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सिक्किम: भारतीय लेफ्टिनेंट ने चीनी मेजर को एक मुक्के में गिरा दिया

दास को उनकी बहादुरी के लिए शाबाशी तो मिली, लेकिन साथ ही ‘ज्यादा बड़ा बखेड़ा’ खड़ा करने के लिए डांट भी सुननी पड़ी.

सुबीर भौमिक
नजरिया
Updated:
उनकी बहादुरी के लिए शाबाशी तो मिली, लेकिन साथ ही ‘ज्यादा बड़ा बखेड़ा’ खड़ा करने के लिए डांट भी सुननी पड़ी.
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उनकी बहादुरी के लिए शाबाशी तो मिली, लेकिन साथ ही ‘ज्यादा बड़ा बखेड़ा’ खड़ा करने के लिए डांट भी सुननी पड़ी.
(फोटोः Altered By Quint)

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सिक्किम के मुगुथांग में जब भारतीय सेना के युवा लेफ्टिनेंट ने चीनी सेना के मेजर के नाक पर मुक्का मारकर उसकी नाक से खून निकाल दिया, दोनों तरफ तनाव उस हद तक पहुंच गया, जिसकी उम्मीद अधिकारियों को भी नहीं थी.

पिछले हफ्ते अधिकारियों की एक टुकड़ी ने मुगुथांग में चीनी सेना के अतिक्रमण को रोका था, और चीनी अधिकारी की वो चीख उन्हें नागवार गुजरी जब उसने कहा, ‘यह (सिक्किम) तुम्हारी जमीन नहीं है, यह भारत का हिस्सा नहीं है... इसलिए तुम लोग वापस जाओ.’

फौजियों के परिवार में पले बढ़े युवा लेफ्टिनेंट, उनके दादा राजशाही सेना और भारतीय वायु सेना से रिटायर्ड थे और पिता भारतीय सेना में कर्नल थे, को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ.

‘क्या? सिक्किम हमारा हिस्सा नहीं है? तेरी बला से!’ वो भी पलट कर चिल्लाए. फिर, जैसे ही चीनी सेना का एक मेजर दुस्साहस कर उनके वरिष्ठ अधिकारी, एक कैप्टन, की तरफ बढ़ा, उन्होंने उस पर छलांग लगा दी और उसके मुंह पर जोर का मुक्का जड़ दिया.

बहादुरी के लिए शाबाशी तो मिली, लेकिन साथ ही ‘ज्यादा बड़ा बखेड़ा’ खड़ा करने के लिए डांट भी सुननी पड़ी.

चीनी मेजर वहीं धड़ाम से गिर गया और उसका नेम टैग निकल आया जो कि अपने साथ लाने के लिए एक बेहतरीन निशानी हो सकती थी, लेकिन भारतीय सेना के युवा लेफ्टिनेंट ने उसे वहीं छोड़ दिया, जब उनके साथियों ने उन्हें पकड़कर पीछे खींचा.

बड़े झगड़े के लिए चीनी को उकसाने पर अपने सीनियर अधिकारी से डांट सुनने और कोलकाता और सुकना में अपने कमांड और डिवीजनल हेडक्वॉर्टर से बधाई पाने के बाद, उनको और सराहना की उम्मीद थी. लेकिन खराब मौसम की वजह से सीनियर कमांडर्स मुगुथांग नहीं पहुंच सके.

कहा जाता है कि आर्मी चीफ जनरल एम एम नरवाणे ने भी इस ‘लड़के’ को देखने की इच्छा जताई है.

इस बीच, उनको कोई अफसोस नहीं है, हालांकि वो थोड़े निराश हैं कि उन्हें मोर्चे से थोड़ी दूर एक जगह पर बुला लिया गया है. उन्हें सिर्फ एक बात की राहत है कि उनके सैनिकों को चीनी अधिकारी को सही सबक सिखाने का ये तरीका बहुत पसंद आ रहा है.

एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘वो अपने टुकड़ी का हीरो है – वो देखने में छोटा है, लेकिन बेहद आक्रामक है.’

मैं उसका का फोन नंबर हासिल नहीं कर सका, क्योंकि वो फॉरवर्ड पोस्ट पर तैनात हैं और उनके अधिकारी और रिटायर्ड कर्नल पिता मीडिया से इसे साझा नहीं करना चाहते हैं.

सिक्किम में तैनात एक कर्नल ने मुझे सलाह दी कि ‘मामले को बहुत ज्यादा हवा ना दी जाए, क्योंकि इससे चीनी अपमानित महसूस करेंगे, और आगे और मुश्किलें खड़ी करेंगे.’

सुकना में 33वें कॉर्प के हेडक्वॉर्टर में तैनात एक ब्रिगेडियर ने मुझे बताया कि ‘चुनिंदा लक्ष्य’ को निशाना बनाना चीनी सेना की आदत है.

इस मामले में पद-प्रतिष्ठा को लेकर सजग रहने चीनी अधिकारी ‘चीन के बड़े मेजर’ की पिटाई के लिए ‘भारत के छोटे लेफ्टिनेंट’ को निशाना बना सकते हैं (मतलब एक जूनियर के सीनियर अधिकारी को चोट पहुंचाने पर).

उनके पिता, कर्नल (रिटायर्ड), ने भी ये कहते हुए मीडिया से बात करने से मना कर दिया कि इससे उनके ‘बेटे के करियर को नुकसान’ पहुंच सकता है.

सैनिकों और अधिकारियों में गोपनीयता का ये झुकाव इतना मजबूत होता है कि रिटायरमेंट के बाद भी आसानी से नहीं जाता, कर्नल को इस बात की चिंता है कि उनके बेटे पर मीडिया का फोकस वरिष्ठ अधिकारियों को परेशान कर सकता है, क्योंकि वो चीन के साथ तनाव को कम करना चाहते हैं और मामले को आगे बढ़ाना नहीं चाहते.
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जब पिता ने पहाड़ की चोटी पर कब्जा कर लिया

लेकिन कर्नल, जो कि अपने बेटे की तरह खुद भी असम रेजिमेंट के अधिकारी थे, अपने दिनों को याद करते हैं, जब उन्होंने जनरल के. सुंदरजी के ‘ऑपरेशन फॉल्कन’ के दौरान समदोरोंग चू में एक पहाड़ की चोटी पर कब्जा कर लिया था. आज उस पहाड़ की चोटी को ‘आशीष टॉप’ कहा जाता है.

‘मेरी बेटी, जो कि सेना में लीगल ऑफिसर है, ने 2018 में ‘आशीष टॉप’ की चढ़ाई की और स्थानीय कमांडर ने मुझे फोन कर मुझसे बात की. वो उस ऑफिसर से बात करना चाहते थे, जिसके नाम की पहाड़ी चोटी की वो रक्षा कर रहे थे,’ 

कर्नल ने जोर देकर कहा, ‘हम फौजी अपने पुराने दिनों की बात तो कर सकते हैं, लेकिन अपने वर्तमान की नहीं, इसलिए उसको छोड़ दो.’ ‘ये चीनी कोई बहादुर फौजी नहीं होते, उन्हें कई चीजों का फायदा मिलता है, सैन्य तंत्र, हथियार, घाटी और संचार. लेकिन जब सिर्फ हौसले और ताकत, प्रतिबद्धता और देशभक्ति की बात आती है, वो हमारी बराबरी कभी नहीं कर सकते,’ कर्नल बस इतना कहने को तैयार थे.

‘हमने पहाड़ की चोटी पर कब्जा करने के बाद उन्हें वहां से खदेड़ दिया.. मशीन गन की गोलियों के बीच वो हमारे बहादुर फौजियों के हमले को देखकर हैरान थे. वो ये सब देखकर डर गए और भाग खड़े हुए,

बेटे के बारे में पूछे जाने पर वो सिर्फ इतना कहते रहे, ‘मेरे पास उसका फोन नंबर नहीं है’ और ‘आप उसके सीनियर ऑफिसर्स से बात कर लें.’

‘मैं सेना के बारे कोई भी जानकारी अपने सोशल मीडिया पर साझा नहीं करता,’ उनके फेसबुक पेज पर लिखा था.

चीनी मेजर से टक्कर लेने वाले युवा फौजी की हर तरफ तारीफ

हालांकि कूटनीतिक वजहों से भारतीय सेना ने जो किया उस पर खुलकर तालियां नहीं बजा सकती और पूरे प्रकरण को ज्यादा तवज्जोह नहीं देना चाहेगी, खुद से बड़े चीनी मेजर को टक्कर देने वाले युवा ऑफिसर की फौज में खूब तारीफ हो रही है.

‘हमें ऐसे ही जूनियर कमांडर की जरूरत है. ऐसे जांबाज ऑफिसर्स की हमारी बहुत पुरानी परंपरा है, जो कि युद्धभूमि में भारतीय सैनिकों का नेतृत्व करते हैं. विक्रम बत्रा का ‘दिल मांगे मोर’ आपको याद होगा,’ प्रबल दासगुप्ता ने कहा, जो कि ‘वाटरशेड’ किताब के लेखक हैं. इस किताब में लिखा है कैसे 1967 में नाथु ला में चीनी सैनिकों से सीमा विवाद पर हुई जंग से 1962 में चोट खा चुकी भारतीय सेना का आत्मविश्वास लौट आया और हम 1971 में पाकिस्तान से युद्ध जीतने में कामयाब रहे.

‘हमारे लड़के चीनी सेना से ज्यादा मजबूत और आक्रामक हैं. 1962 में भी उन्होंने दुश्मन के पसीने छुड़ा दिए. 1962 में रेजांग ला की जंग के हीरो मेजर शैतान सिंह को मत भूलिए. विकट परिस्थितियों में लड़कर जान देने का हमारे ऑफिसर्स और जवानों का पूरा लंबा इतिहास है.’ 
प्रबल दासगुप्ता, ‘वाटरशेड’ के लेखक

दासगुप्ता भी भारतीय सेना के पूर्व मेजर हैं, जो कि अभी कॉरपोरेट कंसलटेंट का काम करते हैं.

लेफ्टिनेंट के दादा, ने पहले राजशाही सेना और उसके बाद भारतीय वायु सेना में अपनी सेवा दी, वो मास्टर वॉरंट ऑफिसर के पद से सेवानिवृत हुए. उनके पिता, कोलकाता के सेंट जेवियर कॉलेज से स्नातक की डिग्री लेने के बाद, 1970 के आखिरी सालों में सेना में शामिल हुए और ‘ऑपरेशन फॉल्कन’ से अपनी यूनिट का सम्मान बढ़ाया.

उनकी बहन, कानून की पढ़ाई में स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद, अभी भारतीय सेना में लीगल ऑफिसर हैं और हैदराबाद में तैनात हैं. उन्होंने ‘आशीष टॉप’ की चढ़ाई की, और 2018 में 14,000 फीट की ऊंचाई से अपने पिता से फोन पर बात की.

लेफ्टिनेंट ने, बेंगलुरू से बी. टेक. करने के बाद, भारतीय सेना को चुना और 2019 में सेना में शामिल हो गए. पश्चिम बंगाल की मीडिया में इस परिवार के बारे में खूब लिखा जाता है, जहां विरले ही ऐसे परिवार हैं जिनकी तीन-तीन पीढ़ियों ने सेना में अपनी सेवाएं दी हो.

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Published: 12 May 2020,11:32 AM IST

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