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'INDIA' और BJP: दोनों के लिए 2024 चुनाव में इंडियन इकोनॉमी का सवाल एक बड़ी परीक्षा

हां, भारत में असीम संभावनाएं हैं, लेकिन सरकार जैसे इकोनॉमी चला रही है, उसे देखकर बहुत ज्यादा उम्मीदें तो बनती नहीं दिख रहीं.

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दुनिया के दो सबसे बड़े उभरते बाजार चीन और भारत (Indian Economy) अपनी ग्रोथ स्टोरी में पूरा जोश नहीं भर पा रहे हैं. चीन की इकोनॉमी में आती कमजोरी के बीच भारत की आर्थिक स्थिति दुनिया के एक बड़े बाजार और नौकरी करने वाली बड़ी आबादी की सकारात्मक तस्वीर दिखती है. ये दुनिया की दूसरी इमर्जिंग इकोनॉमी यानि उभरती अर्थव्यवस्था है और इंडस्ट्रियल तौर पर विकसित देशों की तुलना में ज्यादा उम्मीदें जगाती है.

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केंद्र की बीजेपी सरकार, अपने पिछले नौ सालों के कार्यकाल में, अन्य देशों की तुलना में भारत की बढ़ती विकास क्षमता पर बड़ा दांव लगाने वालों के लिए 'सकारात्मक आशावाद' और 'ताकत' दिखाने के लिए अक्सर इस सांकेतिक संदेश का सहारा लेती रही है. चीन से विदेशी निवेशकों और फर्मों के हटने को भारतीय बाजार की बढ़ती संभावनाओं और निवेशकों के मौके के रूप में बताया जा रहा है, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था में सब कुछ सही नहीं चल रहा.

जैसे-जैसे हम 2024 के लोकसभा चुनाव के करीब पहुंच रहे हैं, एक किस्म की हाइप बनाई जा रही है. ये बताने की होड़ लगी हुई है कि मंदी से प्रभावित ब्रह्मांड के बीच भारत को एक 'चमकता हुआ' सितारा बनाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने बड़े सही फैसले लिए हैं. दुनिया के दूसरे देशों की कर्ज में डूबी इकोनॉमी के बारे में वास्तविकता से ज्यादा बढ़-चढकर बातें की जा रही हैं.

हालांकि, भारतीय अर्थव्यवस्था के अपने मैक्रो आंकड़ों पर करीब से नजर डालें तो एक अलग तस्वीर सामने आती है.

GDP ग्रोथ रेट और ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन

यहां जिस तरह की उम्मीदें जगाई जा रही हैं उससे कहीं ज्यादा परेशानी और संदेह के बादल हैं. निश्चित तौर पर, भारत की क्षमताएं और संभावनाएं बहुत बड़ी हैं, लेकिन जो आंकड़े मौजूद हैं उनको देखकर और मौजूदा सरकार जिस तरह से इकोनॉमी चला रही है, अर्थव्यवस्था को लेकर कोई खास उम्मीद नहीं दिखती.

पिछले एक दशक में भारत की GDP ग्रोथ रेट वास्तव में बढ़ी नहीं है, बल्कि 2016 के नोटबंदी के बाद से गिरावट की प्रवृत्ति देखी गई है. भारत की पहले से ही धीमी गति से चल रही ग्रोथ रेट में कोविड लॉकडाउन गिरावट का कारण बना, तब से रिकवरी में एक असमान 'के-आकार' का पैटर्न देखा गया है, जिससे कुछ आय समूहों (अधिक संसाधनों वालों) ने पिरामिड के मिडिल और निचले स्तर पर स्थित लोगों की तुलना में अधिक पैसा बनाया है.

हां, भारत में असीम संभावनाएं हैं, लेकिन सरकार जैसे इकोनॉमी चला रही है, उसे देखकर बहुत ज्यादा उम्मीदें तो बनती नहीं दिख रहीं.
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ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन (GFCF ) एक अहम इंडिकेटर है जो किसी इकॉनमी की निजी उत्पादन क्षमता को बताता है, लेकिन साल 2021 के बाद से ही ये भारत में अस्थिर और गिरावट की राह पर रहा है.

GFCF हाई वॉलेटिलिटी फर्मों के लिए कमजोर निवेश मांग और कम क्षमता उपयोग को भी दर्शाता है. महामारी के बाद के सर्विस सेक्टर ने काफी अच्छा प्रदर्शन किया है, लेकिन इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन और मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ, 'अच्छी' नौकरियां और बेहतर विकास माहौल में तरक्की काफी कम हुई है.

हां, भारत में असीम संभावनाएं हैं, लेकिन सरकार जैसे इकोनॉमी चला रही है, उसे देखकर बहुत ज्यादा उम्मीदें तो बनती नहीं दिख रहीं.

बैंक कर्ज और महंगाई

बैंक और वित्तीय विकास के दृष्टिकोण से एक सकारात्मक डेटा ओवरऑल क्रेडिट ग्रोथ का है, जिसमें NPA संकट के बीच, 2018 के बाद से कमी आई थी. क्रेडिट ग्रोथ या ऋण योग्य निधियों की आपूर्ति GFCF संख्याओं की अस्थिरता बढ़ा सकती है, लेकिन 'वास्तविक विकास क्षमता' पर बहुत कुछ अस्पष्ट है, क्योंकि इनमें से अधिकतर संख्याओं ने सक्रिय रूप से उच्च विकास में योगदान नहीं दिया है.

साथ ही, कर्ज लेने वाले फंड में बढ़ोतरी RBI की मॉनेटरी पॉलिसी और सरकार की राजकोषीय नीति का नतीजा होगी. अब तक, बढ़ती महंगाई के बीच, ब्याज की ऊंची दरें (जो उधारी लेन देन के पैटर्न को प्रभावित करती हैं) प्राइवेट सेक्टर को सस्ता कर्ज देने की बैंकों की क्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेंगी (यह मानते हुए कि ऐसे कर्ज की मांग है).

यदि हम आंकड़ों को अधिक बारीकी से देखें, तो भारत की मुख्य महंगाई दर 2019 के अंत से 2022 के मध्य तक बैंक कर्ज बढ़ोतरी से ज्यादा रही है. तब से, कर्ज बढोतरी महंगाई दर से अधिक हो गई है.

हालांकि, पिछले कुछ हफ्तों में, उच्च महंगाई दर और RBI की यथास्थिति नीति (ब्याज दर में) कर्ज देने की बैंकों की क्षमताओं को खतरे में डाल रही है. खाद्य महंगाई बेहद अस्थिर बनी हुई है. औसत आय अर्जित करने वाले नागरिक के लिए बुनियादी घरेलू उपभोग की चीजें और ज्यादा महंगी हो गई हैं. ये कोई हालिया बात नहीं हैं.

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CPI, WPI, और व्यापार

महंगाई को बारीकी से देखने पर यह समझ में आता है कि मिडिल और लोअर इनकम ग्रुप वर्गों के लिए स्थिर और गिरती आय के बीच नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में 2014 से CPI लगातार बढ़ी है.

ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा गई है और लगभग मंदी जैसी स्थिति में फंस गई है, वहीं मूल्य वृद्धि ने कम आय वाले लोगों के लिए स्थिति और भी खराब कर दी है.

ये भारत के शहरी मध्यम-आय वाले लोगों की बचत करने की क्षमता को भी गंभीर रूप से नुकसान पहुंचा रहा है, जो बैंकों के पास लिक्विडिटी जमा बनाने के लिए जरूरी है. (जो आखिरकार जमा पूंजी का उपयोग बैंक क्रेडिट उपकरणों और क्रेडिट निर्माण शक्ति के लिए करते हैं).

हां, भारत में असीम संभावनाएं हैं, लेकिन सरकार जैसे इकोनॉमी चला रही है, उसे देखकर बहुत ज्यादा उम्मीदें तो बनती नहीं दिख रहीं.

दूसरी ओर, WPI (थोक मूल्य सूचकांक) में 2022 के बाद से तेजी से गिरावट आ रही है. विनिर्माण/औद्योगिक क्षेत्र को प्रभावित करने वाली मांग-पक्ष की समस्या डिफ्लेशन का संकेत देता है. प्राइवेट फर्मों को इससे 'आशावादी' होने का कम कारण नजर आता है. (प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री की इंडिया शाइनिंग पर आशावादी बयानबाजी के विपरीत) इसलिए वो नई उत्पादन क्षमता के लिए बड़ी पूंजी का निवेश नहीं कर रहे हैं. दरअसल निवेश के लिए उपभोक्ता और पूंजीगत वस्तुओं की मांग में तेजी जरूरी है, लेकिन वो तेजी आ नहीं रही है और इसलिए उम्मीद के मुताबिक निजी निवेश नहीं बढ़ रहा है.,

हां, भारत में असीम संभावनाएं हैं, लेकिन सरकार जैसे इकोनॉमी चला रही है, उसे देखकर बहुत ज्यादा उम्मीदें तो बनती नहीं दिख रहीं.

व्यापार के मोर्चे पर देखें तो एक्सपोर्ट बढ़ा है, लेकिन यह इम्पोर्ट की कीमत पर बढ़ा है. करेंट अकाउंट से लेकर GDP का स्तर 2014 से पहले (बीजेपी के सत्ता में आने से पहले) जितना खराब था, उससे भी बदतर हो गया है. यह भारत की औद्योगिक और व्यापार नीति में उन क्षेत्रों की ओर रुख करने में नाकामी को दिखाता है, जहां यह कंपीटीटिवनेस से ज्यादा फायदे थे. बार-बार तर्क दिया गया है कि भारत के तेजी से बढ़ते सर्विस सेक्टर को न केवल इंपोर्ट में बल्कि नौकरियों और समग्र विकास में भी अधिक योगदान देना होगा.

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2024 चुनावों के बाद 4 मुख्य चुनौतियां

2024 के चुनावों में अगली सरकार चाहे जिसकी हो उसे 3 जरूरी काम करने होंगे. खासकर अगर उन्हें इकोनॉमिक गवर्नेंस और सामाजिक एकजुटता (एक हेल्दी इकोनॉमी के लिए जरूरी चीज ) को प्राथमिकता देनी हो. तीन प्रमुख फैक्टर ये होंगे:

  • सभी के लिए वृहत-रोजगार दर को बढ़ावा देना

  • सभी क्षेत्रों में स्थायी तरीके से निजी निवेश बढ़ाना (विशेष रूप से श्रम-गहन, नौकरी पैदा करने वाले क्षेत्रों में).

  • फिस्कल कंसोलिडेशन योजना के लिए बढ़ते सरकारी कर्ज का प्रबंधन करते हुए मूल और खाद्य महंगाई में अंतर से निपटना.

हां, भारत में असीम संभावनाएं हैं, लेकिन सरकार जैसे इकोनॉमी चला रही है, उसे देखकर बहुत ज्यादा उम्मीदें तो बनती नहीं दिख रहीं.

नरेंद्र मोदी सरकार के सभी निर्वाचित कार्यकालों में भारत का जॉबलेस ग्रोथ का टाइम लंबा ही चला है. अच्छे वेतन वाली नौकरियां (संगठित क्षेत्र में) अपेक्षित दर या तेज गति से नहीं बढ़ी हैं, न ही सरकार ने राजकोषीय और बजटीय आवंटन में इसे प्राथमिकता बताया है.

इसके विपरीत, मनरेगा जैसे गारंटीड नौकरी आधारित कल्याण कार्यक्रमों के लिए बजट आवंटन कम करके सरकार ने कैपेक्स यानि सरकारी पूंजीगत खर्च को बढ़ाया है. राज्यों के पास श्रमिक-केंद्रित विकास योजनाओं की दिशा में संसाधनों का उपयोग करने या अपने वित्तीय संसाधनों से नौकरियां पैदा करने के लिए सीमित रास्ते और उपकरण हैं.

केंद्र सरकार को बहुत सारे बदलाव लाने होंगे, लेकिन मोदी-सीतारमण की अगुवाई यह मानने को भी तैयार नहीं है कि 'रोजगार सृजन' (और उच्च बेरोजगारी) एक चुनौती रही है. नौकरी-केंद्रित सामाजिक सुरक्षा योजना लाना भी इस वक्त की सबसे बड़ी दरकार है.

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हां, भारत में असीम संभावनाएं हैं, लेकिन सरकार जैसे इकोनॉमी चला रही है, उसे देखकर बहुत ज्यादा उम्मीदें तो बनती नहीं दिख रहीं.

तीसरी बात यह है कि कर्ज संबंधी चिंता पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है. ऐसे समय में जब केंद्र सरकार का खर्च बढ़ रहा है (जीडीपी के % के रूप में), और सरकार राज्यों (विशेष रूप से सत्ता में विपक्षी सरकार वाले राज्यों) की वित्तीय स्वायत्तता और उधारी की क्षमता को निचोड़ रही है. GDP नंबर की तुलना में कुल विदेशी उधारी के आंकड़े भी चिंता का विषय हैं. यह न केवल पूर्व-निर्धारित फिस्कल कंसोलिडेशन योजना की 'प्रभावशीलता' पर सवाल उठाता है, बल्कि बीजेपी सरकार की खर्च की प्राथमिकताओं की व्यवहारिकता पर भी प्रश्न खड़े होते हैं.

कोई चाहे तो दलील दे सकता है कि केंद्र सरकार कल्याणकारी कार्यक्रमों और पोषण योजनाओं के साथ-साथ अन्य सामाजिक पूंजी आवश्यकताओं, स्वास्थ्य देखभाल और शैक्षिक खर्च पर खर्चा घटाकर PLI पर अधिक खर्च कर रही है, लेकिन, बढ़ती सरकारी ऋण चिंता के साथ (जब विकास धीमा हो) कम), सरकार के लिए पूंजीगत व्यय और कल्याण दोनों पर अधिक काम करने के लिए राजकोषीय गुंजाइश चुनाव के तुरत बाद कम हो सकती है.

भारतीय अर्थव्यवस्था पर महत्वपूर्ण डेटा और स्वतंत्र आलोचना को कंट्रोल करने की नीति किसी भी अगली सरकार के लिए अच्छा नहीं होगा जो अगले '24 वर्षों (2047') या '1000 वर्षों' तक अपने नागरिकों के विकास के लिए काम करना चाहती है.' पिछले नौ वर्षों में, भारत में लोकतांत्रिक सख्ती आई है. सांप्रदायिकरण बढ़ा है. सार्वजनिक संस्थागत स्वायत्तता घटे हैं. सत्ता का केंद्रीकरण बढ़ा है. इससे भारतीय इकोनॉमी की बदतर तस्वीर ही सामने आई है.

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कम से कम आर्थिक मोर्चे पर, बीजेपी सरकार (सत्ता में वापस आने के लिए) और विपक्ष (बीजेपी को हराने के लिए), 2024 की चुनावी लड़ाई में, दोनों को एक स्पष्ट, एकजुट, आर्थिक योजना और आर्थिक सिद्धांत की आवश्यकता है. इस वक्त खोखले आशावाद और आलंकारिक प्रचार से ज्यादा अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति को प्रभावित करने वाले संरचनात्मक संकटों को दूर करने के लिए कदम उठाना (मध्यम से दीर्घकालिक नजरिए के साथ) ज्यादा जरूरी है.

(दीपांशु मोहन ओ पी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल ऑर्ट्स & इकोनॉमिक्स में सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक स्टडीज के डायरेक्टर हैं. यह एक वैचारिक लेख है. इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं, द क्विंट इनका ना समर्थन करता और ना ही इसके लिए जवाबदेह है.)

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