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सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने चुनावी बॉन्ड (Electoral Bond) योजना को गैर-कानूनी घोषित करते हुए कंपनी अधिनियम की धारा 182 (1) और धारा 182 (3) में वित्त अधिनियम 2017 द्वारा किए गए संशोधनों को भी असंवैधानिक घोषित कर दिया है.
कंपनी अधिनियम में इन दो संशोधनों ने कंपनियों (घाटे में चल रही कंपनियों सहित) को राजनीतिक चंदा देने की इजाजत दी थी. इसमें उस कॉरपोरेट चंदे की उस लिमिट को भी हटा दिया गया था जो पहले था- कंपनियां पिछले तीन वर्षों के अपने औसत मुनाफे का अधिकतम 7.5% ही चंदे के रूप में दे सकती थीं.
कंपनियों को एक वैधानिक आश्वासन भी दिया गया था कि किसी भी राजनीतिक दल की ओर से इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए दिए गए चंदे की जानकारियों का खुलासा नहीं किया जाएगा. भारतीय कंपनियों ने कंपनी अधिनियम के संशोधित प्रावधानों के अनुसार इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए 16 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का राजनीतिक चंदा दिया है, जो देश के कानून के दायरे में है.
लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इन सभी राजनीतिक चंदे को विशेष रूप से 13 मार्च 2024 तक सार्वजनिक करने का आदेश दिया गया है.
क्या इस फैसले ने इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने और राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने वाली कंपनियों को बीच मझधार में छोड़ दिया है? क्या यह जायज है?
इलेक्टोरल बॉन्ड और कॉर्पोरेट पॉलिटिकल फंडिंग देने वाली कंपनियों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के क्या नतीजे हो सकते हैं? क्या फैसले की तारीख से पहले इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए दिए गए चंदे के खुलासे को रोकने के लिए कुछ कदम उठाए जाने चाहिए?
इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने पर रोक लगाने के अलावा सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने वाली अकेली बैंक भारतीय स्टेट बैंक (SBI) को यह निर्देश दिया है कि वह भारत के चुनाव आयोग (ECI) को हरेक इलेक्टोरल बॉन्ड खरीद की तारीख और उसके रकम के साथ-साथ जिसने इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदा है, उसकी जानकारी देने है.
हालांकि किस कंपनी ने अलग-अलग राजनीतिक दल को कितना चंदा दिया, इससे संबंधित जानकारी तुरंत स्पष्ट नहीं हो पाएगी.
हरेक इलेक्टोरल बॉन्ड में खुली आंखों से न दिख पाने वाला खास नंबर होता है. सिर्फ वो नंबर ही चंदा देने वाली कंपनी और चंदा लेने वाली राजनीतिक दल के बीच के लेनदेन का खुलासा कर सकता है. लेकिन हर इलेक्टोरल बॉन्ड के उस खास नंबर को लेकर खुलासा करना सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों में शामिल नहीं है.
कंपनी अधिनियम की धारा 182 निषेध और प्रतिबंधों को निर्धारित करके कॉर्पोरेट राजनीतिक चंदा को नियंत्रित करती है. 2017 के संशोधनों से पहले कंपनी अधिनियम की धारा 182 (1) के प्रावधान में कहा गया था कि किसी भी वित्तीय वर्ष में राजनीतिक चंदा तीन पूर्ववर्ती वित्तीय वर्षों के दौरान कंपनी के हुए औसत शुद्ध लाभ के साढ़े सात प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगा.
इसके अलावा उप-धारा 182 (3) में हर कंपनी को अपने खातों में किसी राजनीतिक दल को चंदा देने वाली राशि का खुलासा करने के लिए अनिवार्य करती है. इन दो प्रावधानों के बारे में सभी का मानना था कि यह कॉरपोरेट राजनीतिक फंडिंग का पूरी तरह से पारदर्शी तरीका है.
दुर्भाग्य से कंपनियों ने इस पारदर्शी प्रणाली के तहत बहुत कम राजनीतिक चंदा दिया. चार सालों (2012-13 से 2015-16) में कंपनियों ने कुल 956.77 करोड़ रुपये का राजनीतिक चंदा दिया, जिसकी औसत प्रति वर्ष 240 करोड़ रुपये से भी कम थी.
लेकिन संशोधित कंपनी अधिनियम के रूप में मिले वैधानिक संरक्षण ने कॉर्पोरेट राजनीतिक फंडिंग को पंख दिया. इसमें लगभग छह सालों में खरीदे गए कुल 16,518 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड के साथ प्रति वर्ष 2,753 करोड़ रुपये का वार्षिक चंदा था. यह राशि इलेक्टोरल बॉन्ड के लागू किए जाने से पहले के समय के औसत से करीब 10 गुना अधिक है. इसमें बीजेपी को कुल चंदा का 60 प्रतिशत से थोड़ा कम मिला.
ये कंपनियां किसी उपकार की नीयत से प्राचीन चुनावी लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिए भारत में राजनीतिक चंदा नहीं देती हैं. बल्कि वे चंदा विशुद्ध रूप से व्यावसायिक नीयत से देते हैं.
सामान्य तौर पर कंपनियां किसी खास राजनीतिक दलों को दिए गए चंदा का खुलासा नहीं करना चाहती हैं. क्योंकि इलेक्टोरल बॉन्ड प्रणाली के जरिए यह तसल्ली दी गई थी इसलिए कंपनियों ने पूरी तरह से पारदर्शी बैंकिंग चैनलों के जरिए से इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने के लिए अपने वैध राजस्व का इस्तेमाल किया और अपने खातों में कुल चंदे की जानकारी दी. इस व्यावहारिक पारदर्शिता ने ही इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को प्रासंगिक बनाया.
धारा 182 में संशोधन रद्द होने के साथ ही उन कंपनियों ने कानून का उल्लंघन किया होगा घाटे जो घाटे में चल रही होंगी- क्योंकि पहले के कानून के हिसाब से वे इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए राजनीतिक चंदा नहीं दे सकती थी.
इसका असर भी पूर्वव्यापी रहेगा यानी अतीत से इसके तार जुड़ेंगे. इसी तरह जिन कंपनियों ने मुनाफे में 7.5 प्रतिशत से ज्यादा का योगदान दिया होगा वे भी कानून का उल्लंघन करती दिखेंगी.
हालांकि कंपनियों को अपने बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की ओर से सारे राजनीतिक दलों को दिए गए चंदे की बारीक जानकारी देनी होगी. हालांकि यह साफ नहीं है कि ऐसी कंपनियां गलत तरीके से किए गए चंदे को कैसे नियमित करेंगी और नियामक और कानून प्रवर्तन एजेंसियां इन अनियमित भुगतानों से कैसे निपटेंगी.
जिन कंपनियों ने देश के कानून के मुताबिक राजनीतिक चंदा देने के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड का इस्तेमाल किया, लेकिन अब पूर्वव्यापी तौर पर इसका उल्लंघन कर रहे हैं, उन्हें न केवल राजनीतिक बल्कि अनियमितताओं के नजरिए से भी खामियाजा भुगतना पड़ेगा.
इलेक्टोरल बॉन्ड अब अतीत बन चुका है. भारत में अब फिर से इलेक्टोरल बॉन्ड से पहले की व्यवस्था की शुरुआत हो चुकी है.
अब फिर कॉर्पोरेट राजनीतिक चंदे का पूरी तरह से पारदर्शी तरीका बहाल किया गया है. कंपनियां फंड की हेराफेरी और 20,000 रुपये से कम का नकद चंदा देने के पुराने बुरे दिनों में भी वापस आ सकती हैं.
हालांकि कंपनियों के लिए बिना नाम बताए चंदा देने की सुविधा खत्म होने वाली है और उन्हें इसके प्रभाव को झेलना होगा. यह सामने आ जाएगा कि उन्होंने किन राजनीतिक दलों को चंदा दिया है. उन्हें देश के उस कानून के उल्लंघन (संशोधन के पहले के कानून का उल्लंघन) का खामियाजा चुकाना होगा जिसका उल्लंघन उन्होंने असल में नहीं किया.
SBI और चुनाव आयोग को कंपनियों की ओर से खरीदे गए इलेक्टोरल बॉन्ड से संबंधित जानकारी का खुलासा करने के शीर्ष न्यायलय के निर्देशों को वापस लेने के लिए सरकार सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक समीक्षा याचिका दायर कर सकती है. कोर्ट से यह स्पष्ट करने की अपील करनी होगी कि कंपनी अधिनियम में संशोधनों को रद्द करने का प्रभाव केवल आगे के कॉरपोरेट डोनेशन पर हो- अतीत में किए गए डोनेशन पर नहीं.
इसके अलावा वैकल्पिक रूप से सरकार को फैसले के पूर्वव्यापी प्रभाव को बाहर निकालने के लिए कंपनी अधिनियम में संशोधन करने पर विचार करना चाहिए.
(लेखक भारत के पूर्व आर्थिक मामलों के सचिव और वित्त सचिव हैं. यह एक ओपिनियन है और ऊपर जाहिर किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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