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भले ही भारत के पास दुनिया की तीसरी विशाल सेना हो, लगभग इतनी ही तादाद में पैरामिलिट्री फोर्स हो और वह दुनिया की 10 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में एक हो और परमाणु हथियारों से लैस हो, लेकिन जब एक मुस्लिम पुरुष या महिला खुले मन से देश की स्थिति पर सच्चाई बयां करता है, तो इसकी जूतियां हिलने लग जाती हैं. देश की बुनियाद हिलने लग जाती है और यकायक एकता और अखण्डता खतरे में हो जाती है. कम से कम पुलिस के हिसाब से तो देश की ऐसी ही हालत है.
उमर खालिद का भाषण, मसरत जाहरा की तस्वीरें, अमूल्य लियोन के नारे और हुब्बाल्ली में तीन कश्मीरी छात्रों के द्वारा टिकटॉक के वीडियो के बाद पुलिस की ओर से ऐसी सख्त जवाबी कार्रवाई सामने आई. ऐसा आमतौर पर तानाशाही में होता है, जिसमें कानून के शासन या संवैधानिक अधिकारों की कोई सोच नहीं होती.
इस पर प्रतिक्रिया व्यापक रूप में कैजुअल इस्लामोफोबिया है. कॉमन कॉज और लोकनीति की एक रिपोर्ट है कि हर दो में से एक भारतीय पुलिसकर्मी का मानना है कि मुसलमान ‘स्वाभाविक रूप से’ अपराध करने के आदी होते हैं. 2019 की इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के नोट में कहा गया है कि भारतीय पुलिस बल में (तत्कालीन जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) मुसलमानों की उपस्थिति बहुत कम है. 2013 से उनकी हिस्सेदारी को लेकर आंकड़े नहीं रखे गए हैं. इन दोनों बातों को एक साथ जोड़कर देखें तो पुलिस के हालिया व्यवहार का जवाब मिल जाता है.
दूसरा संभावित उत्तर है दंड देने का अधिकार, जिसके साथ पुलिस भारत में काम करती है. वरिष्ठ अधिकारियों, अदालतों और यहां तक कि सिविल सोसायटी के कार्यों ने शायद ही कभी उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का ध्यान दिलाया है. पुलिस अत्याचार की शायद ही कोई ऐसी दास्तान हो, जिसमें किसी पुलिस अफसर ने उसे स्वीकार किया हो.
वास्तव में यह वह पुलिस बल नहीं है, जो उस हिसाब से कानून-व्यवस्था की रक्षा कर सके जो सत्ता के लिए आवश्यक है भले ही वह कानून-व्यवस्था की कीमत पर क्यों न हो. यह न सिर्फ उन स्थानों के लिए सही है, जहां भारत सरकार की सुरक्षाबलें तैनात हैं (जैसे उत्तर पूर्व और कश्मीर और आजादी के बाद अलग-अलग समय पर अलग-अलग हिस्सों में) बल्कि मुख्य भारतीय भूमि पर भी ऐसा ही है. पुलिस अपने अस्तित्व का तर्क देखती है जो सत्ता और सत्ता से चिपके लोगों की ताकत को बचाने में हुआ करता है.
सत्ता बदलने के बाद भी पुलिस के मिशन और फोकस में कोई बदलाव नहीं आता.
ज्यादातर बातचीत और लेखन में आम तौर पर यह बात उभर कर सामने आई है कि पुलिस में सुधार उन लोगों के ही हाथों से आएगा, जिन्हें ऐसा करने पर सबसे ज्यादा नुकसान होगा. यह है शासक वर्ग. यह बता पाना और भी मुश्किल है कि कैसे कोई स्थायी बदलाव लाया जा सकता है. भारतीय आबादी का बड़ा हिस्सा पुलिस को डर और अवमानना के साथ देखती रही है या फिर पुलिस का नजरिया भी इस आबादी के लिए कुछ वैसा ही बना हुआ है.
पुलिस और सरकार के व्यवहार और मेडिकल व म्यूनिसिपल कर्मचारियों पर हो रहे हमले को देखते हुए एक रेखा खींची जा सकती है. मुस्लिम बहुल इलाकों में COVID-19 मरीजों की जांच करने और उन्हें आइसोलेट करते वक्त ऐसी घटनाएं हो रही हैं. वैसे मामलों में भी इसे आजमाया जा सकता है, जिसमें COVID-19 के संभावित संक्रमित हमला करते हैं और उनकी जान लेते हैं और इस तरह इस समस्या से निपटने निकली सरकार के साथ अविश्वास दिखलाते हैं.
कोई उम्मीद कर सकता है कि सत्ता के गलियारे में पर्याप्त संख्या में ऐसे शांत और संवेदनशील लोग हैं जो यह मानते हैं कि महामारी से लड़ाई जनता के सहयोग के बगैर सम्भव नहीं है.
केवल ट्वीट के जरिए विदेशी राय रख देने मात्र से प्रताड़ित आबादी को भरोसा नहीं मिल जाता कि सरकार वास्तव में उनके हित में काम कर रही है. खासकर तब जबकि जमीनी हकीकत नाटकीय तरीके से बिल्कुल अलग हों. ऐसे समय में जबकि अच्छे दिन के लिए बड़े पैमाने पर पुलिस बल में सुधार का इंतजार है, तो शायद किसी नजरिए से इस बात को समझने की जरूरत है कि सत्ता के हितों की रक्षा फिजूल है अगर कोविड-19 के कारण जनता और अर्थव्यवस्था बर्बादी की ओर जा रहे हैं.
(आलोक प्रसन्ना कुमार बेंगलुरु में एडवोकेट हैं. उनसे @alokpi पर संपर्क किया जा सकता है. इस लेख में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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