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अयोध्या विवाद देखते-देखते हिंदू बनाम मुस्लिम विवाद हो गया, बल्कि बना दिया गया. ऐसी कोशिश सोमनाथ से अयोध्या यात्रा निकालते समय भी सफल नहीं हुई थी. 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद देशव्यापी दंगे जरूर हुए थे और उन दंगों में 2000 से ज्यादा लोग मारे गये थे. अगर संख्या में अधिक और कम को छोड़ दें तो मरने वालों में हिन्दू भी थे, मुसलमान भी. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जब 2009 में फैसला सुनाया था, तब भी कहीं हिंदू और मुसलमान पक्ष जैसी बात न थी.
अयोध्या विवाद को बातचीत से सुलझाने की बात कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2017 में कहा था,
यहां सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद को ‘दोनों पक्षों की भावनाओं से जुड़ा’ तो बताया था, मगर हिंदू और मुस्लिम पक्ष बोलने से परहेज किया था. मगर, इस तरीके से सोचने के लिए छूट उन लोगों को जरूर मिल गयी, जो वास्तव में अयोध्या विवाद के बहाने देश को हिंदू और मुसलमान में बंटा देखना चाहते थे.
जस्टिस एफएम कलीफुल्लाह के नेतृत्व वाले तीन सदस्यीय मध्यस्थता पैनल जब 31 जुलाई 2019 तक कोई सर्वसम्मति बनाने में विफल रहा, तो सुप्रीम कोर्ट ने 6 अगस्त से अयोध्या विवाद में सुनवाई शुरू की. दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट ने भी इस केस को इसी रूप में आगे बढ़ाया कि मध्यस्थता पैनल हिंदू और मुस्लिम पक्ष के बीच सहमति नहीं बना सका, इसलिए अब नियमित सुनवाई होगी. देश की मीडिया भी मध्यस्थता पैनल के बहाने अयोध्या विवाद को हिंदू पक्ष बनाम मुस्लिम पक्ष के रूप में बढ़-चढ़कर बताता रहा.
हैरानी की बात है कि विपक्षी दलों ने भी कभी अयोध्या विवाद को दो धर्मों का विवाद बताने पर आपत्ति नहीं जताई. अगर ऐसा किया जाता, तो सुप्रीम कोर्ट को भी इस ‘महाभूल’ को सुधारने का अवसर मिलता. एक तरफ राम जन्मभूमि को आस्था का विषय बताया जाता रहा, दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट में सबूत भी मांगे और दिखाए जाते रहे.
आस्था और सबूत के बीच आगे बढ़ती अदालती प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में तब बेचैन दिखी जब 'मुस्लिम पक्ष' के वकील राजीव धवन ने केवल एक पक्ष से ही सबूत मांगे जाने का ‘दर्द’ बयां कर डाला. इस पर 'हिंदू पक्ष' की आपत्ति तो सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी, अगले दिन मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि उसने दोनों पक्षों से सबूत मांगे हैं. अब यह बात फैसले में ही देखी जा सकेगी कि आस्था और सबूत में किसको अधिक महत्व दिया गया.
राम जन्मभूमि का विवाद लंबा रहा है. पूजा के अधिकार से होकर यह मंदिर या फिर मस्जिद के विवाद में बदला. फिर यह मालिकाना हक का सवाल बन गया. इस दौरान हिंसा और नफरत की सियासत ने बाबरी मस्जिद को ढहा दिया. देशभर में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए. चार राज्यों में बीजेपी की सरकारें बर्खास्त हुईं, जहां की सरकारों पर अयोध्या मार्च में मदद के आरोप लगे. अगर यह मुद्दा हिंदू-मुसलमान बन चुका होता तो इन राज्यों में दोबारा हुए चुनाव में बीजेपी की हार नहीं होती. बाद की सियासत पर भी नजर डालें तो बीजेपी को सत्ता में आने का मौका 90 के दशक के आखिर में ही मिल पाया.
मध्यस्थता समिति ने सुप्रीम कोर्ट की भावना के अनुरूप ही अयोध्या विवाद को दो पक्षों के बीच मध्यस्थता के तौर पर लिया और देखते-देखते अयोध्या विवाद हिन्दू और मुस्लिम पक्ष के विवाद में तब्दील हो गया. मध्यस्थता फेल होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील राजीव धवन को मुस्लिम पक्ष के वकील के तौर पर संबोधित किया जाने लगा, वहीं बाकी पक्ष को हिंदू पक्ष बताया जाने लगा. संबंधित पक्षों ने भी एक-दूसरे को हिंदू और मुसलमानों का पक्ष बताना और मानना शुरू कर दिया.
अब जबकि यह मान लिया गया है कि अयोध्या विवाद में दो पक्ष हैं- एक हिंदू और दूसरा मुसलमान, तो निश्चित रूप से समूचा देश इस मसले से खुद को जोड़कर देखेगा. एक पक्ष हारेगा, दूसरा जीतेगा. यह स्थिति देश के लिए कतई सौहार्दपूर्ण नहीं है. यह खुशी की बात है कि सुनवाई के आखिरी दिन मुस्लिम वक्फ बोर्ड ने मध्यस्थता पैनल के जरिए विवादित जमीन पर अपना दावा वापस लेने की पहल की, मगर इस पहल को सौहार्दपूर्ण नजरिए से समर्थन नहीं मिल पाया. अच्छा होता अगर इस मुद्दे का समाधान हिंदू पक्ष बनाम मुस्लिम पक्ष के बजाए किसी और तरीके से होता. शायद सरकार, विपक्ष और न्यायालय, किसी को भी इसकी अहमियत देखने की फुर्सत नहीं रही.
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Published: 17 Oct 2019,11:00 PM IST