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“वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ.” इंदिरा गांधी ने इन दस मामूली शब्दों के साथ 1971 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी दलों के विशाल मोर्चे को हरा दिया था. उस ‘महागठबंधन’ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (ओ), संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (SSP), प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (PSP), स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ के बीच गठबंधन था. इसमें के. कामराज, मोरारजी देसाई, एस निजलिंगप्पा, मीनू मसानी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेता थे.
इनमें से कुछ नेता इंदिरा गांधी से भी अधिक समय तक राष्ट्रीय राजनीति और कांग्रेस पार्टी में सक्रिय रहे थे.
इसके अलावा कांग्रेस पार्टी को ठीक दो साल पहले 1969 में कांग्रेस (O) और कांग्रेस (I) के बीच बंटवारे का सामना करना पड़ा था, ‘O’ का मतलब असली था और ‘I’ का मतलब इंदिरा था, इसका मतलब था कि वह कांग्रेस की इकलौती नेता नहीं थीं; सत्ता के लिए उनकी दावेदारी को चुनौती देने के लिए पार्टी के कई दिग्गज एक साथ मिल गए थे.
अब फटाफट साल 2024 पर आ जाते हैं, और आज हमारे पास 26 विपक्षी दलों के महागठबंधन का एक नया रूप है, जिसकी हाल ही में मुंबई में तीसरी बैठक संपन्न हुई है.
पिछले वाले के उलट इसने अपना एक आकर्षक नाम INDIA (Indian National Developmental Inclusive Alliance या भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन) दिया है. अगर कोई इसके सभी साझेदार दलों के नेताओं के भाषणों को सुने तो यह साफ हो जाएगा कि इनका मुख्य एजेंडा अगले संसदीय चुनावों में मोदी को हराना है.
इससे एक सवाल उठता है: क्या हम मोदी को इंदिरा गांधी के चुनावी नारे से एक लाइन उधार लेते हुए और मौजूदा महागठबंधन को अपने ही एक नारे के साथ मुकाबला करते हुए देखेंगे─ “वे कहते हैं मोदी हटाओ, और मैं कहता हूं ....... हटाओ?”
इसके जवाब का एक हिस्सा ऊपर लिखे नारे में खाली जगह को भरने में मोदी को होने वाली कठिनाई में छिपा है. उनके नारे में गरीबी की जगह क्या हो सकता है? क्या वह मतदाताओं से कहेंगे: “वे कहते हैं मोदी हटाओ, मैं कहता हूं भ्रष्टाचार हटाओ?” “वे कहते हैं मोदी हटाओ, मैं कहता हूं परिवारवाद हटाओ?” “वे कहते हैं मोदी हटाओ, मैं कहता हूं तुष्टिकरण हटाओ?”
याद कीजिए, इस साल लाल किले से स्वतंत्रता दिवस के भाषण में मोदी ने ‘भ्रष्टाचार’, ‘परिवारवाद’ और ‘तुष्टिकरण’ को तीन ऐसी बुराइयां बताया है जिनसे हमारे देश को हर हाल में छुटकारा पाना चाहिए.
इंदिरा गांधी के नारे में इन बदलावों में सभी के साथ समस्या यह है कि 2024 में ‘भ्रष्टाचार हटाओ’, ‘परिवारवाद हटाओ’ और ‘तुष्टिकरण हटाओ’ में मतदाताओं को रिझाने की उतनी गहरी भावनात्मक अपील नहीं होगी जितनी 1971 में इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ में थी.
उन्होंने 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके लोगों का दिल जीत लिया था. उन्होंने आजादी से पहले की रियासतों के राजाओं का प्रिवी पर्स खत्म करने का वादा किया था. बाद में 1971 में उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में देश की अगुवाई की, जिसमें पाकिस्तान का बंटवारा हुआ और बांग्लादेश अस्तित्व में आया.
(विषय से इतर मैं यहां अपने जीवन से जुड़ी एक बात साझा करने की अनुमति चाहता हूं. कर्नाटक के एक छोटे से शहर में 14 वर्षीय स्कूली छात्र के रूप में, जिसकी राजनीति में कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि नहीं थी, मैं तत्कालीन प्रधानमंत्री के गरीबी उन्मूलन के वादे से इतना सम्मोहित था कि मैं भी स्थानीय कांग्रेस-आई उम्मीदवार की जीत के लिए नारे लगाने वालों में शामिल हुआ, और उन्होंने शानदार जीत हासिल की थी.)
दस साल तक पद पर रहने और अब तीसरे कार्यकाल के लिए मोदी भ्रष्टाचार मिटाने के अपने वादे से मतदाताओं को रिझा नहीं कर सकते. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उनकी अपनी पार्टी के समझौतों से लोग पूरी तरह वाकिफ हैं.
जब वह कहते हैं कि देश की राजनीति को परिवारवादी पार्टियों से आजाद होना चाहिए तो निश्चित रूप से इस बात में दम है. लेकिन इस वादे पर मोदी को एक और जनादेश नहीं मिलने वाला है क्योंकि हमारे मतदाता अभी भी इसे बहुत बड़ा मुद्दा नहीं मानते हैं.
इसलिए, मतदाताओं के सामने मोदी की अपील उनकी सरकार के दो कार्यकाल की कामयाबियों और उन्हें आगे बढ़ाने और मजबूत करने के वादे पर निर्भर करेगी. इसमें कोई शक नहीं है कि भारत ने 2014 के बाद से कुछ क्षेत्रों में ठीक तरक्की की है. हमारी अर्थव्यवस्था दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले काफी बेहतर प्रदर्शन कर रही है. हमारे बुनियादी ढांचे का आधुनिकीकरण और विस्तार जिस तरह हुआ है वह लोगों को दिखाई देता है, भले ही इस मामले में भारत अभी भी चीन से बहुत पीछे है.
हमारा राजमार्गों का विश्वस्तरीय नेटवर्क पहले के मुकाबले बहुत बड़ा हो गया है. हाल की रेल दुर्घटनाएं दुखद हैं मगर वंदे भारत ट्रेनों की मौजूदगी ने भारतीय रेलवे को एक नया तेवर दिया है─ और यह मध्यवर्ग की ख्वाहिशमंद जनता की निगाहों से छिपा नहीं है, जिसका आकार बढ़ता जा रहा है.
दुनिया में भारत की छवि काफी मजबूत हुई है और यह भी मोदी सरकार के लिए एक बड़ी उपलब्धि है. इसके अलावा, जहां तक BJP के समर्पित हिंदुत्व वोट की बात है, यह उनकी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति से प्रभावित होता रहेगा.
बुनियादी सवाल यह है: क्या यह सब मोदी को नए जनादेश की गारंटी देने के लिए काफी है? सवाल को दूसरे तरीके से पूछें तो: अगर BJP जीत भी जाती है, तो क्या उसका जनादेश 2019 में उसे मिले जनादेश, यानी 303 सीटों के बराबर होगा या उसके पास भी पहुंच पाएगा? फिलहाल, पहले सवाल का जवाब है: इसकी काफी संभावना है. दूसरे सवाल का जवाब है: इसकी संभावना बहुत कम है.
BJP खुद घबराई हुई दिख रही है क्योंकि वह भी जानती है कि आर्थिक मोर्चे पर उसकी सरकार के प्रदर्शन में दो बड़ी खामियां हैं─ कीमतों पर काबू पाने में नाकामी और बढ़ती नौजवान आबादी के लिए भरपूर नौकरियां पैदा करने में नाकामी.
इसके अलावा, कम से कम मतदाताओं के एक वर्ग का जिसने 2014 और 2019 में मोदी का समर्थन किया था─ हम उन लोगों की बात ही नहीं कर रहे जिन्होंने समर्थन नहीं किया था─ लोकतांत्रिक संस्थानों पर सरकार के हमलों से उसका मोहभंग हो गया है.
सबसे खास बात यह है कि 2019 में जिस चीज ने चुनाव को निर्णायक रूप से मोदी के पक्ष में मोड़ दिया था, वह मतदान से ठीक तीन महीने पहले पुलवामा में आतंकवादी हमला और भारत का फौरन सीमा पार पाकिस्तान के बालाकोट पर जवाबी हमला था. कम से कम अभी तक, BJP के पक्ष में वैसा राष्ट्रवादी उत्साह पैदा करने वाली कोई घटना नहीं हुई है.
इन दलों की हर नई बैठक के साथ─ पहले 23 जून को पटना में, फिर 17-18 जुलाई को बेंगलुरु में, और अब 31 अगस्त- 1 सितंबर को मुंबई में─ विपक्षी एकता का सूचकांक ऊपर जाता दिख रहा है.
INDIA गठबंधन ने मुंबई बैठक में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया है: “जहां तक मुमकिन होगा हम अगला लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ने का संकल्प लेते हैं. अलग-अलग राज्यों में सीट-बंटवारे की व्यवस्था जल्द शुरू की जाएगी और परस्पर सहयोग की भावना के साथ जल्द से जल्द पूरी की जाएगी.”
अगर महागठबंधन इस संकल्प पर अमल कर पाता है और ज्यादा से ज्यादा सीटों पर BJP के खिलाफ एक साझा उम्मीदवार खड़ा कर पाता है, तो BJP को पिछले दो चुनावों में विपक्षी वोटों के बंटवारे का जो बड़ा फायदा मिला था, वह खत्म हो सकता है.
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने इसे असरदार ढंग से सामने रखते हुए कहा: “हमारा गठबंधन भारत की 60 फीसद आबादी की नुमाइंदगी करता है और अगर पार्टियां असरदार ढंग से एक साथ आती हैं, तो BJP के लिए जीत नामुमकिन है. मैं देख सकता हूं कि जिस तरह से हम चीजों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं, उसमें सभी नेताओं के बीच सामांजस्य है.’’
INDIA गठबंधन को कई बड़े राज्यों में यह सामांजस्य दिखाने की जरूरत होगी. तृणमूल कांग्रेस (TMC) सुप्रीमो ममता बनर्जी, समाजवादी पार्टी (SP) नेता अखिलेश यादव और आम आदमी पार्टी (AAP) नेता अरविंद केजरीवाल की मौजूदगी निश्चित रूप से गठबंधन के लिए मनोबल बढ़ाने वाली है, मगर कांग्रेस और इन पार्टियों के बीच पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और पंजाब/दिल्ली में सीट-बंटवारे की व्यवस्था आसान नहीं होगी.
दो महीने के छोटे वक्त में, INDIA गठबंधन ने असरदार तरक्की की है. अगर राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव समय पर होते हैं तो इसकी ताकत और आत्मविश्वास और बढ़ सकती है, क्योंकि कांग्रेस इन राज्यों में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए तैयार दिख रही है.
(संसदीय और राज्य विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे पर विचार करने के मोदी सरकार के कदम के बाद अब इन चुनावों के इस साल के अंत में तय कार्यक्रम पर होने को लेकर थोड़ी अनिश्चितता है.)
(लेखक ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी के तौर पर काम किया है और भारत-पाकिस्तान-चीन में सहयोग के लिए काम करने वाले Forum for a New South Asia के संस्थापक हैं. इनका ट्विटर हैंडल @SudheenKulkarni है. इनसे sudheenkulkarni@gmail.com. पर भी संपर्क किया जा सकता है. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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