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हाल की दो घटनाओं ने मुझे लज्जा, हया, शर्म की अवधारणा पर सोचने-विचारने को मजबूर किया. नहीं, आप इस आर्टिकल को अरस्तू के नीतिशास्त्र की अगली कड़ी न समझें. अरस्तू ने निकोमैचेन एथिक्स, यूदेमियन एथिक्स और रेटोरिक- इन तीन टेक्स्ट्स में लज्जा के बारे में विस्तार से चर्चा की है. इसकी बजाय यह आर्टिकल औरतों को पूरी समझदारी से निर्लज्ज होने को प्रोत्साहित करता है.
पिता सत्ता की प्रभुत्वशाली परंपरा यही तो चाहती है. औरतें नजरों से ओझल हो जाएं. मशहूर मनोचिकित्सक कार्ल जंग ने शर्म को "अंतरात्मा को रौंदने वाला ख्याल" कहा है. इसी प्रवृत्ति के चलते इस संवेदना को औजार बनाया गया है, खासकर औरतों के खिलाफ.
यह अटकलें लगाई गई हैं कि चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी के हॉस्टल के बाथरूम में करीब 60 लड़कियों के आपत्तिजनक वीडियो इंटरनेट पर लीक हो गए. इस पर तुरंत प्रतिक्रियाएं आईं. विरोध प्रदर्शन किए गए और उन लड़कियों ने कथित तौर से सुसाइड करने की कोशिश भी की जिनके वीडियो ऑनलाइन उपलब्ध थे.
ऐसी अफवाहें थीं, जिन्हें बाद में खारिज किया गया कि कुछ स्टूडेंट लड़कियों की सुसाइड से मौत हो गई. मैं ठीक यही कहना चाहती हूं कि कि इंटरनेट अब्यूस की यह घटना उस इमोशन की जांच का कारण बनी, जिसे शर्म कहते हैं. क्या कोई इमोशन किसी की जिंदगी से बड़ा है? क्या ऐसा कभी हो सकता है? अगर हां, तो यह कैसे होता है और कौन इसे ऐसा बनाता है?
आइए, ईरान के उन विजुअल्स पर नजर डालें जो वायरल हो रहे हैं. वहां महसा अमीनी की हत्या के खिलाफ हर तरफ प्रदर्शन किए जा रहे हैं. 22 साल की महसा को ऑफिशियल इस्लामिक वाइस स्क्वॉड पुलिस एजेसियों ने इसलिए गिरफ्तार किया कि उसने हिजाब सही तरीके से नहीं पहना था. इस ‘अपराध’ के लिए उसे कस्टडी में खूब पीटा गया. इस्लामिक एजेंसियों को वहां “नैतिक पुलिस” कहा जाता है. वे उन औरतों को परेशान करने, उन पर हमला और उन्हें गिरफ्तार करने के लिए कुख्यात हैं जो खुद को अच्छी तरह से नहीं ढंकतीं और अपने परिवार, देश और धर्म को ‘शर्मिन्दा’ करती हैं.
जो सामाजिक व्यवस्थाएं औरतों को अपने काबू में कहना चाहती हैं, असल में वही दुश्मन हैं. चंडीगढ़ में, ईरान में और दुनिया के बाकी हिस्सों में भी.
हैरान होने की बात नहीं. पिता सत्ता के इर्द-गिर्द घूमने वाले समाज में उन औरतों को दुश्मन माना जाता है, जोकि थोपे गए रीति-रिवाज को चुनौती देती हैं. ऐसी औरतों को शिकस्त देने की जरूरत होती है. मैदान से खदेड़ने की जरूरत होती है. इसलिए पूरी चालाकी से जाल बिछाया जाता है.समाज की, या व्यक्ति की ‘इज्जत’ को चोटी पर चढ़ाया जाता है, फिर उस पर जोरदार वार किया जाता है जिससे वह आसानी से चकनाचूर हो जाती है. कोई योद्धा भी उस वार से बच नहीं सकता.
सून त्जू ने आर्ट ऑफ वार में लिखा है कि “किसी योद्धा के पांच दोषों में से एक यह है कि उसकी इज्जत कांच की तरफ नाजुक हो, यानी जो बहुत जल्दी शर्मिन्दा हो जाए.” जिसे सून त्जू ‘डेलिकेसी ऑफ ऑनर’ कहते हैं, वह महिलाओं पर सिर्फ खतरनाक तरीके से थोपा नहीं जाता, उन्हें उनकी बेड़ियों में बांध दिया जाता है.
और इससे अच्छा तरीका क्या हो सकता है कि उनकी देह को उनकी इज्जत का मैदान बना लिया जाए! उसके साथ और उन पर कितनी जंग लड़ी जाती हैं. उन्हें राष्ट्रीय गौरव और प्रतिष्ठा का सवाल बनाया जाता है.
दूसरी ओर, ईरान में औरत की देह और उसका प्रतिनिधित्व करने वाली हर चीज को ढंकने के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं. यहां भी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा हिजाब में बसी है. कोई तयशुदा नियम से दाएं बाएं हुआ, कि इज्जत का मसला हो गया. ईरानी औरतों इसे नकार रही हैं और अब उनके सामूहिक स्वर सब तरफ गूंज रहे हैं.
ईरान में औरतों निसंस्कोच सड़कों पर उतर आई हैं. इस बार बहुत से पुरुष भी उनके साथ हैं. औरतों को महसूस हो रहा है कि अपने शरीर को ढंकना, या बेपरदा करना, दोनों चुनने का हक छीनते हैं. आजादी के मूल सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं. गैर बराबरी पर आधारित नैतिकता, दरअसल अनैतिक है. जब निहत्थे औरतों और मर्दों के हुजूम से सरकारी एजेंसियां भिड़ती हैं तो हमें उसी सोच का जाहिर रूप नजर आता है.
जैसा कि ईरानी सत्ता के धुर विरोधी सलमान रुशदी कहते हैं-
ईरान शायद ऐतिहासिक मोड़ पर है. महिलाओं नेशर्म और उसके नतीजे देख लिए हैं. जैसा कि ईरान के सबसे प्रसिद्ध कवियों में से एक,सादी शिराज़ी (या शेख सादी) कहते हैं,
"जिसके पास बाहुबल नहीं, और ओहदे की ताकत नहीं है,
सल्तनत में उसे सजा न देकर भी सजा दी जा सकती है.
गला के नीचे से गुजरने के लिए एक सख्त हड्डी बनाई जा सकती है
लेकिन जब यह नाभि में रखी जाएगी तो पेट फाड़ देगी."
इसका अंग्रेजी तर्जुमा है-
ईरान की कठोर दमनकारी नीतियां वहां की औरतों के गले की हड्डी बन गई हैं.
कोई यह तर्क दे सकता है कि बेशर्मी से अराजकता फैल सकती है और सभ्य समाज में यह सब सही नहीं है. यहां, बेशर्म होने और शर्म की हद के बीच फर्क करना जरूरी है. शर्मिन्दगी अनिवार्य रूप से खतरनाक नहीं हो सकती, लेकिन इसका जो मकसद है- दूसरे को काबू में करना, गैर बराबरी, किसी को नीचा दिखाना, तो यह निश्चित रूप से खतरनाक है.
दार्शनिक ओवेन फ्लैनगन की नई किताब हाउ टू डू थिंग्स विद इमोशन्स: द मोरेलिटी ऑफ एंगर एंड शेम अक्रॉस कल्चर को पढ़ा जाना चाहिए. इसमें फ्लैनगन कहते हैं, "यदि शर्मसार करने वाले मूल्य या उनका संरक्षण करने वाले मूल्य बुरे हैं तो शर्मसार करना बुरा है."
औरतों की देह को इज्जत का प्रतीक बनाना, उसे हया-बेहयाई का सबब बनाना बुरा है. अब समय आ गया कि जब औरतों को शर्मसार होना बंद करना होगा.
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