ADVERTISEMENT

औरत ही औरत की दुश्मन होती है: कितना सच, कितना झूठ

यह कहा जाता है कि परिवार की औरतें ही नहीं चाहतीं कि घर में बेटियां जन्म लें.

Published
औरत ही औरत की दुश्मन होती है: कितना सच, कितना झूठ
i

रोज का डोज

निडर, सच्ची, और असरदार खबरों के लिए

By subscribing you agree to our Privacy Policy

यह बात इतनी बार कही गई है कि सच लगने लगती है. मिसाल के तौर पर, यह कहा जाता है कि परिवार की औरतें ही नहीं चाहतीं कि घर में बेटियां जन्म लें. ऐसे वाकयों की अक्सर चर्चा होती है कि बेटे की चाहत में सास और ननद ही बहू को अल्ट्रासाउंड के लिए ले जाती हैं और गर्भ में बेटी होने का पता चलने पर एबॉर्शन करवाती हैं. या अक्सर यह कहा जाता है कि सास ही बहू की सबसे बड़ी दुश्मन होती है.

ननदों को भी अक्सर परिवार में टकराव का रिश्ता मान लिया जाता है. बाल विवाह करवाने में भी मां और मौसी जैसी रिश्तेदारों की भूमिका मान ली जाती है. यहां तक कि बेटों के नाम सारी पैतृक जायदाद लिखवाने और बेटियों को संपत्ति में हिसा न देने की जिद करती माताओं के किस्से भी आम हैं.

ADVERTISEMENT
इन धारणाओं के मजबूत होने में फिल्मों, टीवी सीरियल, किस्से-कहानियों, गानों, लोककथाओं आदि की बहुत अहम भूमिका है. महिलाओं के कुछ खास चरित्र अक्सर खलनायिकाओं के तौर पर ही दिखाए जाते हैं. सास और बहू के रिश्तों को कड़वाहट भरा दिखाने का चलन इन माध्यमों में आम है. ननद और भाभी अक्सर झगड़ते ही दिखाए जाते हैं.

हालांकि इस चलन के अपवाद भी मौजूद हैं. भाषाई प्रयोग में भी अक्सर महिलाओं को लेकर गलत मुहावरों और लोकोक्तियों का चलन नजर आता है. यह सब सुनते-देखते बड़े हुए लोग अगर इन धारणाओं को सच मान लें, तो इसे स्वाभाविक ही माना जाएगा.

प्रतीकात्मक तस्वीर
(फोटो: istock)

ऐसा नहीं है कि महिला होने मात्र से सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो जाता है. लोकधारणा में महिलाओं की जैसी छवि बनाई गई है, वैसी महिलाएं सचमुच होती हैं. महिलाओं का रिश्ते में नकारात्मक भूमिका निभाना कोई अजूबा नहीं है. लेकिन यह चलन जितना आम बताया जाता है, उसे पुष्ट करने के लिए तथ्य नहीं होते. साथ ही रिश्तों में नकारात्मक भूमिका निभाने वाले पुरुष भी हैं, लेकिन पुरुषों के बारे में यह नहीं कहा जाता कि पुरुष ही पुरुषों के दुश्मन हैं.

फिल्मों में ससुर, देवर या दामाद को विलेन के तौर पर नहीं दिखाया जाता. जो बेटा पैतृक जायदाद में अपनी बहन का हक मार लेता है, वह भी समाज की नजर में विलेन नहीं है, बल्कि बहनों को ही हक त्याग (पैतृक जायदाद से हिस्सा न लेना) सिखाया जाता है. और जो बहन हिस्सा ले लेती है, उनको बुरी बहन की नजर से देखा जाता है. हिस्सा न देने वाले बाप को भी धिक्कारा नहीं जाता है.

बहरहाल, ‘महिला ही महिला की दुश्मन होती है’ वाली लोकधारणा की तीन तरीके से समीक्षा हो सकती है.

1. इन तमाम आरोपों में जो बात बुनियादी तौर पर गलत है, वह यह कि घर के रिश्तों में महिलाओं को स्वायत्त और फैसला लेने में सक्षम मान लिया जाता है. क्या परिवार के फैसले करने में औरतों की इतनी हिस्सेदारी होती है कि उन फैसलों के लिए उन्हें दोषी करार दिया जाए? बहू के परिवार से दहेज आए, ऐसी इच्छा लड़के की मां की हो सकती है, लेकिन दहेज लेना है या नहीं या कि कितना दहेज लेना है, ये फैसला परिवार के पुरुष ही करते हैं.

इसी तरह, बेटी को जायदाद में हक न देने का फैसला भी बाप और बेटे मिलकर करते हैं. मां की भूमिका ऐसे फैसलों में कम ही होती है. मां की वह बात जरूर मान ली जाती है, जो पितृसत्ता के अनुकूल होती है और फैसले के लिए अपराधी चुनने की नौबत आने पर मां मौजूद होती ही हैं.

गर्भ में बेटी का पता चलने पर गर्भपात कराने के लिए बहू को ले जानी वाली सास परिवार के पुरुषों की इच्छा के मुताबिक ही यह करती हैं. यह बेशक मुमकिन हो कि सास भी ऐसा ही चाहती हों. जब वो सास बहू होती है, उस समय खुद उससे बेटा पैदा करने की चाह रखी जाती है, और अगर वो उसमें असफल हो जाती है तो घरेलू हिंसा और दूसरे तरीके से भेदभाव का शिकार होती है.
‘औरत’ फिल्म का एक सीन

2. यहां सवाल उठता है कि एक सास, जो खुद औरत है, ऐसा क्यों चाहती हैं कि बेटी का जन्म न हो? या एक सास दहेज न लाने वाली बहू को जलाने में क्यों शामिल हो जाती है? माताएं क्यों कई बार बेटियों की पढ़ाई छुड़ाने की कोशिश करती हैं? माताएं बाल विवाह का समर्थन क्यों करती हैं?

इन परिस्थितियों में महिलाएं बेशक खलनायिका नजर आती हैं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि महिलाएं भी उसी सामाजिक परिस्थिति की उपज हैं, जिसमें पुरुषवादी विचार हावी होते हैं. महिलाएं भी उन्हीं किस्से-कहानियां, सीरियल, फिल्में देखती बड़ी होती हैं, जिनमें पुरुष होने को श्रेष्ठ माना जाता है और औरतें दोयम दर्जे की या सहयोगी भूमिकाओं में होती हैं.

3. अच्छी औरत की परिभाषा समाज का पुरुष ही तय करता है और औरतें भी उसी परिभाषा के मुताबिक दूसरी औरतों को अच्छा या बुरा मानती हैं. सास की ट्रेनिंग होती है कि बहू को कंट्रोल में रखना चाहिए. वैसे ही बहू की ट्रेनिंग होती है कि पति को सास के असर से बचाना उसका कर्तव्य है. ऐसी ट्रेनिंग के कारण पुरुषसत्ता को पोषण करने में महिलाएं भी अनजाने ही शामिल हो जाती हैं.

महिलाओं को अगर पितृसत्ता ढोना नहीं सिखाया जाता, तो पितृसत्ता इतने लम्बे समय तक नहीं टिकी रहती. यह कंडिशनिंग या प्राइमरी सोशलाइजेशन का परिणाम है.

लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसा करते हुए भी वे सक्रिय कर्ता नहीं, विक्टिम या पैसिव या डमी रोल में ही होती हैं. यह भी नहीं है कि वे परिवार और समाज की मान्यताओं के खिलाफ जाकर व्यवहार करने लगेंगी. अपने परिवार की अन्य महिला के खिलाफ उनका होना, एक सांस्कृतिक प्रक्रिया का परिणाम है. यह सब कहते हुए यह नहीं भूलना चाहिए कि महिलाओं के बारे में

इन सारी नेगेटिव भूमिकाओं में भी महिला पितृसत्ता को ही कायम कर रही है, मातृसत्ता को नहीं.

इसलिए यह कहना सही नहीं है कि औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं. औरतों को समानता की लड़ाई औरतों के खिलाफ नहीं, पुरुष सत्ता के खिलाफ लड़नी है. औरतें जहां पर औरतों की दुश्मन की शक्ल में नजर भी आती हैं, वहां वे अपनी स्वतंत्र सत्ता के साथ ऐसा नहीं करती हैं.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

ADVERTISEMENT
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
0
3 माह
12 माह
12 माह
मेंबर बनने के फायदे
अधिक पढ़ें
ADVERTISEMENT
क्विंट हिंदी के साथ रहें अपडेट

सब्स्क्राइब कीजिए हमारा डेली न्यूजलेटर और पाइए खबरें आपके इनबॉक्स में

120,000 से अधिक ग्राहक जुड़ें!
ADVERTISEMENT
और खबरें
×
×