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शुरुआत ही कश्मीर (Kashmir) में नई चुनावी सीमाओं का सीमांकन एक विवादित प्रक्रिया रही है. अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के पहले पूर्व राज्य में चुनावी क्षेत्रों के परिसीमन की कोशिश जम्मू एंड कश्मीर (J&K) रिप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपुल ऐक्ट 1957 के तहत किए जा रहे थे. इसी कानून के मुताबिक 1995 में जम्मू और कश्मीर में विधानसभा सीटों की संख्या 75 से बढ़ाकर 87 की गई थी.
2002 में सत्ताधारी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने नए विधानसभा क्षेत्र बनाने पर रोक लगा दी. ये कदम देश के अन्य हिस्सों में इसी तरह के कदम को देखते हुए उठाया गया था. इसने जम्मू आधारित कुछ दलों को नाराज किया होगा जो इस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट ले गए लेकिन यहां भी उन्हें निराशा हाथ लगी और न्यायपालिका ने रोक को बरकरार रखा.
हालांकि अगस्त 2019 में जम्मू और कश्मीर के लिए विशेष कानून जिस अनुच्छेद 370 के तहत बने हैं उसे ही खत्म कर दिया गया और परिसीमन पर रोक बरकार रखने वाले आदेश सहित करीब-करीब उसके सभी प्रावधानों को निष्क्रिय कर दिया गया.
नए जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 ने नए विधानसभा क्षेत्रों का विस्तार करना जरूरी कर दिया. नए अधिनियम के तहत नई 83 सीटों वाली विधानसभा (बाकी की चार सीटें केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में चली गईं थी) में कुल 90 सीटें होना अनिवार्य कर दिया गया था. परिसीमन का महत्वपूर्ण हिस्सा ये देखना था कि सात अतिरिक्त सीटें किस इलाके को मिलती हैं.
सर चकरा देने वाली इस जटिल अफसरशाही प्रक्रिया की और भी परतें हैं. जम्मू और कश्मीर के परिसीमन के साथ उत्तर पूर्व के चार राज्यों की विधानसभा सीटों का परिसीमन भी किया जाना था. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से, मार्च में, आयोग को अपनी रिपोर्ट देने के लिए एक साल का समय दे दिया गया और अन्य चार राज्यों को इसके दायरे से हटा दिया गया. इस बात के आरोप लग रहे थे कि इस तरह की प्रक्रिया इन राज्यों में “असंवैधानिक और गैर कानूनी” थी. इसके बाद से ही सवाल उठाए जाते रहे हैं कि क्यों जो एक के लिए अच्छा है वो सबके लिए अच्छा नहीं है.
इसके अलावा, भले ही संविधान का अनुच्छेद 82 राज्य की जनसंख्या को सीटों के आवंटन के लिए “मुख्य आधार” बनाता है (जो कि पूरी दुनिया में स्वीकृत नियम भी है), भारतीय जनता पार्टी (BJP) भूगोल को एक अहम पैमाने के तौर पर शामिल करने की जरूरत पर काफी जोर देती रही है.
ये इसलिए है क्योंकि जम्मू की आबादी कश्मीर की तुलना में कम है लेकिन क्षेत्रफल के हिसाब से बड़ा इलाका है.
यहां तक कि सोमवार को जारी आयोग की आधिकारिक विज्ञप्ति में कहा गया है, “ परिसीमन अधिनियम, 2002 की धारा 9 (1) (ए), जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 की धारा 60 (2), (बी) के साथ पढ़ी जाती है जो निर्दिष्ट करती है कि सभी निर्वाचन क्षेत्र, जहां तक संभव हो, भौगोलिक दृष्टि से सघन क्षेत्र होंगे और भौतिक विशेषताओं, प्रशासनिक इकाइयों की मौजूदा सीमाओं, संचार की सुविधाओं और सार्वजनिक सुविधाओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए.”
इस साल की शुरुआत में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा ने भी कहा था
हालांकि, कानूनी विशेषज्ञ इस दलील को संदेह की दृष्टि से देखते हैं. एक कानूनी विद्वान डॉ शेख शौकत ने कहा “ जनसंख्या ही हमेशा से मुख्य पैमाना है. बाकी सब को उतना महत्व नहीं दिया जाता है. लेकिन ऐसा लगता है कि उनकी योजना जम्मू-कश्मीर के बहुसंख्यक समुदाय को कमजोर करने की है. यहां तक कि इस प्रक्रिया के पीछे की कानूनी प्रक्रिया भी दुर्भावनापूर्ण है.”
कुछ दिनों पहले, नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अचानक ही परिसीमन आयोग की निर्धारित बैठक में शामिल होने की इच्छा जताई थी, जो कि पार्टी के लंबे समय से रुख से बिल्कुल अलग है. नेशनल कॉन्फ्रेंस का रुख रहा कि विधानसभा क्षेत्रों के फिर से निर्धारण पर किसी तरह की बातचीत का मतलब “ 5 अगस्त, 2019 की घटनाओं को स्वीकार करने जैसा होगा, जिसके लिए नेशनल कॉन्फ्रेंस करने के लिए तैयार नही है”.
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) ने ये कहते हुए लगातार बैठकों में हिस्सा लेने से इनकार किया है कि आयोग के पास “संवैधानिक और कानूनी अधिकार नहीं हैं” और ये कश्मीर में लोगों को राजनीतिक रूप से “कमजोर” करने में तेजी लाने के लिए किया गया है.
पार्टियों की ओर से आयोग की बैठकों से दूर रहने को इस आधार पर सही ठहराया गया था कि उनकी हिस्सेदारी “मायने नहीं रखेगी”. PDP का तर्क था कि इस समय उनकी पार्टी का कोई भी सदस्य सांसद या विधानसभा सदस्य नहीं है. PDP ने कहा कि “ जिस तरह से आयोग की रूप-रेखा तैयार की गई है, केवल चुने गए जनप्रतिनिधी ही इसमें हिस्सा ले सकते हैं”.
जहां तक उन पार्टियों का सवाल है जिनके सांसद या विधायक हैं, उनके लिए एक अलग ही स्थिति है. कश्मीर से नेशनल कॉन्फ्रेंस के तीन सांसदों में एक हसनैन मसूदी ने दिलचस्प बात की ओर ध्यान दिलाया. इस साल गर्मी के दौरान प्रेस से बात करते हुए उन्होंने कहा कि “ आयोग में हमलोग असोसिएट मेंबर हैं और हमारे पास असहमति का कोई अधिकार नहीं है, वीटो पावर भी नहीं है, हमारी असहमति भी रिकॉर्ड नहीं की जाएगी और साथ ही हमारी राय भी दर्ज नहीं की जाएगी.”
सोमवार को, आखिरकार, ये खबर आई कि आयोग की रिपोर्ट का पहला ड्राफ्ट असोसिएट मेंबर्स के साथ साझा किया गया है. ‘पेपर 1’ की बातें छन कर प्रेस में आ गईं और इसने कश्मीर में बड़ा विवाद खड़ा कर दिया, सभी दलों के नेताओं ने आयोग पर नियमों के विरुद्ध जाने का आरोप लगाया. ड्राफ्ट के मुताबिक सात में छह नई सीटें जम्मू इलाके में होंगी जबकि एक सिर्फ कश्मीर में. इसके अलावा नौ सीटें अनुसूचित जनजाति और सात सीटें अनुसूचित जाति श्रेणी के लिए आरक्षित रहेंगी.
दरअसल इसका मतलब ये होगा कि प्रस्तावित विधानसभा में कश्मीर कम सीट शेयर (52.2 फीसदी) के साथ संघर्ष करेगा जबकि पूरे जम्मू-कश्मीर की जनसंख्या में उसकी हिस्सेदारी 56.2 फीसदी है. दूसरी ओर जम्मू को विधानसभा में अधिक प्रतिनिधित्व मिल जाएगा-इसकी सीट का हिस्सा (47.8 फीसदी) इसकी जनसंख्या में हिस्सेदारी (43.8 फीसदी) से काफी बड़ा होने जा रहा है.
BJP और इसके नेता हमेशा ये कहते रहे हैं कि राज्य के दर्जे की बहाली विधानसभा सीटों के पुनर्निर्धारण पर निर्भर करेगी. ऐसी शिकायतें थीं कि 5 अगस्त 2019 की घटनाओं के परिणामस्वरूप पूर्व राज्य में बने राजनीतिक गतिरोध को खत्म करने में केंद्र सरकार विफल रही है.
पहली कोशिश संभवत: जनवरी 2019 में की गई जब कई पूर्व विधायकों ने तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर जीसी मुर्मू से मुलाकात की. इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व PDP-BJP गठबंधन सरकार में पूर्व मंत्री अल्ताफ बुखारी ने किया था. PDP-BJP का गठबंधन 2018 की गर्मियों में टूट गया था. इसके तुरंत बाद, बुखारी ने अपनी अलग पार्टी जम्मू और कश्मीर अपनी पार्टी बनाई थी, जो उन नए राजनीतिक समूहों में शामिल है जिन्होंने अपने एजेंडे में अनुच्छेद 370 बहाली की मांग नहीं की है.
इसके बाद केंद्र सरकार ने कुछ और कोशिश की. पिछले साल मोदी सरकार ने डिस्ट्रिक्ट डेवलपमेंट काउंसिल (डीडीसी) बनाने का रास्ता साफ करने और जम्मू और कश्मीर में गवर्नेंस की नई इकाइयां तैयार करने के लिए जम्मू और कश्मीर पंचायती राज ऐक्ट, 1989 में संशोधन किया.
अपनी तरफ से केंद्र शासित प्रशासन ने चुने गए डीडीसी को जम्मू और कश्मीर में जगह देने के लिए जम्मू और कश्मीर पंचायती राज रूल्स, 1996 में भी बदलाव किया. पूरे 73वें संवैधानिक संशोधन को लागू कर ऐसा किया गया.
स्थानीय नेताओं ने परस्पर व्याप्त प्रशासनिक ढांचा बनाने की ये कहते हुए आलोचना की कि “ भ्रम फैलाने, विधायकों की भूमिका कम करने और लोकतंत्र के नाम पर प्रतीकात्मकता की गई है क्योंकि अपने कानून बनाने की लोगों की क्षमता को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है.”
BJP ने जिन चुनावों को कश्मीर में “जमीनी लोकतंत्र” के सबूत के तौर पर पेश किया था उसके एक साल बाद डीडीसी अध्यक्षों का कहना है कि घाटी में सत्ता के हद से ज्यादा नौकरशाही भरे पैटर्न से उनकी फैसले लेने की क्षमता कम हो गई है. उनकी शिकायत गैर-बजटीय अधिकारों और रहने के अपर्याप्त जगह की है.
जुलाई में आयोग के जम्मू और कश्मीर दौरे के दौरान, करीब-करीब सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने परिसीमन की प्रक्रिया को लेकर आपत्ति जताई थी और किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए उसे लेकर सुझाव दिया था.
लेकिन ऐसा लगता है कि मोदी सरकार अपने सबसे पसंदीदा तरीके का इस्तेमाल कर विरोध को शांत करने में कामयाब रही: जुलाई में जिस दिन पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने परिसीमन आयोग की बैठक का बहिष्कार किया, प्रवर्तन निदेशालय ने श्रीनगर में उनकी बुजुर्ग मां को समन जारी कर दिया. उन्होंने एक ट्वीट में लिखा “ ईडी ने अज्ञात आरोपों को लेकर मेरी मां को व्यक्तिगत तौर पर पेश होने का समन भेजा है. राजनीतिक विरोधियों को डराने की अपनी कोशिश के तहत भारत सरकार बुजुर्ग नागरिकों को भी नहीं बख्शती.”
(शाकिर मीर एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, जिन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया और द वायर सहित अन्य प्रकाशनों के लिए रिपोर्ट किया है. वह @shakirmir पर ट्वीट करते हैं.)
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