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मई, 1974 में जब भारत ने पहला परमाणु परीक्षण किया था, तब अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने बहुत कड़ी प्रतिक्रिया दी थी. इसे लेकर 6 बड़े देशों- अमेरिका, ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ्रांस, जर्मनी और कनाडा की नवंबर, 1975 में मीटिंग हुई. इसमें भारत पर टेक्नोलॉजी को लेकर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया गया.
इन 6 देशों को तब ‘लंदन क्लब’ के नाम से जाना जाता था. हालांकि भारत ने स्पष्ट किया था कि यह परीक्षण ‘शांतिपूर्ण मकसद’ के लिए किया गया है.
भारत ने एनपीटी और कॉम्प्रिहेंसिव टेस्ट बैन ट्रीटी (सीटीबीटी) पर भी दस्तखत नहीं किए हैं. उसका मानना है कि एनपीटी और सीटीबीटी परमाणु हथियार रखने वाले देशों के हक में हैं.
भारत के परमाणु कार्यक्रम को कई साल तक विश्वसनीयता के संकट से गुजरना पड़ा. देश में संसाधनों की कमी, विदेशी टेक्नोलॉजी और मदद नहीं मिलने से कामकाज प्रभावित हुआ. वहीं, देश की कई सरकारों ने स्वेच्छा से परमाणु कार्यक्रम को रोके रखा, ताकि भारत की अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में आलोचना ना हो और वह अलग-थलग ना पड़ जाए. हालांकि भारतीय साइंटिस्ट, सेना और आम जनता और देश को परमाणु शक्ति बनाने और इसके लिए परीक्षण के समर्थन में थी.
इसे देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने 1995 में और परमाणु परीक्षण करने का फैसला किया. हालांकि अमेरिकी खुफिया सैटेलाइटों ने पोखरण में इसकी तैयारियों का पता लगा लिया. इसके बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और उनकी सरकार ने राव पर परीक्षण को रोकने के लिए काफी दबाव डाला और भारत को रुकना पड़ा.
इस घटना के तीन साल बाद देश का मूड पूरी तरह बदल गया था. 1998 आम चुनाव में बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने पार्टी के परमाणु परीक्षण के इरादे की खुलेआम घोषणा की. बीजेपी के घोषणापत्र में परमाणु हथियार बनाने की बात कही गई थी. यह भी कहा गया था कि परमाणु शक्ति बनने के बाद भारत अंतरराष्ट्रीय समुदाय में वह सम्मान हासिल कर सकेगा, जिसका वह हकदार है.
क्लिंटन ने भारत के परमाणु परीक्षण की कड़ी आलोचना की और अमेरिकी कांग्रेस ने देश पर कई प्रतिबंध लगा दिए. इससे न सिर्फ भारत के टेक्नोलॉजी ट्रेड पर असर पड़ा, बल्कि वर्ल्ड बैंक और इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड (आईएमएफ) से विकास के लिए मिलने वाली फंडिंग भी रुक गई. यूरोपीय देशों और संयुक्त राष्ट्र भी भारत पर पाबंदी की ब्रिगेड में शामिल हो गए. इन्हें हटने में पांच साल का समय लगा, लेकिन टर्निंग पॉइंट 2005 में भारत-अमेरिका की न्यूक्लियर डील रही, जिस पर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर और मनमोहन सिंह ने दस्तखत किए थे.
भारत और अमेरिका की तीन दिन तक जबरदस्त डिप्लोमेसी के बाद एनएसजी ने यह फैसला लिया. इसके लिए भारत ने यह वादा किया कि वह परमाणु तकनीक किसी देश को नहीं देगा और परमाणु परीक्षण पर स्वैच्छिक रोक को बहाल रखेगा.
एनएसजी की मीटिंग में भारत की तरफ से यह वादा तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने किया था. इस ऐतिहासिक मीटिंग में मैं भी मौजूद था. एनएसजी को इसके लिए मनाने में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन, प्रधानमंत्री के विशेष दूत श्याम शरण और इंडियन एटॉमिक एनर्जी कमीशन के चेयरमैन डॉ. अनिल काकोडकर ने खूब मेहनत की थी.
आईएईए के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल और भारत के दोस्त मोहम्मद अल बारदेई के लगातार समर्थन और चीन और यूरोप के कुछ देशों पर अमेरिका के दबाव डाले बिना भारत को एनएसजी का ग्रीन सिग्नल मिलना मुश्किल था. हालांकि, एनएसजी में भारत की फाइनल एंट्री में चीन अभी भी अड़ंगा लगा रहा है. वह भारत के साथ पाकिस्तान को भी इसकी मेंबरशिप देने की मांग कर रहा है.
(लेखक मालदीव में भारत के राजनयिक रहे हैं. इस लेख में उनके निजी विचार हैं और इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है)
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Published: 08 May 2018,06:24 PM IST