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भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'पंथनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' क्यों बने ही रहने चाहिए?

Indian Constitution: 'पंथनिरपेक्ष' और 'समाजवादी', इन दो शब्दों को 42वें संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में जोड़ा गया था.

साहिबनूर सिंह सिद्धू
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>भारतीय संविधान की प्रस्तावना क्यों बनें रहना चाहिए 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी'  </p></div>
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भारतीय संविधान की प्रस्तावना क्यों बनें रहना चाहिए 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी'

फोटो- PTI

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भारतीय संविधान की प्रस्तावना (Preamble) को अक्सर कई कारणों से खास चैप्टर का दर्जा मिलता है.

पहला, जैसा की 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने जिक्र किया था. प्रस्तावना जजों के लिए संविधान की व्याख्या का एक उपयोगी साधन है. यह संवैधान के तमाम अनुच्छेदों के पीछे की असली मंशा का पता लगाना का सबसे आसान तरीका है. इसके बिना वे मुश्किल और पेचीदा, दोनों लग सकते हैं.

दूसरा, 'प्रस्तावना' लोगों के विचारों में एक बहुत बड़ी भूमिका निभाता है. अगर आप किसी आम आदमी (जो वकील नहीं है) से संविधान के किसी खास अनुच्छेद के बारे में पूछते हैं, तो उसके लिए मुश्किल हो सकती है. उदाहरण के तौर पर अभिव्यक्ति की आजादी के बारे में पूछे तो उसके लिए यह बता पाना कठिन है कि ऐसा मौलिक अधिकार किस अनुच्छेद में दिया गया है. लेकिन दूसरी तरफ प्रस्तावना इन सभी अधिकारों का संक्षिप्त रूप है. उसे किसी आम आदमी के लिए याद रखना आसान होता है. प्रस्तावना, यकीनन भारत के संविधान का सबसे अधिक पहचाने जाने वाला हिस्सा है.

भारत के संविधान की प्रस्तावना अनूठी है

भारत के संविधान की प्रस्तावना सभी प्रस्तावनाओं से अलग है. याद रखें, संसद के बनाए हर कानून की एक प्रस्तावना होती है, जिसमें कानून के उद्देश्य और उनके लक्ष्यों का जिक्र होता है. भले ही इनमें अक्सर नैतिकता की बातें कूट-कूट कर भरी होती हैं लेकिन इसमें सरकार के लिए कोई ठोस दायित्व नहीं होता. यही कारण है कि, जब संसद में किसी कानून पर खंड-दर-खंड चर्चा और मतदान होता है तो उसके उद्देश्यों या 'प्रस्तावना' पर न तो चर्चा की जाती है और न ही मतदान किया जाता है.

दूसरी ओर, संविधान की प्रस्तावना एक विशेष स्थान रखती है. भारत की संविधान सभा के कामकाज के दौरान प्रस्तावना को न केवल फिर से ड्राफ्ट किया गया, बल्कि संविधान में जोड़े जाने से पहले इस पर बहस भी हुई और फिर मतदान भी किया गया.

प्रस्तावना को वैध करार देने के लिए संविधान निर्माताओं ने अपनी तरफ से पूरी कोशिशें कीं. बावजूद इसके, सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में ही इसे सही मायने में संविधान का हिस्सा माना. ऐसा करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि प्रस्तावना संविधान का वह आखिरी हिस्सा था, जिस पर मतदान किया गया और उसे जोड़ा गया था. इसका मतलब यह था कि प्रस्तावना को संविधान की अंतिम समझ और उद्देश्यों को दर्शाने के लिए डिजाइन किया गया था.

संविधान की 'प्रस्तावना' चर्चा में क्यों है?

संविधान की मूल प्रस्तावना में 'पंथनिरपेक्ष' या 'समाजवादी' शब्द शामिल नहीं थे. भारत को 'संप्रभु लोकतंत्रात्मक गणराज्य' के रूप में परिभाषित किया गया था. 'पंथनिरपेक्ष' और 'समाजवादी', इन दो शब्दों को साल 1976 में 42वें संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में जोड़ा गया था. प्रस्तावना में देर से जोड़ा गया यह शब्द जांच के दायरे में आ गया है, हालांकि इसके बीचे की असली वजह अज्ञात है.

आइए उन कुछ मामलों पर नजर डालते हैं, जिन्होंने इन भ्रामक अटकलों को हवा दी है कि क्या भारत वास्तव में “पंथनिरपेक्ष” या “समाजवादी” है भी.

सितंबर 2023 में, भारत की नई संसद का उद्घाटन बड़े ही हर्षोल्लास के साथ किया गया. वेलकम पैकेज के तौर पर सभी सांसदों को संविधान की एक कॉपी दी गई. संविधान की इस कॉपी में प्रस्तावना से "पंथनिरपेक्ष"और "समाजवादी" शब्द हटा दिए गए, जिससे राजनीतिक और शैक्षणिक हलकों में कोहराम मच गया. कानून मंत्री ने इन कॉपीज को "मूल प्रस्तावना" कहकर सरकार के इस कदम का बचाव किया. लेकिन सोचने की बात यह भी है कि क्या संविधान की इस मूल कॉपी में अब निरस्त किया जा चुका आर्टिकल 370 भी शामिल है?

जनवरी 2024 में भारत सरकार के आधिकारिक पेज और कुछ अन्य मंत्रियों द्वारा संविधान की "मूल प्रस्तावना" शेयर की गई. इसने नागरिकों से पिछले 75 वर्षों पर विचार करने और यह तय करने के लिए कहा कि 'न्यू इंडिया' ने इन सिद्धांतों पर कैसा प्रदर्शन किया है. फिर, ऐसा लगता है कि आम जनमानस का यही मानना है कि भारत 1976 में ही 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' बना था.
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देश की यह लोकप्रिय धारणा राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए एक खिलौना बन गई है. नेता 'मूल' या 'संशोधित' प्रस्तावना को इस आधार पर आगे बढ़ाते हैं कि वे खुद को राजनीतिक स्पेक्ट्रम में कहां पाते हैं.

संविधान की प्रस्तावना से इन दो शब्दों को हटाने के एक और गलत प्रयास में, अनुभवी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.

सुप्रीम कोर्ट के सामने चुनौती

सुप्रीम कोर्ट के सामने इन शब्दों को हटाने की मांग करने वाली यह पहली याचिका नहीं है, और यकीनन यह आखिरी भी नहीं होगी. वजह है कि कानूनी पृष्ठभूमि वाले राजनीतिक अवसरवादी इस बहती गंगा में हाथ धोने के लिए भागते हैं. आपको लग सकता है कि इस याचिका को पहले दिन ही खारिज कर दिया जाना चाहिए था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्वीकार करके इस सरगर्मी को कुछ और दिन के लिए हवा दे दी है.

इस मामले में सुनवाई जारी है. ऐसे में इसके दो प्रभाव हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं. पहला, चूंकि सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई को यूट्यूब पर लाइव स्ट्रीम किया जाता है और इसे रीयल-टाइम में वेबसाइटों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ट्रांसक्रिप्ट किया जाता है, इसलिए यह जजों द्वारा बोले गए किसी भी बात को 'जनमत' के लिए चारा बनने की अनुमति देता है.

दूसरा, कंटेट क्रिएशन की तेजी में बिना संदर्भ के कोर्ट में होती जिरह की रिपोर्टिंग का 'प्रस्तावना' की वैधता पर बुरा असर पड़ता है. तो, आइए उस मुख्य विवाद को जानें जिसने कमोबेश सुप्रीम कोर्ट का ध्यान आकर्षित किया है.

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर सवाल किया है कि आखिर जब संविधान की प्रस्तावना में संशोधन किया गया तब भी उसमें संविधान अधिनियमित और आत्मार्पित (स्वीकार) किए जाने की तारीख को ओरिजिनल (26 नवंबर 1949) ही बनाया रखा गया.

यह याद रखा जाना चाहिए कि अधिनियमन और स्वीकृति की तारीख न केवल प्रस्तावना, बल्कि पूरे संविधान को संदर्भित करती है. यदि यह तर्क दिया जाता है कि यदि टेक्स्ट में कोई बदलाव होता है तो स्वीकृति की तारीख में भी बदलाव करना होगा- फिर तो सुप्रीम कोर्ट को भारत के संविधान में सभी 106 संशोधनों को भी खारिज करना होगा क्योंकि उनमें से किसी में भी स्वीकृति की तारीख में बदलाव नहीं किया है.

डॉ स्वामी ने यह भी तर्क दिया कि प्रस्तावना में संशोधन बिना किसी बहस के संसद के माध्यम से पारित किया गया, जो इसकी वैधता पर सवाल उठाता है. हालांकि यह ऐसा दलदल है जिसमें शायद ही सुप्रीम कोर्ट उतरना चाहेगा. अभी हाल के संसद सत्रों को देख लीजिये- सांसदों का थोक में निलंबन हुआ, अधिक जरूरी मुद्दों पर चर्चा के लिए संसद के अंदर और बाहर विरोध के बावजूद कानून पारित किए गए.

प्रस्तावना में 'पंथनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' टर्म क्यों रहना चाहिए?

भारत हमेशा से पंथ-निरपेक्ष रहा है. भले ही इस शब्द को मूल प्रस्तावना में शामिल नहीं किया गया था, लेकिन यह भारत के संविधान के मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक सिद्धांतों के पूरे अध्याय में व्याप्त है.

भारत हमेशा समाजवादी रहा है. हालांकि हमने 1991 में अर्थव्यवस्था को उदार बना दिया है, लेकिन आबादी के एक बड़े हिस्से को अभी भी सर्वाइव करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की सामाजिक कल्याण योजनाओं की जरूरत है.

संविधान के सबसे स्मरणीय हिस्से के रूप में प्रस्तावना को निहित स्वार्थों से विशेष सुरक्षा की आवश्यकता है. सुप्रीम कोर्ट के पास प्रस्तावना में इन शब्दों के महत्व को स्पष्ट करने और यह वर्णन करने का एक असाधारण अवसर है कि कैसे पूरे संविधान में इन मूल्यों को पिरोया गया है. ऐसा अवसर सदी में एक बार आता है.

(लेखक जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल में संवैधानिक कानून पढ़ाते हैं. वे NLSIU, बैंगलोर में विजिटिंग फैकल्टी हैं और सेंटर फॉर कॉन्स्टिट्यूशनल लॉ स्टडीज में सीनियर रिसर्च एसोसिएट हैं. उनको sahibnoorsidhu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन पीस है. ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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