारत में मुस्लिम आबादी पाकिस्तान में मुसलमानों से ज्यादा हो गई. फिर मस्जिद को तोड़ना मुस्लिम समुदाय के भीतर असुरक्षा और धोखा की भावना को बढ़ाने जैसा था. भारत के बहुलतावादी लोकतंत्र में अपनी जगह को लेकर मुस्लिम असुरक्षित महसूस करने लगे.
जैसा कि मैंने पहले भी माना है कि भारत एक ऐसा देश है जहां इतिहास, मिथ, धर्म और कहानियां एक दूसरे से इतनी मिली जुली हैं कि कभी कभी हम लोग इसका अतंर नहीं कर सकते और फर्क बताना तो बहुत ही मुश्किल है. सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या पर अपने फैसले में कहा था कि राम मंदिर बनना चाहिए, हिंदुओं के धार्मिक भावनाओं का सम्मान होना चाहिए. उस आदेश का तात्पर्य था कि कानूनी प्रावधानों से ज्यादा ऐसी भावनाओं को तरजीह देनी पड़ेगी, साथ ही अल्पसंख्यकों की भावनाओं की तुलना में बहुसंख्यकों की भावनाओं का वजन ज्यादा है. अब ज्ञानवापी मामले में भी उन लोगों को लगता है कि कोर्ट ऐसा ही फैसला देगा.
कट्टरपंथी हिंदू जिन्होंने बाबरी मस्जिद को तोड़ा उनका भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाओं में जरा भी भरोसा नहीं है. वो मानते हैं कि सरकार पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता को भारत में लागू करती है और अल्पसंख्यकों को लेकर गलत नरम रुख रखती है।
उनके लिए, एक स्वतंत्र भारत, जो लगभग एक हजार साल के विदेशी शासन (पहले मुस्लिम, फिर ब्रिटिश) से मुक्त हुआ और विभाजन के साथ एक बड़ी मुस्लिम आबादी के बड़े हिस्से से छुटकारा मिला को अपनी खुद की पहचान जो स्वदेसी हिंदू पहचान है उस पर जोर देना चाहिए था.
ज्ञानवापी के मामले पर जो लोग कोर्ट गए हैं वो ऐसे ही कट्टरपंथी और अतिवादी हैं. वो ऐसे हिंदुत्व के सूरमा बनते हैं जो कभी हिंदूवाद के धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं या जड़ों से खुद को नहीं जोड़ते बल्कि ये इस आधार पर सिर्फ अपनी हिंदूवादी पहचान बनाते हैं. उनका हिंदुत्व कोई धार्मिक नीति नहीं होकर सिर्फ प्रतिशोध लेने का विचार है.
ऐसा करते हुए वो हिंदू धर्म के प्रति निष्ठावान नहीं रह पाते क्योंकि हिंदू धर्म पूरी दुनिया में ना केवल सहिष्णुता के एक उदार अवतार के रूप में सामने आता है, बल्कि यह दुनिया का एकमात्र प्रमुख धर्म भी है जो ये दावा नहीं करता कि वही सिर्फ एकमात्र सच्चा धर्म है.
हिंदूवाद मानता है कि पूजा का सभी रूप सही है और समान रूप से मान्य हैं. हिंदूधर्म में ईश्वर से संबंध को व्यक्ति के गहन आत्म-साक्षात्कार से जुड़ा निजी मामला बताया गया है. इस धर्म में आस्था को दिल और दिमाग की बात बताई गई है ,किसी ईट-पत्थर से आस्था को नहीं जोड़ा गया. एक सच्चा हिंदू कभी इतिहास को बदलना नहीं चाहता बल्कि वो समझता है इतिहास खुद को बदलता है.
बहुत लंबे समय से भारत में हिंदु-मुस्लिम संस्कृति के मेल मिलाप का जश्न मनाया जाता रहा है जिसे अक्सर गंगा-जमुनी तहजीब या समग्र संस्कृति कहा जाता रहा है. दोंनों ही धर्मों के जो आस्थावान लोग होते हैं वो जिस तरह से एक दूसरे के रीति रिवाज और विचार को अपनाते रहे हैं उसी से यो समग्र संस्कृति विकसित हुई है. लेकिन अब इस संस्कृति को औपचारिक रूप से गालियां दी जा रही है.
भारतीय जनता पार्टी (BJP), जो एक मुखर हिंदू समुदाय के विचारों के वाहक के तौर पर अपनी सियासी ताकत हासिल करती है, वो इतिहास में मुसलमानों के आक्रमणकारी होने का प्रचार कर जनता का ध्रुवीकरण करती है और आज ये पार्टी सबसे बड़ी वोट विजेता है.
आधुनिक हिंदूवाद खुद इस बात पर गर्व करती रही है कि ये विचारों की विविधता या अलग विचारों को स्वीकार करता है. जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने हमें सिखाया है..और यही हिंदू सभ्यता का सबसे बड़ा हॉलमार्क यानि विशिष्टता है. लेकिन आज कट्टरवादी हिंदू विवेकानंद के हिंदुवाद और भारत के संविधान की धज्जियां उड़ा रहे हैं. उनकी संकुचित मानसिकता से जिस संस्कृति को वो बचाने का दावा करते हैं वहीं खतरे में पड़ गई है.
भारत की संस्कृति हमेशा से काफी विशाल रही है , इसमें हमेशा नए विचारों और संस्कृति को जगह मिलती रही है चाहे वो ग्रीक हो, या फिर मुस्लिम या फिर ब्रिटिश. आज के भारत में सबसे बड़ी केंद्रीय लड़ाई दो विचारों के बीच है. एक विचार ये मानता है खासकर ऐतिहासिक अनुभवों को देखने के बाद कि हम विशाल हैं और बहुलतावादी है और कई विचारों को अपने में समेट सकते हैं. दूसरी तरफ वो लोग हैं जिन्होंने सच्चे भारतीय होने के मतलब को संकुचित कर लिया है.
ये मामला मामूली नहीं है. असहिष्णुता ब्रिगेड जिनको अभी सत्ताधारी बीजेपी सरकार का संरक्षण मिला हुआ है, अगर उन्हें इसी तरह धमकियां देने और हिंसा करने की इजाजत मिलती रहती है तो फिर एक उदार सभ्यता और उदार लोकतंत्र के तौर पर भारतीय सभ्यता के टिके रहने पर ही सवाल खड़े हो जाएंगे.
एक बहुलवादी और लोकतांत्रिक भारत जो कि इसकी पहचान है और इसकी परिभाषा भी है, उसमें अलग अलग विचारों को अभिव्यक्ति की आजादी की जगह जरूर होनी चाहिए.
खुद को हिंदू संस्कृति का ठेकेदार मानने वालों को अपने पाखंड और दोहरे मानकों को हम सब पर थोपने की इजाजत देना, कुछ वैसा ही होगा कि भारतीयता पूरी तरह से खत्म जाए. यह जंग निश्चित तौर पर कोर्ट में लड़ी जानी चाहिए और सड़कों पर नहीं.
अदालतें विवाद के समाधान पर विचार-विमर्श कर रही हैं, लेकिन इस बीच हिंसा का दौर फिर से शुरू हो सकता है, इतिहास के नए विवाद पनप सकते हैं. दोनों ही पक्षों में नए नए भुक्त भोगी यानि विक्टिम बन सकते हैं. साथ ही आने वाली पीढ़ियों को पुरानी गलतियां सही करने के लिए नई गलतियां सिखाई जाएंगी. अतीत को मिटाने के लिए हम अपने भविष्य को खतरे में डाल रहे हैं.
जैसा कि कभी ऑक्टेवियो पॉज ने लिखा था हम गुमनामी और स्मृतियों के बीच जीते हैं. एक के कारण दूसरा पैदा होता है और दूसरे के कारण पहला. यही तो मेरे भी उपन्यासों का मुख्य विषय रहा है. जैसा कि मैंने अपने उपन्यास ‘दंगा’ यानि Riot’ के अंत में लिखा था इतिहास कभी भी बेगुनाह हाथों का बुना हुआ नहीं होता.
(डॉ. शशि थरूर तिरुवनंतपुरम के लिए तीसरी बार सांसद हैं और हाल ही में 'द बैटल ऑफ बेलॉन्गिंग' (अलेफ) 22 पुस्तकों के पुरस्कार विजेता लेखक हैं। उन्होंने @ShashiTharoor ट्वीट किया। यह एक राय है, और व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं। द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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