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भारत की चुनावी चेन पुलिंग ने जाम किए हैं जापानी बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट के पहिए

बुलेट ट्रेन जब शुरू होगी तो हो सकता है तब वैसी सुपरफास्ट हो, जैसा बताया गया है,लेकिन अभी प्रगति में वो स्पीड नहीं है

माधवन नारायणन
नजरिया
Published:
जापान में बुलेट ट्रेन के साथ जापान के पीएम शिंजे आबे और मोदी 
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जापान में बुलेट ट्रेन के साथ जापान के पीएम शिंजे आबे और मोदी 
फोटो - द क्विंट 

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कुछ दिन पहले दिल्ली से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जाने के दौरान जब दिल्ली-जयपुर हाइवे से गुजरा तो मैं ये देखकर मंत्रमुग्ध रह गया कि उस रास्ते पर जहां कभी मैं सरसों के खेतों, मिट्टी के घरों को देखते और ग्रामीण इलाके की ताजी हवा का आनंद लेते हुए जाता था, वहां जापानियों ने कैसे एक विशाल, क्लस्टर्ड इंडस्ट्री के निशानों को नक्काशीदार तरीके से तैयार कर दिया है.

यह सब कुछ 1980 में गुड़गांव में मशहूर कंपनी सुजुकी के मारूति वेंचर से शुरू हुआ और अब एक साथ कई मॉडर्न मैन्यूफैक्चरिंग इंडस्ट्रीज यहां पर हैं, जो हरियाणा (Hariyana) में बावल से शुरू होकर राजस्थान के नीमराना तक फैला है. यहां तक कि जिस हाइवे को कभी अपने ढाबों के लिए जाना जाता था, वहां भी आपको एक जापानी रेस्टोरेंट ऊपर से ही नजर आ जाएगा. ये भारत में काम कर रही 1500 जापानी कंपनियों में से हैं और इनमें ज्यादातर जापान इंडस्ट्रियल टाउनशिप (JIT) के 11 प्रोजेक्टस से जुड़ी हुई हैं.

जापान का भारत के जुगाड़ स्टाइल से सामना

अब जापान (Japan) की नजरें मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन और आने वाले 5 सालों में 42 बिलियन डॉलर, करीब 5 ट्रिलियन येन के एक भारी भरकम इंवेस्टमेंट प्लान के जरिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य पर हैं. इस इंवेस्टमेंट प्लान के जरिए जापान दुनिया की तेजी से बढ़ती हुई बड़ी अर्थव्यस्था की जनसांख्यिकीय लहर में हल्का सा धक्का देना चाहता है.

जापान ने साल 2014-2019 के लिए तय किए गए 3.5 ट्रिलियन येन के एक टार्गेट को सफलतापूर्वक हासिल भी कर लिया है, जो एक स्पेशल स्ट्रैटजिक और ग्लोबल पार्टनरशिप की अच्छी प्रगति को दिखाता है.
बुलेट ट्रेन परियोजना को महाराष्ट्र में किसानों का विरोध झेलना पड़ रहा है (Photo: iStockphoto)

हालांकि बुलेट ट्रेन एक अलग कहानी है. हो सकता कि जब ये शुरू हो तब वैसी सुपरफास्ट हो, जैसा बताया गया है, लेकिन इसकी अभी की प्रगति में वो स्पीड नहीं है, जो भावी ट्रेन से मेल खाती हो.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की गति इस प्रोजेक्ट में निराशा का सामना कर रही है. पिछले हफ्ते उनके समकक्ष फुमिओ किशिदा का दौरा, बहुत ज्यादा ऐसे प्रतीकों से भरा था जिसमें ये दिखाने की कोशिश की गई कि टोक्यो-नई दिल्ली के बीच ये समझौता समृद्धि के एक नये युग में प्रवेश करने जा रहा है और ये पूरे एशिया में चीन की प्रगति को नियंत्रित करेगा. हालांकि अगर बुलेट ट्रेन की बात करें तो ये सब नतीजों के मुकाबले, बस हाव भाव में ही ज्यादा दिखा.

ये भारत है और यहां जुगाड़ यानी नियमों का उल्लंघन करके भी काम करो वाले तरीके ने जापान के समय पर और तेज ढंग से काम करने के तरीके को चुनौती दी. बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट के मामले में ये स्पष्ट रूप से दिखाई देता है.

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आधिकारिक तौर पर गुजरात सरकार ने कहा है कि 360 हेक्टेयर का 99 प्रतिशत 500 ऑड किलोमीटर प्रोजेक्ट के लिए जरूरी होगा जिसे उसने अधिगृहित कर लिया है. लेकिन अगर आप ट्रेन की घोषणा का साल (2017) देखें तो इसकी प्रगति मुश्किल से ही मोदी के 'वी केन डू' वाली छवि से मेल खाती है.

वहीं ट्रैक के महाराष्ट्र स्ट्रेच में जितनी जमीन चाहिए सितंबर 2021 तक उसका सिर्फ 30 प्रतिशत ही अधिगृहित किया गया. हालांकि पिछले महीने के अपडेट ये दिखाते हैं कि ये 62 प्रतिशत हो चुका है.

अभी लंबी दूरी तय करनी है

प्रोजेक्ट की कुल लंबाई की अनुमानित लागत हाल में 17 बिलियन डॉलर लगाई गई थी, जिसका 156 किलोमीटर हिस्सा महाराष्ट्र, 348 किलोमीटर गुजरात और करीब 5 किलोमीटर दादरा नगर हवेली में होगा.

मोदी से दूर जा चुकी, कभी सहयोगी रही शिव सेना, जो अभी मुंबई में सत्ता में है, साफ तौर पर काम में रुकावट डालने की कोशिश करेगी. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने साल 2020 में बुलेट ट्रेन को एक सफेद हाथी बताया था. हालांकि 18 महीने बाद उनका रवैया थोड़ा बदला, जब उन्होंने मुंबई-नागपुर बुलेट ट्रेन के काम को प्रोत्साहित किया. हालांकि इस बात पर उन्हें हैरानी भी थी कि कैसे ये भारत के पहले बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट के तौर पर अहमदाबाद लिंक से पहले आएगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले महीने कहा था कि अहमदाबाद लिंक मुंबई शहर को सपनों का शहर बना देगी. ये ठाकरे को एक विनम्र इशारा भी था कि अगर वो बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट में किसी तरह की रुकावट डालने या विरोध करने के बारे सोच रहे हैं तो ऐसा न करें.

यहां ये भी ध्यान देने वाली बात है कि इसी शिव सेना ने कभी Enron power project को बर्बाद कर दिया था जिससे कि वो अपने तत्कालीन सहयोगियों और तब के विरोधियों को निशाना बना सके. ये थे, शरद पवार और कांग्रेस पार्टी.

जब किसानों को इंडस्ट्रीज और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए खेती के लायक जमीन छोड़नी पड़ती है, तब इसकी एक बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ती है. खास तौर से तब जब मोदी के नेतृत्व वाले चुनावी बुलडोजर जैसी एक पॉलिटिकल बुलेट ट्रेन, ठाकरे के उग्र मराठा गौरव को फीका करने की कोशिश करे.

पश्चिमी भारत में Shinkansen (जापानी हाई स्पीड रेल नेटवर्क) प्रोजेक्ट की प्रगति या इसमें कमी को देखें तो इसमें और हरियाणा-राजस्थान इंडस्ट्रियल कॉरिडोर में प्रगति के बीच अंतर है. जहां मोदी के लिए प्रतिकूल तरीके से, कांग्रेस पार्टी ने टोक्यो का हाथ ज्यादा अच्छी तरह थाम रखा है.

भारत में अर्थशास्त्र भी राजनीति है

चूंकि जापान की इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी (JICA) बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट के लिए 80 प्रतिशत से ज्यादा फंडिंग कर रही है. ये साफ है कि दूसरे कई महत्वाकांक्षी इंडस्ट्रियल वेंचर्स की तरह ही यहां भी समस्या राजनीति है, पैसा नहीं. ये बहुत ज्यादा महाराष्ट्र के Enron power project जैसा है जिसका काम 1990 के दशक में बंद हो गया. इसे साल 1991 में भारत के आर्थिक सुधार कार्यक्रम के ग्लोबल शो पीस के तौर पर प्रस्तुत किया गया था.

बुलेट ट्रेन को इस साल तक शुरू हो जाना चाहिए था, लेकिन अब इस प्रोजेक्ट के बस एक छोटे से 63 किलोमीटर के गुजरात के हिस्से के पूरा होने के लिए 2026 का इंतजार करना होगा और संभवत: मोदी इसका जिक्र 2024 के चुनावों में नहीं कर पाएंगे. हालांकि हाल में ऐसे दावे किए गए हैं कि प्रोजेक्ट अच्छी प्रगति कर रहा है.

जैसा कि हम सभी जानते हैं, गुजरात का हिस्सा शायद इसलिए अच्छी तरह से विकसित होगा जिससे बीजेपी को चुनावों में अपने अलंकारिक भाषणों के लिए एक हथियार मिल सके.

डिटेल चाहे जो भी हो, इसके पूरा होने की गति और इसकी लागत दोनों पर किसान-राजनीति से जुड़े मुद्दों और भारत की जमीनी हकीकत का मिलाजुला असर पड़ा है.

वैश्विक मामलों में मोदी की एक्ट ईस्ट नीति देखने में अच्छी लगती है, लेकिन नेशनल हाई स्पीड रेल कोऑपरेशन लिमिटेड के बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट को एक्ट वेस्ट पॉलिसी में कमी की वजह से भारत के अपने ही राज्य महाराष्ट्र में काफी नुकसान हुआ है.

इसका मतलब: भारत में अर्थशास्त्र कई बार राजनीति के बारे में होता है और ये खास तौर पर तब होता है जब किसान और उनके सहयोगी, चाहे दूर जा चुके हों या मौजूदा, वो इसमें शामिल होते हैं.

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