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देश इस समय जबकि 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए तैयार हो रहा है, सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज की इन्फोस्फेयर टीम की तरफ से की गई मैक्रो-डेटा विश्लेषण पर आधारित स्पेशल सीरीज का मकसद तमाम योगदान क्षेत्रों में ऑपरेशनल डायनामिक्स के क्षेत्र और सेक्टर्स में भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा का अध्ययन करना है.
पहली कड़ी में ग्रामीण अर्थव्यवस्था (rural economy) के प्रदर्शन पर नजर डालते हैं.
समग्र रूप से देखें तो कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था के तौर पर, भारत में ग्रामीण परिदृश्य समुदाय-आधारित सहकारी सिस्टम द्वारा निभाई गई बड़ी भूमिका के लिए जाना जाता है, जिसमें इसके विकास को आकार देने के लिए जिलों और गांवों में महिलाओं द्वारा संचालित सेल्फ हेल्प ग्रुप या स्वयं-सहायता समूह (SHG) भी शामिल हैं.
वैसे बेहतर प्रदर्शन वाले कृषि उत्पादन चक्र की वजह से ऐसे क्षेत्रों में वस्तुओं और सेवाओं की बढ़ी हुई अस्थायी मांग से ग्रामीण उपभोग में इस गिरावट की भरपाई हो गई, क्योंकि मानसून बेहतर था और ज्यादा लोग कृषि के कामों में लगे थे. (यह इसलिए भी हुआ क्योंकि ग्रामीण इलाकों में कोविड का फैलाव उतना बेलगाम नहीं था, जितना शहरों में था, जहां लॉकडाउन लगा था.)
इस अवधि के दौरान ग्रामीण अर्थव्यवस्था के योगदान के बावजूद, ग्रामीण आबादी के लिए स्थानीय ढांचागत समस्याएं मौजूद हैं.
इनमें बेरोजगारी और अल्प-रोजगार की ऊंची दर से लेकर ऊंची कुपोषण दर और गंभीर बुनियादी ढांचे की खामियां शामिल हैं, जो गांवों की अर्थव्यवस्था की वृद्धि और विकास में बाधा डालने के साथ ही साथ ही शहरी हालात पर भी असर डालती हैं.
नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने केंद्रीय फंड से चलने वाली कई योजनाओं से ग्रामीण क्षेत्रों में वस्तुओं और सेवाओं के वेलफेयर डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम में सुधार लाने की कोशिश की है. इसके मिले-जुले नतीजे आए हैं.
ग्रामीण आय ग्रामीण मांग का एक प्रमुख संचालक है, जिसका रोजमर्रा के कंज्यूमर गुड्स (FMCG), ऑटोमोबाइल, हाउसिंग और रिटेल सेक्टर सहित उद्योगों की एक विस्तृत श्रृंखला पर असर पड़ता है. ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोक्ता खर्च बढ़ने से मांग बढ़ती है, जिससे आर्थिक विकास का एक अच्छा चक्र बनता है.
ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली से लेकर सैनिटेशन फैसिलिटी तक जीवन की गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है, जहां स्वयं-सहायता समूहों की मदद से महिलाओं का सशक्तिकरण हुआ है.
सरकार ने ग्रामीण विकास के लिए कई योजनाएं लागू की हैं जिनसे आर्थिक विकास हुआ. इनमें शामिल हैं: महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGS), जल जीवन मिशन और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (PM-KISAN).
साल 2005 में भारत सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (MGNREGA) लागू किया.
मनरेगा कानून परिवार को एक वित्त वर्ष में कम से कम सौ दिन की मजदूरी का गारंटीशुदा रोजगार देता है, जिसमें परिवार के वयस्क सदस्य अकुशल शारीरिक काम और इससे जुड़े काम कर सकते हैं
इसका मकसद उस विशेष क्षेत्र के बुनियादी ढांचे के आधार को विकसित करने वाले कामों के माध्यम से आमदनी वाला रोजगार पैदा करके ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की रोजगार की सुरक्षा को बढ़ाना है.
योजना की बड़ी उपलब्धियों में ग्राम पंचायतों (GP) की GIS-आधारित योजना, राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम (NeFMS)/ DBT, GeoMGNREGA का लागू किया जाना, सोशल ऑडिट और क्लस्टर सुविधा परियोजना (CFP) पर जोर दिया जाना शामिल है.
योजना के तहत नई पहल में शामिल हैं:
मिशन अमृत सरोवर (Mission Amrit Sarovar): इसमें देश के हर जिले में कम से कम 75 अमृत सरोवरों (तालाबों) का निर्माण या नवीनीकरण कराया जाएगा.
जलदूत ऐप (Jaldoot App): यह ऐप साल में दो बार हर गांव का जल स्तर मापता है. शिकायतों की रिपोर्ट करने के लिए कुल 505 ‘लोकपाल’ या प्रतिनिधियों को भी नियुक्त किया गया है.
यह ग्राफ एक निरंतरता की प्रवृत्ति को दर्शाता है, जिसमें दिखता है कि योजना के तहत मांगे गए काम की संख्या, प्रदान किए गए काम की संख्या से ज्यादा है.
हमारे विश्लेषण से यह साफ है कि काम की मांग में 41 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि असल में दिए गए काम की संख्या में 38 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है. यह 3 फीसद का अंतर मामूली लग सकता है, लेकिन जब पूरी आबादी के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो यह बहुत बड़ा हो जाता है.
यह ग्राफ सरकार द्वारा दिए गए काम और मांग के बीच बढ़ते सालाना अंतर को दर्शाता है. इसके लिए योजना के वास्ते घटते बजट आवंटन को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जैसा कि नीचे दिए गए ग्राफ में दिखाया गया है.
मनरेगा के लिए सरकारी बजट आवंटन में लगातार कटौती ने योजना में वादा की गई संख्या जितना काम पैदा करने में नाकामी में बड़ा योगदान दिया है.
नीचे का ग्राफ पिछले वित्त वर्ष की तुलना में मनरेगा के बजट आवंटन में 18 फीसद की कमी दर्शाता है.
जल जीवन मिशन का मकसद भारत के गांवों में 2024 तक निजी घरेलू नल कनेक्शन के जरिये सुरक्षित और पर्याप्त पेयजल उपलब्ध कराना है.
इस योजना में जल संरक्षण, वर्षा जल संचयन और ग्रेवाटर (वाशिंग मशीन, बेसिन, शावर आदि का बेकार पानी) प्रबंधन करके रीचार्जिंग और रीयूज जैसे जरूरी कदमों के जरिये स्रोत के टिकाऊपन के उपायों को लागू करना है.
जल जीवन मिशन बताता है कि 19 अक्टूबर 2023 तक 19.23 करोड़ ग्रामीण घरों में से 13.37 करोड़ (69.5 फीसद) घरों में नल कनेक्शन हो चुके हैं. इसमें यह भी बताया गया है कि हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, तेलंगाना और गोवा के सभी ग्रामीण घरों में नल के पानी के कनेक्शन हैं.
ऊपर का ग्राफ दर्शाता है कि केंद्र सरकार द्वारा योजना के लिए आवंटित धनराशि से कम धनराशि जारी की गई है. 2020 के बाद से आवंटित बजट का सिर्फ 50 फीसद ही जारी किया गया है.
हम साल 2021 से आवंटन में बढ़ोत्तरी भी देखते हैं. यह खासतौर से कोविड के चलते गांवों के लोगों को होने वाली परेशानी को कम करने के लिए किया गया है.
यह ग्राफ बताता है कि जहां सरकार के खर्च का हिस्सा 2020 तक स्थिर रहा, वहीं 2021 से भारी सुधार देखा गया. केंद्र और राज्य दोनों के खर्च में 2022 में और सुधार देखा गया.
इसकी वजह आने वाले 2024 लोकसभा चुनावों के लिए ग्रामीण भारत में वोट शेयर बढ़ाने के लिए वोट बैंक की राजनीति के उपायों में से एक हो सकती है. बाद में राज्य और केंद्र सरकार की ओर से खर्च में कमी की पूरी संभावना है.
यह ग्राफ सरकारी धन के फीसद इस्तेमाल को दर्शाता है जो पिछले कुछ सालों में घटा है.
फंड का इस्तेमाल 2015-16 में 75 फीसद से घटकर 2022-23 में 61 फीसद पर आ गया. 2021-2022 में जब सरकारी खर्च में काफी वृद्धि हुई, तो सिर्फ 50 फीसद फंड का इस्तेमाल किया गया.
ऐसी योजनाओं को लागू करने के लिए सावधानी के साथ योजना बनाने और लागू करने की जरूरत होती है. फटाफट नतीजे हासिल करने के लिए राज्यों द्वारा इस पहलू को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिसके लाभार्थियों पर दीर्घकालिक नतीजे होते हैं, जो कुछ मामलों में तो सबसे पहले योजनाओं से ही लगभग अनजान होते हैं.
केंद्र सरकार को ऐसी योजनाओं के जमीनी स्तर पर लागू किए जाने का आकलन करने और ऐसे डिफॉल्टरों को, जिनका मकसद सिर्फ फर्जी आंकड़े बनाना है, जवाबदेह बनाने के लिए एक सख्त ढांचा बनाना चाहिए. हम सीरीज के अगले लेख में इस पर और चर्चा करेंगे.
(दीपांशु मोहन इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर हैं और सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज के निदेशक हैं. अमीषा सिंह और अदिति देसाई CNES में रिसर्च असिस्टेंट हैं और इन्फोस्फीयर टीम की सह-प्रमुख हैं. वासुदेवन, शिल्पा संतोष, आर्यन गोविंदकृष्णन और झील दोशी इन्फोस्फीयर टीम के सदस्य हैं और CNES के अनुसंधान सहायक हैं.)
(यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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