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संसद की प्रोडक्टिविटी के आंकड़े बयां कर रहे संसदीय लोकतंत्र की दुर्दशा

मॉनसून सत्र में 56 प्रतिशत विधेयकों को नाम मात्र के जांच के बाद दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया.

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संसद का मॉनसून सत्र (Monsoon Session 2023) 20 जुलाई 2023 से 11 अगस्त 2023 तक रहा. इसके बाद शुक्रवार 11 अगस्त को संसद के दोनों सदनों को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया.

पीआरएस विधायी अनुसंधान टीम (PRS Legislative Research) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, मानसून संसदीय सत्र में लोकसभा ने अपने निर्धारित समय का केवल 43% और राज्यसभा ने 55% कामकाज किया. 23 दिनों तक चले सत्र के दौरान कुल 17 बैठकें हुईं. इस सत्र के दौरान 23 विधेयक पारित किए गए, जिसमें 17वीं लोकसभा का पहला अविश्वास प्रस्ताव भी देखा गया.

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सत्र में पेश किए गए और पारित किए गए विधेयकों के बीच, लगभग 56 प्रतिशत विधेयकों को नाम मात्र के जांच (बेहद कम समय में) के साथ दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया. इस सत्र में पेश किया गया एक विधेयक औसतन 8 दिनों के भीतर पारित हो गया.

आइए नजर डालते हैं कुछ प्रमुख आंकड़ों पर

PRS लेजिस्लेटिव के मुताबिक, ''लोकसभा ने इस सत्र में 22 विधेयक पारित किए. इनमें से 20 विधेयकों पर पारित होने से पहले एक घंटे से भी कम समय तक चर्चा हुई. आईआईएम (संशोधन) विधेयक, 2023 और अंतर-सेवा संगठन विधेयक 2023 सहित 9 विधेयक लोकसभा में 20 मिनट के भीतर पारित किए गए.

राष्ट्रीय नर्सिंग और मिडवाइफरी आयोग और राष्ट्रीय दंत चिकित्सा आयोग बनाने के विधेयकों पर लोकसभा में एक साथ तीन मिनट के भीतर चर्चा की गई और पारित किया गया. सीजीएसटी और आईजीएसटी संशोधन विधेयक लोकसभा में दो मिनट के भीतर एक साथ पारित हो गए.

राज्यसभा ने तीन दिन के भीतर 10 विधेयक पारित किए. जब कुछ विपक्षी सदस्य उच्च सदन से बाहर चले गए, तो उनकी अनुपस्थिति में विधेयक पारित कर दिए गए.

दिल्ली में एलजी की विवेकाधीन शक्तियों का विस्तार करने, लिथियम जैसे रणनीतिक खनिजों के खनन की अनुमति देने और व्यक्तिगत डेटा को विनियमित करने वाले विधेयक पेश होने के 7 दिनों के अंदर संसद द्वारा पारित किए गए थे. अनुसंधान राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन विधेयक, 2023 पेश होने के पांच दिनों के भीतर पारित किया गया.

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बिना किसी चर्चा के पारित कर दिए जाते हैं विधेयक

पिछले कुछ सालों से संसद में लगातार ड्रामा और अप्रासांगिक गतिविधी देखने को मिल रहा है. ये गतिविधियां भारतीय लोकतंत्र की असंबद्ध कार्यप्रणाली को परिभाषित करती हैं.

सदन के वक्ताओं के व्यवहार में विपक्षी पार्टी के सांसदों के खिलाफ पूर्वाग्रह और पक्षपात, गतिरोध, विरोध प्रदर्शन, वेल में नारेबाजी, सदस्यों के निलंबन और बार-बार स्थगन ये सभी संसदीय कार्यप्रणाली के एक असामान्य मानदंड का हिस्सा बन गए हैं.

परिणाम स्वरूप सत्ता पक्ष और विपक्षी दलों के बीच बहस और चर्चाएं कम देखने को मिलती है, जिसका नतीज यह होता है कि बिना किसी चर्चा के ही कम से कम समय में कई विधेयक पारित कर दिए जाते हैं.

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उदाहरण के लिए, 10 अगस्त को, राज्यसभा अध्यक्ष जगदीप धनखड़ ने हंगामे के बीच, फार्मेसी (संशोधन) विधेयक को तीन मिनट के अंदर ध्वनिमत से पारित कर दिया.

अब सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनाव आयुक्त विधेयक पर लिए गए फैसले को ही देख लेते हैं. सुप्रीम कोर्ट तब संविधान के अनुच्छेद 324(2) की जांच कर रहा था. इसमें कहा गया है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और ECs की नियुक्ति "प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की समिति की सलाह के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा की जानी चाहिए."

संवैधानिक वकील गौतम भाटिया ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की संवैधानिक और न्यायिक व्याख्या करते हुए कहा, " सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं कहा कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को नियुक्ति समिति में होनी चाहिए, इससे यह विधेयक खराब नहीं हो जाता है. कानून को यह सुनिश्चित करना होगा कि मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त सरकार के प्रभुत्व से पर्याप्त रूप से अछूता रहे क्योंकि रेफरी को हमेशा निष्पक्ष होना चाहिए."

इसमें कोई दो मत नहीं कि वर्तमान सरकार ने केंद्रीकृत, एकीकृत और निरंकुश नियंत्रण स्थापित करने के लिए, अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए विधायी और अन्य संस्थागत तंत्र का उपयोग कपटपूर्ण तरीके से किया है.

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कमजोर विपक्ष के बीच कानूनी शून्यता (जैसे हाल के या पिछले सुप्रीम कोर्ट निर्णयों से दिखता है) और राज्य-सत्ता की मौजूदगी, सत्तासीन सरकार को बढ़ावा देने का काम करती हैं, जो कि देश के नागरिकों के लिए परेशान करने वाली बात है.

सत्र की 3 मुख्य बातें

इस मानसून सत्र (Parliament Monsoon Session 2023) में तीन मुख्य बातें देखी गईं. जो जवाबदेही के संकट का संकेत देती हैं. एक अतिकेंद्रीकृत कार्यकारी कार्रवाई पर से पर्दा उठाती है. मुद्दों को अज्ञानतापूर्वक खारिज किए जाने की वास्तविकता को दर्शाती है.

  • मणिपुर में बढ़ते जातीय संघर्ष को लेकर अराजकता

  • डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2023 का पारित होना

  • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) विधेयक, 2023 का पारित होना

मणिपुर में चल रहे संघर्ष को शायद इस मानसून सत्र में केंद्र में रखा जाना चाहिए था. ताकि केंद्र सरकार को भाजपा शासित राज्य में शासन की स्थिति की प्रमुख चिंताओं पर चर्चा करते हुए अपनी जवाबदेही को संबोधित करने की अनुमति मिल सके.

सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज मणिपुर राज्य की उदासीनता, राहत प्रदान करने वाले संगठनों के लिए कठिनाइयों और पूर्वोत्तर पर संघर्ष के बहुमुखी आर्थिक प्रभाव के मुद्दों पर अधिक विस्तृत चर्चा प्रदान करने में लगा हुआ है.

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यदि कोई प्रश्नकाल सत्र के आंकड़ों पर नजर डाले, तो मौखिक प्रतिक्रिया के लिए सूचीबद्ध केवल 9% प्रश्नों का उत्तर लोकसभा में और 28% का राज्यसभा में उत्तर दिया गया. मणिपुर राज्य में हुई जातीय हिंसा पर विपक्ष द्वारा साझा की गई चिंताओं पर बहुत कम चर्चा हुई.

मॉनसून सत्र (Parliament Monsoon Session) के दौरान जिस तरह से कार्यवाही हुई उससे यह मालूम पड़ता है कि वर्तमान सरकार भारत पर दो शताब्दियों से अधिक समय तक शासन करने वाले औपनिवेशिक ब्रिटिश प्रशासन की तरह व्यवहार कर रही है. कानून, भाषा और ज्ञान के माध्यम से शक्ति को केंद्रीकृत किया जा रहा है.

लोकतांत्रिक मूल्यों में गहरी गिरावट देखने को मिल रही है. संवैधानिक रूप से संरक्षित शक्तियों के पृथक्करण के बीच संस्थानों पर व्यवस्थित कब्जा किया जा रहा है. वाकई में भारत में राजनीति की वर्तमान स्थिति औपनिवेशिक प्रशासन के अनुभव से मिलती-जुलती है.

(लेखक ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @Deepanshu_1810 है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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