मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019केंद्र और राज्य स्तर पर भारत के कर्ज के आंकड़े एक उभरते संकट की ओर कर रहे हैं इशारा

केंद्र और राज्य स्तर पर भारत के कर्ज के आंकड़े एक उभरते संकट की ओर कर रहे हैं इशारा

बढ़ते खर्च से तेज विकास हो रहा है, लेकिन जरूरी वेलफेयर खर्च की कीमत पर.

दीपांशु मोहन
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>केंद्र और राज्य स्तर पर भारत के कर्ज के आंकड़े एक उभरते संकट की ओर कर रहे इशारा</p></div>
i

केंद्र और राज्य स्तर पर भारत के कर्ज के आंकड़े एक उभरते संकट की ओर कर रहे इशारा

(Altered by Quint Hindi)

advertisement

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने हाल ही में भारत के साथ अपना आर्टिकल IV परामर्श पूरा किया और अपने कार्यकारी बोर्ड की रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें भारत की बढ़ती ऋण समस्या की चर्चा की गई है.

इसके साथ-साथ “अस्थिर मुद्रास्फीति” का दौर, “कम रोजगार दर” (खासतौर से अनौपचारिक क्षेत्र में ) और ग्लोबल सप्लाई चेन में संभावित रुकावट, “भारत का बढ़ता राजकोषीय दबाव” अर्थव्यवस्था के लिए चिंताजनक है. रिपोर्ट पर सरकार की प्रतिक्रिया उम्मीद के मुताबिक, संस्था की चेतावनी का खंडन करने की ही थी.

IMF ने जलवायु तनाव और प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने के लिए देश की क्षमता बढ़ाने के लिए खासतौर से भारत के प्राइवेट सेक्टर से भरपूर निवेश की जरूरत पर जोर दिया है. सरकार की तरफ से दी गई प्रतिक्रिया में जोर देकर कहा गया है कि इसके सॉवरेन डेट जोखिम सीमित हैं क्योंकि इसका ज्यादातर हिस्सा घरेलू मुद्रा में है.

IMF में भारत के कार्यकारी निदेशक के.वी. सुब्रमण्यन IMF के दावे को चुनौती देते हुए कहते हैं कि ऐतिहासिक झटकों के बावजूद, भारत के GDP के मुकाबले सरकारी कर्ज अनुपात में मामूली उतार-चढ़ाव रहा है. यह तर्क IMF द्वारा भारत की विनिमय दर व्यवस्था को “स्थिर व्यवस्था” में पुनर्वर्गीकृत करने पर आधारित है.

सरकारी ऋण-GDP विकास दर

2016-2020 के दौरान भारत की विकास स्थिति अपेक्षाकृत कमजोर और स्थिर रही है. 2020 के लॉकडाउन के दौरान मैक्रो-विकास दर बुरी तरह लड़खड़ा गई और फिर एक बार COVID पाबंदियां हटने के बाद धीरे-धीरे मामूली बढ़ोत्तरी हुई.

औसतन, वास्तविक विकास दर अभी भी डेमोग्राफिक और निवेश क्षमता से नीचे की दर पर बनी है. हालांकि, GDP के स्तर पर मैक्रो-गवर्नमेंट डेट, जो पहले ही 2015 से बढ़ रहा था, 2018 के बाद से और ज्यादा बढ़ गया है.

गवर्नमेंट डेट-जीडीपी विकास दर

(फोटो- लेखक)

अगर उधार इसी स्तर पर रहा, जिसकी इस में मामले में संभावना लगती नहीं है, तो भी छोटे विभाजक (GDP स्तर) के साथ ऐसा अनुमान है कि नेट-डेट बढ़ेगा. IMF डेटा (ऊपर की तालिका 1 देखें) इंगित करता है कि कैसे सरकारी ऋण 82.4 फीसदी के चेतावनी स्तर पर पहुंच गया है, और कोई भी सरकारी ऋण जो GDP के 80% से ज्यादा है, आर्थिक संकट की शब्दावली में ‘रेड’ जोखिम मार्कर का इशारा देता है.

सामाजिक और आर्थिक संकेतक

(फोटो- लेखक)

ये संख्याएं उस डेटा पर पर आधारित हैं जो IMF द्वारा भारत के अपने सरकारी स्रोतों से हासिल किया गया है.

बढ़ते ‘राजकोषीय घाटे’ से ‘छिपे हुए ऋण’ सामने आने की संभावना हमेशा बनी रहती है, जो कि आधिकारिक आंकड़ों में ‘चुपके से छिपाया गया’ और ‘जिसका हिसाब नहीं दिया गया’ हो सकता है.

‘छिपे हुए ऋण’ का उभरना आमतौर पर किसी भी अर्थव्यवस्था को तबाह कर सकता है. भारत अभी उस हालत में नहीं पहुंचा है, लेकिन चेतावनी भरे सरकारी आंकड़ों के बीच अगर किसी भी समय अर्थव्यवस्था पर कोई बड़ा बाहरी झटका लगता है तो ऐसा हो सकता है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

सरकारी ऋण-बाह्य ऋण-घरेलू ऋण

ऐसा नहीं है कि पिछले 10 वर्षों में भारत में सिर्फ सामान्य सरकारी ऋण ही बढ़ा है.

बाह्य ऋण (external debt) के स्तर में भी निरंतर वृद्धि देखी गई है (केवी सुब्रमण्यन के दावे के उलट), जैसा कि नीचे ग्राफ में देखा जा सकता है, घरेलू ऋण के स्तर में क्रमिक लेकिन लगातार बढ़ोत्तरी के साथ, ऐसे समय में जबकि वास्तविक आय/मजदूरी प्रतिगामी रूप से स्थिर रही है और उपभोक्ता कीमतें/मुद्रास्फीति उच्च पर बने हुए हैं (जो खासकर निम्न/मध्यम आय वाले लोगों में अधिक कर्ज लेने की स्थितियों को जन्म देती हैं).

GDP की तुलना में भारत का घरेलू ऋण/GDP की तुलना में भारत का सरकारी ऋण

(फोटो- लेखक)

बढ़ते विदेशी कर्ज के लिए किसी देश के लिए रिजर्व करेंसी बैलेंस की ज्यादा मजबूती होनी चाहिए है, लेकिन यह हाल के दिनों में भारत के भुगतान संतुलन की स्थिति के लिए चिंता का विषय रहा है.

भारत का कुल विदेशी ऋण/GDP की तुलना में भारत का सरकारी ऋण

(फोटो- लेकख)

RBI ने रुपये के मूल्य में गिरावट के बावजूद मुद्रा बाजार में विनिमय दर स्थिर बनाए रखने के लिए डॉलर में बिकवाली के लिए हर मुमकिन कोशिश की है.

अगर देश में विदेशी मुद्रा के आने वाले प्रवाह तंत्र को देखा जाए है, तो मैक्रो-FDI स्तर (तालिका 1 में IMF डेटा के अनुसार) कमोबेश स्थिर बना हुआ है, भले ही विदेशी पोर्टफोलियो के आंकड़े भारत के लिए बेहद अस्थिर बने हुए हैं, जो वृद्धि का संकेत दे रही है. यह धन के इनफ्लो/आउटफ्लो और FDI के माध्यम से दीर्घकालिक स्थिर निवेश को आकर्षित करने के लिए उभरते बाजार की विश्वसनीयता में कमी को दर्शाता है.

(फोटो- लेखक)

सरकारी ऋण-सरकारी व्यय-उच्च सैन्य व्यय

अगर कोई मैक्रो-सरकारी खर्च के साथ बढ़ते सरकारी ऋण स्तर में रुझानों (पिछले 10 वर्षों में) के सहसंबंध को देखता है, तो उसे दो चीजें दिखाई देती हैं.

  • ‘पूंजी निर्माण’ के लिए सरकारी खर्च का बढ़ता स्तर सही है (जो अब कर्ज बढ़ने के कारण सीमित उधार लेने की शक्ति के स्तर से बाधित होगा)

  • खर्च का कितना (बढ़ता) हिस्सा लगातार बढ़ते सैन्य खर्च से आनुपातिक रूप से जुड़ा हुआ है.

समस्या यह है कि बढ़ते खर्च से ज्यादा विकास हो रहा है लेकिन यह ह्यूमन कैपिटल डेवलपमेंट के लिए जरूरी सामाजिक और कल्याण व्यय की कीमत पर हो रहा है.

(फोटो- लेखक)

पिछले तीन वर्षों में कैपिटल-एक्सपेंडिचर से संचालित सरकारी खर्च को ज्यादा पूंजी निर्माण (विकास के लिए निजी पूंजी निवेश को आकर्षित करने के लिए) का मौका नहीं दिया गया है. कमजोर GFCF (ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन) में यह दिखाई देता है, और यह एक बड़ी चिंता का विषय है.

अगर सरकार बड़ा खर्च कर रही है और निजी निवेश के माध्यम से विकास को आगे बढ़ाने के लिए ज्यादा उधार ले रही है, और ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है (क्योंकि निजी निवेश अभी भी बेहद कम और कमजोर है), तो सरकार असल में खर्च पर अधिक ऋण अर्जित कर रही है और निरर्थक खर्च कर रही है और भविष्य की सरकार के संकट के समय में ज्यादा ‘उपयोगी ढंग से उधार’ न ले पाने की संभावना को खतरे में डाल रही है.

सरकारी ऋण-रोजगार और मुद्रास्फीति संकट

कम रोजगार दर और उच्च खाद्य मुद्रास्फीति स्तर के साथ उच्च ऋण स्तर किसी भी उभरती बाजार अर्थव्यवस्था के लिए सबसे खराब संभावित परिदृश्य है, खासतौर से ऐसा देश जो अपनी कामकाजी उम्र वाली आबादी के ‘डेमोग्रेफिक डिविडेंड’ हासिल करने का दावा करता है.

पिछले डेढ़ दशक में अब तक भारत की विकास की कहानी ‘रोजगार रहित विकास’ की रही है, जो काम के बड़े पैमाने पर अनौपचारिकीकरण और आकस्मिकता के एक व्यापक चरण पर आधारित है, जो एक ऐसी प्रक्रिया द्वारा हो रही है जहां कामगार सभी क्षेत्रों में परिदृश्य (यानी ‘अच्छी नौकरियों’ के अभाव में) कम-संगठित कार्य उपलब्धता की बाधाओं से जूझ रहे हैं.

(फोटो- लेखक)

(फोटो- लेखक)

मैन्युफैक्चरिंग प्रोडक्शन अभी भी कमजोर है और जहां नौकरियों की संभावना अधिक है यानी सेवाओं में, बड़ी संख्या में श्रमिक/कर्मचारी सरप्लस अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा की प्रकृति के चलते, ऊंचे वेतन के मामले में कम अवसर पैदा हो रहे हैं.

कामगार ऐसे में कम मूल्य वाली नौकरियों के लिए समझौता कर रहे हैं, जिनमें से काफी ‘अनौपचारिक’ और ‘औपचारिक’ काम के बीच का होता है.

(फोटो- लेखक)

यह सब बढ़ते सरकारी (या मैक्रो) ऋण से कैसे जुड़ता है?

किसी भी बड़े उभरते बाजार वाले देश की तरक्की और लोगों को गरीबी से उबारते हुए ऊंची विकास की आकांक्षा रखने के लिए, उसके वित्तीय क्षेत्र में एक बड़ी ऋण-विस्तार योजना के साथ-साथ संकटों, बाहरी झटकों या विघटनकारी प्रतिक्रियाओं के लिए एक बड़ी उधारी की जगह होना जरूरी है.

भले ही भारत के फाइनेंशियल सेक्टर में क्रेडिट बढ़ रहा है (जो विकास की संभावनाओं के लिए जरूरी है), कम विकास चक्र के बीच ऊंचा ऋण स्तर दोनों के लिए कम गुंजाइश छोड़ेगा: चाहे वह दीर्घकालिक क्रेडिट एक्सपेंशन हो या उधारी की स्थिति.

(फोटो- लेखक)

राज्यवार आंतरिक ऋण

हाल के बजट अनुमानों के अनुसार, मिजोरम मौजूदा समय में भारतीय राज्यों में सबसे ज्यादा जीडीपी के मुकाबले ऋण अनुपात से जूझ रहा है, जो कि 53% है.

इसके काफी करीब ही 44% और 47% के अनुपात के साथ क्रमशः पंजाब और नागालैंड दूसरे और तीसरे पायदान पर हैं.

(फोटो- लेखक)

ओडिशा ने सख्त राजकोषीय अनुशासन का पालन करके ऋण का निम्न स्तर बनाए रखा है. राज्य वार्षिक बजट घाटे की सीमा का पालन करता है, बढ़ी हुई ब्याज दरों को टालता है और उधार के खर्चों को कम करता है. ओडिशा के प्रदर्शन का श्रेय मुख्य रूप से धन उत्पन्न करने की क्षमता के बजाय व्यय पर उसके समझदारी भरे नियंत्रण को दिया जाता है, क्योंकि इसके लिए मौके बहुत सीमित हैं.

ओडिशा धान का एक बड़ा उत्पादक है, मगर यह पंजाब के उलट, भारी सब्सिडी लागत से बचने का इंतजाम करता है, जहां भारत के गेहूं की पर्याप्त मात्रा का उत्पादन करते समय अप्रत्याशित वर्षा पैटर्न है.

जैसा कि असम में देखा गया है, विकास परियोजनाओं के लिए ऋण में बढ़ोत्तरी वित्तीय संस्थानों और केंद्र सरकार से हासिल हुई है.

(दीपांशु मोहन, अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं और सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (CNES), जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के निदेशक हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इनके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT