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हाल ही में कानपुर में कुछ लोगों ने एक मुसलिम ई-रिक्शा चालक को सड़क पर बेरहमी से पीटा और उससे ‘जय श्री राम’ के नारे लगवाए. इसका वीडियो वायरल हुआ और वीडियो की सबसे दर्दनाक बात यह थी कि रिक्शा चालक की छोटी सी बच्ची उससे चिपकी हुई थी और हमलावर लोगों से मिन्नतें कर रही थी कि उसके पापा को छोड़ दें. इसके बाद जैसा कि एनडीटीवी की खबरों से पता चला कि बजरंग दल वालों ने पुलिस स्टेशन के बाहर प्रदर्शन किया और वहां से तब लौटे जब पुलिस ने उन्हें ‘आश्वासन’ दे दिया.
आरोपियों को तुरंत जमानत मिल गई. उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 147 (दंगा; सजा दो साल), 323 (सामान्य चोट; सजा एक साल), 504 (शांति भंग करने के इरादे से जानबूझकर अपमान करना; सजा दो साल) और 506 (आपराधिक धमकी; सजा दो साल) के तहत मामला दर्ज किया गया था. ये जमानती धाराएं हैं. चूंकि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 41 में 2008 के संशोधनों के तहत सात साल से कम की कैद से जुड़े अपराधों में गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है, इसलिए पुलिस ने अपराधियों को छोड़कर कोई गलत काम नहीं किया. वह तकनीकी रूप से सही कर रही थी.
समस्या यहां दूसरी है. समस्या यहां यह है कि अव्वल तो कानून में दिक्कत है. उस पर, उसे लागू करने का तरीका भी ‘चुनिंदा’ है. क्योंकि पुलिस ने सीआरपीसी की धारा 107 (शांति बनाए रखने के लिए सुरक्षा) के तहत भी भीड़ के खिलाफ कार्रवाई करना उचित नहीं समझा. फिर लड़की के घर जाकर एसपी के नाटक करने से घाव भरने वाले नहीं हैं.
सोशियोलॉजिस्ट के तौर पर, और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ‘जय श्री राम’ का नारा तुलनात्मक रूप से नई प्रवृत्ति है. हिंदी पट्टी में लोग सालों से एक दूसरे का अभिवादन करते हैं तो ‘राम राम’, ‘जय राम जी की’ या ‘जय सिया राम’ कहते हैं. ‘जय श्री राम’ तो रामानंद सागर के टीवी सीरियल ‘रामायण’ से लोकप्रिय हुआ, वह भी युद्ध के बिगुल के रूप में. फिर अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन के दौरान इसका प्रचार हुआ. अभिवादन की बजाय यह राम का आह्वान बन गया, जिसमें आक्रामकता और हठधर्मिता है. जैसे युद्ध का ऐलान किया जा रहा है.
हाल ही में द वायर के रिपोर्टर याकूत अली भी तभी सुरक्षित लौट पाए, जब उन्होंने ‘जय श्री राम’ के नारे लगाए. वह नई दिल्ली के द्वारका में हज हाउस के निर्माण के खिलाफ सामूहिक प्रदर्शन को कवर करने गए थे.
जनवरी में आंध्र प्रदेश के कुरनूल के ऑटो नगर एरिया में एक मुस्लिम लड़के के साथ कथित तौर पर मार पिटाई की गई और उससे जबरन ‘जय श्री राम’ के नारे लगवाए गए. जुलाई 2019 में उन्नाव के सरकारी इंटर कॉलेज के मैदान में क्रिकेट खेलने वाले कुछ मदरसा स्टूडेंट्स को कथित तौर पर पीटा गया और उन्हें भी ‘जय श्री राम’ बोलने को मजबूर किया गया. उसी महीने, असम के बारपेटा में भी ऐसा ही हादसा हुआ. वहां कुछ मुस्लिम लड़कों पर हमला किया गया और फिर उनसे ‘जय श्री राम’, ‘भारत माता की जय’ और ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे लगाने को कहा गया.
मुंबई में फैजल उस्मान खान नाम के एक टैक्सी ड्राइवर ने भी ऐसे ही हादसे की खबर दी. 2021 में खजूरी, दिल्ली में एक आदमी को भी भी ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे लगाने को मजबूर किया गया. जून 2019 में झारखंड में तबरेज अंसारी की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई. मरने से पहले उससे ‘जय श्री राम’ और ‘जय हनुमान’ के नारे लगवाए गए. अप्रैल 2017 में एक वीडियो सर्कुलेट हुआ था (शायद पश्चिमी उत्तर प्रदेश का). वीडियो में कुछ अज्ञात लोग एक मुसलिम शख्स को कार के अंदर खींच रहे थे. उन्होंने उसे 'जय श्री राम' का नारा लगाने के लिए मजबूर किया. फिर उसे धमकाया और गालियां दीं कि वह नारा जोर से क्यों नहीं लगा रहा.
दो दृश्य हैं. एक में एक मुस्लिम शख्स को एक ‘सेक्यूलर’ कहा-सुनी की वजह से लोग पीट रहे हैं, यानी जिसमें कोई धार्मिक नजरिया नहीं है, जैसे एक छोटी मोटी सड़क दुर्घटना की वजह से पिटाई की जा रही है. दूसरे दृश्य में उसी शख्स को लोग पीट रहे हैं, वह भी किसी धार्मिक झड़प की वजह से (जैसे इंटर फेथ शादी का आरोप लगाकर, जिसे वे लव जिहाद कह सकते हैं, जबरन धर्म बदलना, या गौ हत्या वगैरह), और उसे इस बात के लिए मजबूर कर रहे हैं कि वह ‘जय श्री राम’ बोले. क्या इन दृश्यों के बीच कोई फर्क नहीं है.
वैसे हमारे देश में यह माना जाता है कि अपराध की नैतिक दुराचारित यानी मॉरल डेप्रेविटी उससे संबंधित ‘सामाजिक’ हालात पर निर्भर करती है. वासना के अपराध जैसे बलात्कार के मामले में भी कानून इस हिसाब से फैसला करता है कि यह बुरी हरकत किसने की है. बलात्कार किसी एक व्यक्ति ने किया है या सामूहिक बलात्कार है. क्या बलात्कार करने वाला जिम्मेदारी वाले या ताकतवर पद पर बैठा है. वह पुलिस अधिकारी है या लोकसेवक या फिर सशस्त्र बल का सदस्य. जेल का प्रबंधक, या जेल कर्मचारी है या रिमांड होम या कस्टडी की दूसरी जगहों, या महिलाओं या बच्चों की संस्थाओं में काम करता है. वह अस्पताल के प्रबंधन से जुड़ा है या वहां का कर्मचारी है, या कई बार अपराध कर चुका है यानी रिपीट ओफेंडर है. कानून तो एक महिला के बलात्कार या 12 साल के कम उम्र की बच्ची से बलात्कार के मामलों में भी फर्क करता है.
इसी तर्क को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार की रोकथाम) एक्ट, 1989 में भी मंजूर किया गया है. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों को सामाजिक स्तर से वंचित रखा गया है, और इसीलिए इस विषय पर जब संसद में बहस हुई, तो एक ऐसे कानून की जरूरत पर चर्चा की गई जो इन समूहों का संरक्षण करे.
बिल को पेश करते हुए सरकार ने खुद यह बात मानी थी कि मौजूदा कानून इन समूहों पर अत्याचार को रोकने में नाकाम रहे हैं. बहस के दौरान "उन गरीब और असहाय लोगों की बेहतरी, कल्याण और सुरक्षा का हवाला दिया गया था जो लंबे समय से विभिन्न अत्याचारों का शिकार हैं". इस बात की तरफ भी इशारा किया गया था कि उन पर अत्याचार होने के बावजूद कोई उनके पक्ष में सबूत देने की हिम्मत नहीं करता क्योंकि कोई भी ताकतवर लोगों से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता.
जाहिर सी बात है, किसी को गंभीर रूप से चोट पहुंचाने की धमकी देकर, उसे ‘जय श्री राम’ बोलने पर मजबूर करना अत्याचार ही है. यह पीड़ित को ‘परास्त’ करने जैसा ही है. इसका मतलब यह है कि दूसरे धर्म के लोगों ने उसे ‘शिकस्त’ दे दी, और वे लोग और उनका धर्म पीड़ित पर अपना प्रभुत्व जमा रहे हैं. उससे वह बोलने को कह रहे हैं जिसका दूसरी परिस्थितियों में शायद वह विरोध करता.
जब कोई आपके रहमो करम पर हो, और उस धमकी दी जाए कि ‘हिंदुस्तान में रहना है तो जय श्री राम कहना होगा’, या किसी को ‘जय श्री राम’ बोलने पर मजबूर किया जाए, तो इसे प्रभुत्व जमाना ही कहा जाएगा.
यानी, आज मुसलमानों के लिए भी वैसे ही हालात हैं, जैसे अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के लिए. देश भर में जो हादसे हो रहे हैं, उन्हें सिर्फ हादसे कहकर नजरंदाज नहीं किया जा सकता. अगर हम ऐसे बर्ताव के पीछे की सामाजिक ताकतों को नहीं पहचानेंगे तो हम सच्चाई से आंखें मूंदने का अपराध करेंगे. कानपुर में जब यह हादसा हो रहा था तो पुलिस कुछ ही कदम पीछे थी और उसकी मौजूदगी के बावजूद भीड़ इस घटना को अंजाम देने से पीछे नहीं हटी.
आर्टिकल 14 नाम की वेबसाइट पर जफर आफक और आलीशान जाफरी की रिपोर्ट में बताया गया है कि जंतर मंतर की हेट स्पीच के सिलसिले में धारा 188 (लोक सेवक द्वारा विधिवत आदेश की अवज्ञा), 260 (नकली सरकारी स्टाम्प को असली मानकर इस्तेमाल करना), 269 (लापरवाही से जानलेवा खतरनाक बीमारी का संक्रमण फैलना); महामारी रोग एक्ट, 1897 की धारा 3 (धारा 188 के तहत अपराध के लिए दंड) और आपदा प्रबंधन एक्ट, 2005 की धारा 51बी (सरकार द्वारा दिए गए किसी भी निर्देश का पालन करने से इनकार) के तहत मामला दर्ज किया गया था.
लेकिन आईपीसी की धारा 295ए (जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कृत्य, जिसका उद्देश्य किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को, उसके धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करना है: सजा, तीन साल) और 153 ए (धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा इत्यादि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना और सद्भाव बनाए रखने के विरुद्ध काम करना; सजा तीन साल) को लागू नहीं किया गया जोकि विशेष रूप से हेट स्पीच के लिए हैं.
ऐसे हालात के मद्देनजर, यह जरूरी है कि मुसलमानों के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार की रोकथाम) एक्ट, 1989 जैसा कानून लागू किया जाए. क्योंकि वहां भी अपराध के साथ साथ धर्म के आधार पर किसी का अपमान किया जाता है, उसे नीचा दिखाया जाता है.
मैं जानता हूं कि पुलिस का ट्रैक रिकॉर्ड दागदार है. वह पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने के लिए बदनाम है. इसलिए कानून को लागू करने से जमीनी स्तर पर बहुत मदद नहीं मिलेगी. हां, सरकार इससे कम से कम अपने इरादे को तो साफ कर सकती है.
कोई कानून जमीनी स्तर पर लागू हो, यह बहुत सी वजहों पर निर्भर करता है, जैसे स्थानीय राजनीति, पुलिस के पूर्वाग्रह, पीड़ित की सामाजिक आर्थिक स्थिति वगैरह. सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज़ के सुरभि चोपड़ा और अन्य के रिसर्च ‘एकाउंटिबिलिटी फॉर मास वॉयलेंस: एग्जामीनिंग द स्टेट्स रिकॉर्ड’ से पता चलता है कि आजादी के बाद अब तक सांप्रदायिक हिंसा में 25,628 लोगों ने अपनी जान गंवाई है लेकिन पुलिस ने हर स्तर पर बहुत ज्यादा धांधलियां की हैं.
ऐसा कानून लागू करने से मुसलिम समुदाय में यकीन जागेगा जिनका भरोसा कानून व्यवस्था में लगातार टूट रहा है.
(डॉ. एन. सी. अस्थाना एक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं. वह केरल के डीजीपी और सीआरपीएफ तथा बीएसएफ के एडीजी रह चुके हैं. वह @NcAsthana पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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