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भारत के जैसी 'अराजनीतिक' सेना की चाहत पाकिस्तान के लिए सपने से कम नहीं है

क्या पाकिस्तानी आर्मी अब राजनेताओं को सुरक्षा, रणनीतिक और विदेश नीति के मसलों पर निर्णय लेने की इजाजत देगी?

विवेक काटजू
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>भारत के जैसी 'अराजनीतिक' सेना की चाहत पाकिस्तान सर्विस चीफ के पास बहुत कम है</p></div>
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भारत के जैसी 'अराजनीतिक' सेना की चाहत पाकिस्तान सर्विस चीफ के पास बहुत कम है

(फोटो: द क्विंट / हरदीप सिंह)

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27 अक्टूबर को इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस (ISPR) के डायरेक्टर जनरल इफ्तिखार बाबर और इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अंजुम ने एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस कर पाकिस्तान के राजनीतिक और रणनीतिक वर्गों के साथ-साथ मीडिया को भी चौंका दिया. यह चौंकाने वाला वाक्या इसलिए था क्योंकि बाकी की इंटेलिजेंस एजेंसियों की तरह आईएसआई ऑफिसर अकेले या संयुक्त तौर पर ओपन ब्रीफिंग नहीं करते हैं.

स्पष्ट तौर पर मीडिया कॉन्फ्रेंस का उद्देश्य इस साल पाकिस्तान में मार्च से चल रही राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान पाकिस्तान सेना विशेष रूप से आर्मी चीफ जनरल कमर बाजवा की भूमिका का बचाव करना था. पाकिस्तान में बेदखल कर दिए गए प्रधान मंत्री इमरान खान और पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (PTI) में उनके सहयोगियों ने इमरान खान को बाहर करने और प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ के नेतृत्व में पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) के गठन में सेना की भूमिका पर सवाल उठाया है.

पाकिस्तानी सेना का लगातार दावा कि वो अराजनीतिक है

पाकिस्तान सेना ने अपनी ओर से राजनीतिक संकट की शुरुआत से ही इस बात पर कायम है कि वह 'अराजनीतिक' बनी हुई है. इफ्तिखार और अंजुम ने मीडिया कॉन्फ्रेंस में बार-बार इस बात को दोहराते हुए कहा कि सेना अराजनीतिक थी और सेना ने अपनी निर्धारित संवैधानिक भूमिका तक ही सीमित रहने का निर्णय लिया था. दोनों जनरल (इफ्तिखार और अंजुम) ने इस बात पर जोर दिया कि यह बाजवा का व्यक्तिगत निर्णय नहीं था बल्कि एक संस्था के तौर पर सेना का निर्णय था. अंजुम ने यहां तक कहा कि वे अधिकारी जो संभावित रूप से '10-15' वर्षों में सेना का नेतृत्व कर सकते थे, वे भी इस निर्णय के साथ थे.

हालांकि, पीटीआई नेतृत्व ने यह सवाल किया है कि अगर सेना अराजनीतिक थी तो जनरलों के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस करना क्यों जरूरी था, क्योंकि यह वास्तव में एक राजनीतिक स्टंट था. यह एक वैलिड पॉइंट था. बाजवा का बचाव करते हुए भले ही अंजुम ने इमरान खान का नाम नहीं लिया लेकिन उन्होंने इमरान की कड़ी आलोचना की. दरअसल, मीडिया कॉन्फ्रेंस में इमरान खान के खिलाफ खुलकर बात की गई है.

यह अब पाकिस्तान के राष्ट्रीय जीवन में वास्तविक खेल है; इसलिए पीडीएम-पीटीआई कॉन्टेस्ट को लगभग पूरी तरह से इसी चश्मे से देखा जाना चाहिए. इमरान खान सेना के खिलाफ कभी ठंडे और कभी गरम पड़ रहे हैं. हालांकि, वह इस बात पर जोर दे रहे हैं कि उनकी आलोचना रचनात्मक है.

पाकिस्तान में अराजनीतिक आर्मी का क्या मतलब है?

किसी भी पाकिस्तानी ने अभी तक इस बारे में कोई सवाल नहीं किया है कि जब सेना यह दावा करती है कि वह अपनी उन्हीं गतिविधियों तक सीमित रहेगी जो पाकिस्तानी संविधान में निहित है ऐसे में सेना का वास्तव में क्या मतलब है? इस मामले में सेना ने भी यह स्पष्ट नहीं किया है कि जब वह ऐसा कहती है तब उसका क्या मलतब होता है.

कम से कम, सेना के दावों से जाहिर तौर पर यह संकेत मिलना चाहिए कि जैसा कि सेना ने पहले किया है, वह चुनी हुई सरकारों के खिलाफ तख्तापलट नहीं करेगी. एक अराजनीतिक भूमिका का मतलब यह भी होना चाहिए कि वह राजनीतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करेगी; कि सेना का कोई पसंदीदा नहीं होगा जिसे वह प्रधान मंत्री की कुर्सी पर देखना चाहेगी, लेकिन क्या यह संभव है?

पाकिस्तानी आर्मी, प्रोफेशनल और राजनीतिक दोनों तरह की फोर्स है. अब तक उसका स्वभाव यही रहा है और जरनलों के दावे के बावजूद उसके स्वभाव को बदलना आसान नहीं होगा.

एक दूसरा पहलू भी है. अपने हितों को बढ़ावा देने के लिए अपनी ओर से पाकिस्तानी राजनेता भी सेना का सपोर्ट चाहते हैं, ऐसे में पाकिस्तानी राजनेताओं के लिए भी बदलना आसान नहीं होगा. इस तरह, पाकिस्तानी सेना और पाकिस्तानी राजनेताओं के बीच सहजीवियों जैसा रिश्ता रहा है. इस रिश्ते को तोड़ना आसान नहीं होगा.

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पाकिस्तानी सेना क्या नेताओं को प्रमुखों की नियुक्ति की 'इजाजत' दे सकती है?

नीति का क्षेत्र अराजनीतिक बनने का एक अन्य महत्वपूर्ण घटक है. सभी लोकतांत्रिक देशों में निर्वाचित राजनीतिक नेतृत्व द्वारा सशस्त्र बलों को नियंत्रित किया जाता है. पाकिस्तान के संविधान में ऐसा निर्धारित है. अनुच्छेद 243 में कहा गया है कि "संघीय सरकार के पास सशस्त्र बलों का नियंत्रण होगा और उसकी कमान होगी." अनुच्छेद 244 में यह प्रावधान है कि राष्ट्रपति द्वारा प्रधान मंत्री की सलाह पर प्रमुखों (सेना के प्रमुखों) की नियुक्ति की जानी है और सशस्त्र बलों के सदस्यों को संविधान को "बनाए रखने" की शपथ लेनी होती है.

सेना द्वारा भेजे गए पात्र अधिकारियों की लिस्ट में से प्रधानमंत्रियों को एक नया प्रमुख नियुक्त करने की अनुमति देने के अलावा, सेना ने अब तक कभी भी चुनी हुई सरकार को अधिकारियों की नियुक्ति या सेना के किसी आंतरिक मामले में कोई भूमिका निभाने की इजाजत नहीं दी है.

वास्तव में, इमरान खान और बाजवा इसलिए अलग हो गए क्योंकि अक्टूबर 2021 में बाजवा ने तत्कालीन डीजी आईएसआई लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद को हटाए जाने पर आपत्ति जताई थी. क्या अराजनीतिक होने का मतलब यह है कि सेना अब राजनीतिक नेतृत्व को वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों की नियुक्ति में हस्तक्षेप करने की अनुमति देगी? या सेना को सेना प्रमुखों के नियंत्रण में संकीर्ण रखेगी?

पाकिस्तानी सेना क्या वैचारिक होना बंद कर देगी?

पाकिस्तानी सेना ने हमेशा से ही अपने आप को देश की सीमा और उसकी विचारधारा, दोनों के रक्षक के रूप में माना है. यदि यह दावा करती है कि उसने अराजनीतिक बनने का फैसला कर लिया है तो क्या अब यह राजनेताओं को वैचारिक मामलों पर निर्णय लेने के लिए छोड़ देगी? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि सभी लोकतांत्रिक क्षेत्रों में सशस्त्र बलों को वैचारिक संघर्षों से मुक्त रखा जाता है. लेकिन क्या पाकिस्तान में ऐसा संभव है?

हमेशा से पाकिस्तानी सेना ने इस बात पर जोर दिया है कि देश की सुरक्षा, सामरिक और महत्वपूर्ण विदेश नीतियों पर उसका पूरा अधिकार होना चाहिए. राजनेता इनपुट दे सकते हैं, मंत्री यह आभास देने की कोशिश कर सकते हैं कि वे नीति तय कर रहे हैं, लेकिन यह सेना ही है जो निर्णय लेती है, भले ही वे कभी-कभार बंद दरवाजों के पीछे ही क्यों न हों. वास्तव में, अधिकांश अन्य देशों में कोर कमांडर्स कॉन्फ्रेंसेस सामान्य घटनाएं हैं और शायद ही कभी मीडिया का ध्यान आकर्षित करती हैं, लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं है क्योंकि यहां जनरलों ने अपनी चर्चा को केवल सुरक्षा और आंतरिक सैन्य मामलों तक ही सीमित नहीं रखा है.

राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (NSC) में सशस्त्र बलों की भूमिका को संस्थागत मंजूरी दी गई है, जो देश की सुरक्षा से संबंधित सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था है. जहां प्रधान मंत्री एनएससी की अध्यक्षता करते हैं, वहीं विभिन्न सेना के प्रमुख और मिनिस्टर्स इस निकाय में बराबर (समान सदस्य) होते हैं.

पाकिस्तानी सेना के लिए भारतीय मॉडल बहुत ज्यादा है

वहीं दूसरी ओर भारत में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद या सुरक्षा पर कैबिनेट समिति चीफों (सेना के प्रमुखों) का उपयोग वैसे ही कर सकती है जैसे वे सिविल सेवकों का उपयोग कर सकते हैं. वे (चीफ) इन निकायों के सदस्य नहीं हैं. प्रधान मंत्री के नेतृत्व में मंत्री अपने विचार रखने के बाद कभी-कभी आपस में बातचीत करते हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि अंततः निर्णयों के लिए वे जिम्मेदार होते हैं और संसद के माध्यम से लोगों के प्रति जवाबदेह होते हैं.

पाकिस्तानी सेना क्या अब राजनेताओं को सुरक्षा, रणनीतिक और विदेश नीति के मुद्दों पर निर्णय लेने और लिए गए निर्णयों को लागू करने की इजाजत देगी? यह अराजनीतिक होने का सही मतलब होगा, लेकिन पाकिस्तान के जनरलों की मंशा यही है इस बात को लेकर संशय है.

जैसा कि इमरान खान ने 25 अक्टूबर को ऑक्सफोर्ड यूनियन को बताया था, तथ्य यह है कि अपने अस्तित्व में आने के तुरंत बाद पाकिस्तान एक सिक्योरिटी स्टेट बन गया और वहां सेना और लोकतांत्रिक सरकार के बीच कोई संतुलन नहीं रहा. नीतिगत मामलों में यह संतुलन तब तक हासिल नहीं किया जा सकता जब तक पाकिस्तान एक "सिक्योरिटी स्टेट" बना रहेगा. और यह तब तक होता रहेगा जब तक यह भारत को एक स्थायी दुश्मन मानता रहेगा.

(लेखक, विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव [वेस्ट] हैं. उनका ट्विटर हैंडल @VivekKatju है. यह एक ओपिनियन पीस है. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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