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इमरान खान का खुद की गिरेबान में न झांकना, बिगाड़ रहा भारत-पाकिस्तान का रिश्ता

इमरान खान को पाकिस्तान और भारत के बीच के बुनियादी अंतर को समझने की जरूरत है, लेकिन संभावना नहीं है कि वह ऐसा करेंगे

विवेक काटजू
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>इमरान खान का खुद की गिरेबान में न झांकना, बिगाड़ रहा भारत-पाकिस्तान का रिश्ता</p></div>
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इमरान खान का खुद की गिरेबान में न झांकना, बिगाड़ रहा भारत-पाकिस्तान का रिश्ता

(फोटो- अलटर्ड बाई क्विंट)

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पाकिस्तान (Pakistan) से ढाका के औपचारिक रूप से अलग होने और बांग्लादेश की मुक्ति की पचासवीं वर्षगांठ से एक हफ्ते पहले, 9 दिसंबर को, पाक के प्रधानमंत्री इमरान खान (Imran Khan) ने 'इस्लामाबाद कॉन्क्लेव 21' को संबोधित किया.

यह कार्यक्रम इस्लामाबाद स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रैटेजिक स्टडीज (ISSI) द्वारा दक्षिण एशिया में शांति और समृद्धि के महत्व पर जोर देने के लिए आयोजित किया गया था. इस मौके पर इमरान खान, जो ISSI के संरक्षक हैं, खुद को मोदी सरकार और उसकी विचारधारा पर अपनी चिर-परिचित आलोचनाओं से नहीं रोक सके.

इमरान खान को शांत और खुद की गिरेबान में झांकना चाहिए था

यहां पीएम इमरान खान पाकिस्तान पर आई सबसे बड़ी आपदा के कारणों को देखने के लिए आत्मावलोकन कर सकते थे. इस मौके पर वो अपने ही नागरिकों के खिलाफ पाकिस्तानी सेना के नरसंहार पर दुख व्यक्त कर सकते थे, सैन्य शासन की बुराइयों के खिलाफ भी बोल सकते थे. लेकिन इसके लिए जिस साहस की आवश्यकता होती, वह स्पष्ट रूप से इमरान खान के पास नहीं है. इसलिए, उन्होंने संघ परिवार और मोदी सरकार पर निशाना साधा.

इमरान खान के भाषण पर ISSI के प्रेस रिलीज के अनुसार "उनका (इमरान खान) का विचार था कि आरएसएस और हिंदुत्व की विचारधारा खुद भारतीयों के लिए एक त्रासदी है और इसने देश को अभूतपूर्व तरीके से हाशिए पर धकेल दिया है".

दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तान के पीएम ने उस समय भारत में वैचारिक विकास पर अपना ध्यान केंद्रित किया, जब पाकिस्तान के सियालकोट में लोगों की भीड़ ने कथित रूप से ईशनिंदा करने के लिए एक श्रीलंकाई इंजीनियर की हत्या कर दी और उसके शरीर को जला दिया. यहां तक कि समूह के नेताओं ने जले हुए शरीर के साथ सेल्फी भी ली थी.

पाकिस्तान को भारत पर नहीं, खुद पर ध्यान देने की जरूरत

इमरान खान को दूसरों पर उंगली उठाने के बजाय अपने देश के कट्टरपंथी बर्बरता की हद तक उतरने पर ध्यान देना चाहिए. लेकिन उनसे ऐसा करने की शायद ही उम्मीद की जा सकती है, क्योंकि पाकिस्तान ने भारत और अफगानिस्तान में अपनी विदेश नीति के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए चरमपंथियों और आतंकवादियों का इस्तेमाल किया है.

इमरान खान को पाकिस्तान और भारत के बीच इस बुनियादी अंतर को समझने की जरूरत है, लेकिन संभावना नहीं है कि वह ऐसा करेंगे. जाहिर है, इस साल के मध्य में जब भारत और पाकिस्तान तनाव कम करने के लिए आगे बढ़ रहे थे, उस का संक्षिप्त अंतराल अब समाप्त हो चुका है.

इस साल के मध्य में उन्होंने संघ परिवार के खिलाफ अपनी उग्रता पर विराम लगा दिया था लेकिन आरएसएस और हिंदुत्व के खिलाफ इमरान खान की वापसी इस आकलन का समर्थन करती है.

खान ने अपने भाषण में यह भी कहा कि बीजेपी सरकार के "धार्मिक राष्ट्रवाद" के कारण भारत-पाकिस्तान के बीच वार्ता संभव नहीं है. यह विडंबना ही है कि जिस देश का निर्माण ही "धार्मिक राष्ट्रवाद" के आधार पर हुआ है, उसका प्रधानमंत्री भारत-पाकिस्तान वार्ता की संभावना पर ऐसा तर्क दे रहे हैं.

भारत की जनता भारत के मुद्दों का समाधान करेगी

किसी भी स्थिति में, जब तक यह संविधान के मूल मूल्यों के अनुरूप हो, तब तक भारतीय लोगों को ही देश के वैचारिक रंग का फैसला करना है. यह एक गंभीर प्रतिबद्धता है जो किसी भी शिथिलता को स्वीकार नहीं करती है. इसने मानते हुए भी सभी समाजों और राज्यों की सार्वजनिक संस्कृति समय के साथ बदलती रहती है. परिवर्तन की यह प्रक्रिया हो रही है और भारत में भी होती रहेगी.

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इसके अलावा जब तक किसी देश के अंदरूनी विकास का किसी अन्य देश पर प्रभाव नहीं पड़ता है, तब तक वो विशुद्ध रूप से घरेलू और उसके संप्रभु अधिकार क्षेत्र में मामले हैं. निश्चित रूप से देश के पास अपने नागरिकों के अधिकारों के उल्लंघन को संबोधित करने के लिए सुधारात्मक तंत्र है और अधिकारों की स्थिति में कोई व्यापक हनन नहीं है.

यह तथ्य है कि भारतीय लोकतंत्र में शिकायतों के निवारण के लिए तंत्र है जबकि सैन्य-प्रभुत्व वाले पाकिस्तान में दण्ड से मुक्ति की संस्कृति प्रचलित है.

पाकिस्तान के साथ वार्ता पर भारत का स्थिर स्टैंड

पाकिस्तान के साथ बातचीत पर बीजेपी सरकार का स्टैंड पूरी तरह जायज है. यह पिछली सरकारों की तरह स्थिर स्टैंड है कि: जब तक पाकिस्तान, चाहे उसका नेतृत्व कोई भी हो, आतंकवाद को नहीं छोड़ेगा, भारत वार्ता में शामिल नहीं होगा. यह एक तार्किक स्टैंड है और यह अंतरराष्ट्रीय कानून में भी निहित है.

हालांकि भारत के पिछले प्रधानमंत्रियों और पीएम मोदी ने भी, 2016 की गर्मियों तक, पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए अपवाद बनाए. 2016 के बाद पीएम मोदी ने औपचारिक रूप से इस नीति का पालन किया है लेकिन पाकिस्तान के साथ बातचीत बैक चैनल पर जारी है.

इमरान खान ने भारत-पाकिस्तान संबंधों पर पाकिस्तान के पारंपरिक दृष्टिकोण को ही दोहराया है. उन्होंने कहा "कश्मीर ने दक्षिण एशिया की शांति को बंधक बना रखा है.. हम उम्मीद करते हैं कि भारत के पास ऐसी सरकार होगी जो तर्क और विवेक के साथ संघर्ष को हल कर सकेगी. यह भारत और पाकिस्तान के बीच एकमात्र समस्या है. आखिरी मिनट तक पाकिस्तान बातचीत के जरिए समस्या का समाधान निकालने की कोशिश करेगा.”

कश्मीर पर इमरान खान का विरोधाभास और ढीली चेतावनी

इमरान खान का यह बयान एक बुनियादी विरोधाभास भी दिखाता है- अगर मोदी सरकार के साथ बातचीत से इनकार किया जा रहा है तो पाकिस्तान किसके साथ "आखिरी मिनट तक" बातचीत करेगा? इसके अलावा यह एक चेतावनी को सामने लाता है, जिसे निश्चित रूप से भारत को केवल अनदेखा करना चाहिए.

तथ्य यह है कि कश्मीर पाकिस्तान के इस विचार का संकेत है कि भारत एक स्थायी दुश्मन है. कुछ पाकिस्तानी स्वीकार करते हैं कि भले ही "कश्मीर विवाद" का समाधान हो जाए, दोनों पड़ोसियों के द्विपक्षीय संबंध समस्याग्रस्त बने रहेंगे, क्योंकि वे इस बात पर जोर देते हैं कि भारत आधिपत्यवादी है. दरअसल जनरल परवेज मुशर्रफ ने पाकिस्तान के सेना प्रमुख बनने के तुरंत बाद ऐसा कहा था.

यह भी दिलचस्प है कि इमरान खान चाहते हैं कि कश्मीर मुद्दे को हल करने के लिए "तर्क और विवेक" का सहारा लिया जाए. निश्चित रूप से पाकिस्तान ने कभी भी कश्मीर पर विवेक का प्रदर्शन नहीं किया है. यह अपना ही नुकसान करते हुए इसके प्रति जुनूनी रहा है. दूसरी तरफ जहां तक ​​तर्क का सवाल है, पाकिस्तानी रुख इससे दूर रहा है. पाकिस्तान में धार्मिक उग्रवाद और कट्टरपंथ की मजबूती के साथ, भारत के प्रति अपने दृष्टिकोण में पाकिस्तान के 'विवेकशील और तार्किक' बनने की कल्पना करना असंभव है.

(लेखक विवेक काटजू विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव (पश्चिम) हैं. उनका ट्विटर हैंडल @VivekKatju है. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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