यह एक हेडलाइन अखबारों और चैनलों और अब वेबसाइट पर हर साल गर्मियों के महीने में आती है. खबर आती है कि 12वीं में लड़कियों ने बाजी मारी. और फिर खबर आती है कि 10वीं में लड़कियों ने लड़कों को पीछे छोड़ा. लगभग दो दशक से हर साल यह हो रहा है. इस साल भी यही हुआ. सीबीएसई के 12वीं बोर्ड में टॉप तीन में से दो स्थान पर लड़कियां हैं. इस साल की ओवरऑल टॉपर लड़की है.
10वीं में टॉप पोजिशन को चार स्टूडेंट्स ने शेयर किया है. उनमें से तीन लड़कियां हैं. हर साल की तरह इस बार भी लड़कियों का पास परसेंटेज ज्यादा है. फर्स्ट डिविजन भी वही ज्यादा लाती हैं. यह कई साल से चल रहा है. भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश के स्कूलों में लड़कों से ज्यादा लड़कियां पढ़ रही हैं. यानी स्कूली शिक्षा को कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है, जिसमें लड़कियां आगे न हों.
अब इसके मुकाबले कुछ और सूचनाओं और फैक्ट्स पर ध्यान दें.
- आईआईटी में इस समय पढ़ रहे स्टूडेंट्स में लड़कियों की संख्या सिर्फ 8 फीसदी है. हाल के वर्षों में लड़कियों का आईआईटी में सबसे ज्यादा एडमिशन 2015 में हुआ, जब 9 फीसदी लड़कियां आईआईटी में आईं.
- आईआईएम में भी लड़कियों की संख्या काफी कम है. आईआईएम अहमदाबाद के 2016 के बैच में सिर्फ 21.2 फीसदी लड़कियां हैं. आईआईएम कोलकाता के 463 स्टूडेंट्स में सिर्फ 76 लड़कियां हैं. आईआईएम कोझिकोड में सिर्फ 27 फीसदी लड़कियां हैं.
- भारत के सर्वोच्च न्यायालय में आज तक कभी भी एक साथ दो से ज्यादा महिला जज नहीं रहीं. आजादी के बाद से अब तक सिर्फ सात महिलाएं सुप्रीम कोर्ट में जज बनी हैं. सुप्रीम कोर्ट में एक से ज्यादा महिला जज का चमत्कार भी इसी साल पहली बार हुआ है.
- ब्रिटिश कौंसिल के एक अध्ययन के मुताबिक, भारत के 431 विश्वविद्यालयों में सिर्फ 13 में महिला कुलपति यानी वाइस चांसलर हैं. यह आंकड़ा सिर्फ 3 फीसदी है. इसी अध्ययन के मुताबिक प्रोफेसर पदों पर सिर्फ 1.4 फीसदी महिलाएं हैं. केंद्र सरकार के 46 विश्वविद्यालयों में से सिर्फ पांच में महिला वाइस चांसलर हैं.
- भारत की कंपनियों के बोर्ड में सिर्फ 12.4 फीसदी महिलाएं हैं. बोर्ड की अध्यक्ष होने के मामले में महिलाओं का आंकड़ा 3.2 फीसदी है. यह स्थिति तब है जबकि 2013 के संशोधित कंपनी कानून के मुताबिक, शेयर बाजार में लिस्टेड हर कंपनी और हर बड़ी पब्लिक लिमिटेड कंपनी के लिए अपने बोर्ड में कम से कम एक महिला को रखना अनिवार्य कर दिया गया है. ज्यादातर कंपनियों के मालिकों ने इस जरूरत की भरपाई अपने परिवार की किसी महिला को बोर्ड में शामिल करके कर ली है. लेकिन महिलाओं का आंकड़ा बेहद कम बना हुआ है.
इन पांचों सूचनाओं को साथ 12वीं और 10वीं के रिजल्ट को साथ रखकर देखें, तो क्या तस्वीर बनती है? यही न कि लड़कियां जब स्कूल में होती हैं, तो पढ़ने-लिखने में अव्वल होती हैं, लेकिन उसके बाद उनके साथ ऐसा कुछ होता है कि टॉप के पदों पर वे नहीं पहुंच पाती हैं?
इसके लिए दो सस्ते तर्क आम तौर पर दिए जाते हैं कि स्कूल की पढ़ाई आसान होती है. लड़कियां अच्छा कर लेती हैं. जब मुश्किल पढ़ाई सामने आती है, तो लड़के आगे निकल जाते हैं. या फिर यह है कि स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद लड़कियां आलसी हो जाती हैं.
ये दोनों तर्क बेहद पुरुषवादी और साथ ही बेहद कमजोर हैं. और इन्हें पुष्ट करने के लिए कोई आधार नहीं है.
दरअसल, स्कूली पढ़ाई में लड़कियों के बेहतर परफॉर्मेंस और बाद में चलकर उनके पिछड़ने और फिर करियर के टॉप या देश के शिखर पदों पर पहुंचने से पहले उनका लापता हो जाना एक गंभीर समस्या है और इसका उतनी ही गंभीरता से अध्ययन होना चाहिए. देश की आधी आबादी अगर पढ़-लिखकर आगे न बढ़े और देश के फैसला लेने वाले पदों तक न पहुंचे तो राष्ट्रीय मानव श्रम शक्ति का बड़ा नुकसान है. यह देश के विकास में एक बड़ी बाधा है.
वैसे भी भारत दुनिया के उन देशों में है, जहां महिलाओं की वर्कफोर्स में हिस्सेदारी दुनिया में सबसे निचले स्तर पर है. ब्लूमबर्ग-क्विंट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2015 में भारत में फीमेल वर्कफोर्स पार्टिसिपेशन सिर्फ 23.7 फीसदी है. शहरों में तो सिर्फ 16 फीसदी महिलाएं कामकाजी हैं. मेकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की जीडीपी में महिलाओं का योगदान 17 फीसदी है, जबकि चीन की अर्थव्यवस्था में महिलाओं का योगदान 41 फीसदी है. विश्व का औसत 37% है.
आप समझ सकते हैं कि लड़कियों का जीवन में कामकाजी तौर पर सफल न होना भारत के लिए कितना नुकसानदेह है. यह चिंता की बात होनी चाहिए कि भारत की लगभग 65 फीसदी ग्रेजुएट महिलाएं कामकाजी नहीं हैं. घर में वे जो काम करती हैं, उसकी जीडीपी यानी देश की अर्थव्यवस्था में गिनती नहीं होती. इस बारे में संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनडीपी ने अपनी रिपोर्ट में पूरा ब्योरा दिया है.
टॉपर बेटियों के टॉप पर न पहुंच पाने के कुछ संभावित कारण ये हो सकते हैं.
1. कोचिंग के लिए लड़कियों को भेजने में कंजूसी
मेडिकल, इंजीनियरिंग या मैनेजमेंट के टॉप संस्थाओं में एडमिशन के लिए कोचिंग का चलन आम है. कोचिंग के दौरान एक्सपर्ट किसी खास कोर्स या नौकरी की तैयारी कराते हैं. यह आम पढ़ाई से अलग है और इस पर खासा खर्च है. जिन घरों में लड़के या लड़की में से किसी एक को कोचिंग में भेजने की आर्थिक हैसियत होती है, वहां पलड़ा लड़के की तरफ झुक जाता है.
कई परिवार आर्थिक हैसियत होते हुए भी लड़की की कोचिंग नहीं कराते, क्योंकि लड़की की उच्च शिक्षा उनकी प्राथमिकता में नहीं होता. ऐसे परिवारों में लड़कियां अक्सर शादी तय होने तक पढ़ती हैं.
2. लड़कियों को बड़े शहरों में भेजने से परहेज
देश के ज्यादातर उच्च शिक्षा संस्थान और बड़े कोचिंग संस्थान बड़े शहरों में हैं. गांव, कस्बों और छोटे शहरों के कई परिवार लड़की को अकेले पढ़ने के लिए परिवार से दूर नहीं भेजना चाहते. इसकी एक वाजिब वजह यह हो सकती है कि वे घर से दूर लड़की की सुरक्षा को लेकर आश्वस्त नहीं होते. लेकिन उनके दिमाग में एक और चिंता यह भी होती है कि अगर लड़की बिगड़ गई तो? लड़की के चरित्र को लेकर सामंतवादी सोच हावी होने के कारण वे लड़की को शादी होने तक अपनी निगरानी में ही रखना चाहते हैं.
3. परिवार, समाज और स्कूल का हिडेन करिकुलम यानी गुप्त पाठ्यक्रम
स्कूल और कोचिंग सेंटर एक पढ़ाई तो वह कराते हैं, जो सिलेबस में होती है. इसे कोई भी देख सकता है और यह पढ़ाई अलग अलग संस्थानों में काफी हद तक समान हो सकती है. लेकिन एक प्रशिक्षण और होता है, जो अक्सर बाहर से नजर नहीं आता. यह ट्रेनिंग आत्मविश्वास सिखाने की, लक्ष्य के लिए सघन प्रयास की मानसिकता बनाने की और ऊंचाई को छूने के सपने जगाने की होती है.
परिवार और समाज में यह ट्रेनिंग अक्सर लड़कों को दी जाती है. उनकी ट्रेनिंग में बार-बार यह कहा जाना शामिल है कि तुम्हें ही आगे चलकर परिवार की विरासत को आगे ले जाना है, या कि मां-बाप के सपनों को तुम्हीं पूरा करोगे, या कि मर्द होकर इतना नहीं कर सकते. इसके विपरीत लड़कियों को आत्मविश्वास तोड़ने की और सपनों को छोटा करने की ट्रेनिंग दी जाती है.
4. टॉप पर पहुंचने के रास्ते में रुकावटें
ये रुकावटें कई बार करियर शुरू होने के साथ ही नजर आने लगती हैं. लड़कियों को अक्सर कम महत्व के एसाइनमेंट दिए जाते हैं. उन्हें सॉफ्ट नेचर के काम के उपयुक्त मानने की स्टीरियोटाइपिंग भी होती है. जब लड़कियां करियर के शुरुआती दौर में होती हैं, तभी अक्सर उनकी शादी होती है और बच्चे भी होते हैं. इस दौरान अगर संस्थान बहुत प्रगतिशील नहीं रहा तो करियर ब्रेक आ जाता है या सीनियॉरिटी चली जाती है.
मेनोपॉज के दौरान की हारमोनल, मानसिक उथल-पुथल भी महिलाओं के करियर को प्रभावित करती है, जिस दौरान दफ्तर का सहयोगी माहौल बेहद जरूरी होता है, जो कई बार नहीं मिल पाता. इन सबको लीकिंग पाइप फेनोमेना कहा जाता है. इनकी वजह से लड़कियां करियर में शुरुआत या बीच में ही पिछड़ जाती है.
इसके अलावा टॉप मैनेजेरियल पोजिशन पर उनके पहुंचने को रोकने के लिए ग्लास सीलिंग जैसी एक अदृश्य सी चीज होती है, जो बहुत असरदार तरीके से काम करती है.
यह एक बड़ा मुद्दा है और बड़ी बहस की मांग करता है. इसमें कई असहज करने वाले सवाल भी खड़े होंगे. लेकिन इनसे टकराए बिना राष्ट्र निर्माण में आधी आबादी की पूरी हिस्सेदारी सुनिश्चित नहीं हो पाएगी.
(ये आर्टिकल गीता यादव ने लिखा है. लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं.इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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