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Jammu Kashmir New Reservation Policy: जम्मू-कश्मीर में कई समुदायों के लिए आरक्षण देने के इरादे से केंद्रीय गृह मंत्रालय ने संसद में चार विधेयक पेश करने का फैसला किया है, लेकिन इस फैसले से इस पूर्ववर्ती राज्य में एक राजनीतिक विवाद उभर रहा है.
भले ही इस क्षेत्र में हिंसा का स्तर अब तक के सबसे निचले स्तर पर है, (प्रभावी आतंकवाद विरोधी अभियानों की बदौलत), लेकिन अगस्त 2019 के बाद लागू किए गए संवेदनशील संरचनात्मक परिवर्तनों के कारण यह केंद्र शासित प्रदेश बारूद का ढेर बना हुआ है.
बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने बीते चार वर्षों में इस केंद्र शासित प्रदेश में संपूर्ण राजनीतिक, चुनावी, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं को बदलने के लिए हर संभव प्रयास किये हैं.
अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के कुछ ही महीनों बाद, हमने शीर्ष नेताओं को अपनी मूल पार्टियों से अलग होते और रातों-रात उभरे नए मोर्चों के आसपास एकजुट होते देखा है. हमने उन्हें "नई वास्तविकताओं" के बारे में चर्चा शुरू करने और उनके साथ "सामंजस्य बैठाने" की आवश्यकता पर जोर देते हुए देखा है.
आगे जाकर 2020 में जब जम्मू-कश्मीर में जिला विकास परिषद (डीडीसी) के लिए चुनाव हुए, तब पूर्ववर्ती राज्य में रुकी हुई राजनीतिक प्रक्रिया को फिर से शुरू करने की कवायद के रूप में इसको सराहा गया था.
केंद्र शासित प्रदेश अभी जिस मोड़ पर है, उसकी वजह से विधानसभा चुनाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. अनुच्छेद 370 को रद्द करने के निर्णय के लिए ऐसी विधानसभा की मंजूरी आवश्यक थी. चूंकि इस तरह की सहमति पहले सुनिश्चित नहीं की गई थी, इसलिए जहां तक जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 की वैधता को कानूनी चुनौती देने का सवाल है, तो इसके गंभीर परिणाम होने की संभावना है. इसी अधिनियम की वजह से ये सभी परिवर्तन पैदा हो रहे हैं.
बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के इरादों चाहे जितने नेक हों, ऐसा प्रतीत होता है कि इसके हालिया कदम ने जम्मू-कश्मीर में सामाजिक दरार ला दिया है. चूंकि केंद्र सरकार की नीतियां घाटी में लोगों को अलग-थलग कर रही हैं, इसलिए बीजेपी सद्भावना की कमी की भरपाई के लिए क्षेत्र के सामाजिक और वर्ग विभाजन का फायदा उठाने को तैयार है, ऐसे में यह एक रिमाइंडर भी है. केंद्र सरकार के इन कदमों की बारीकी से जांच करने में यह संकेत मिलता है कि ये कदम केंद्र शासित प्रदेश में बीजेपी की चुनावी और राजनीतिक समीकरणों के बहुत करीब हैं.
जम्मू-कश्मीर की अनंतनाग सीट के सांसद हसनैन मसूदी ने इन बिलों के बारे में कहा है कि "जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक 2019 को ध्यान में रखते हुए और चूंकि इसकी वैधता को पहले ही भारत की शीर्ष अदालत में चुनौती दी जा चुकी है, ऐसे में आप बिल कैसे पेश कर सकते हैं." उन्होंने कहा चूंकि इन बिलों को पेश किया जाना पहले से तय था इसलिए उन्हें संसद में पेश किया है.
आइए अब जो चार बिल पेश किए गए हैं उनकी बात करते हैं. पहला बिल, 'जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2023', इस विधेयक में जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश की विधान सभा में 'कश्मीरी प्रवासियों', 'पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू और कश्मीर के विस्थापित व्यक्तियों' और 'अनुसूचित जनजातियों' को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान किया गया है. इस बिल का उद्देश्य यह बताया जा रहा है कि "इससे इन वर्गों के राजनीतिक अधिकारों के साथ-साथ उनके समग्र सामाजिक और आर्थिक विकास को संरक्षित किया जा सकेगा."
इस विधेयक में दो नई धाराओं, 15ए और 15बी को शामिल किया गया है और यह विधेयक विधानसभा में दो सदस्यों को नामित करने का प्रावधान करता है. इनमें से एक महिला होगी, जो कश्मीरी प्रवासी समुदाय और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (PoK) की विस्थापितों से होगी.
यह कदम परिसीमन आयोग द्वारा संभव हुआ, जिसे मार्च 2020 में जम्मू-कश्मीर में चुनावी निर्वाचन क्षेत्रों को फिर से तैयार करने के लिए बनाया गया था. 2021 में इस आयोग ने विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों (विधानसभा सीटों) की संख्या 83 से बढ़ाकर 90 कर दी थी.
विधेयक में कश्मीरी हिंदुओं और पंडितों के 46 हजार 517 परिवारों के साथ-साथ कुछ मुसलमानों और सिखों का भी हवाला दिया गया है, जो 1989 में आतंकवाद की शुरुआत के साथ इस क्षेत्र से विस्थापित हो गए थे और विस्थापन के परिणामस्वरूप देश के विभिन्न हिस्सों में बिखरे हुए थे. बिल में प्रस्तुत आंकड़ों के एक अन्य सेट में, सरकार का कहना है कि 31 हजार 779 परिवार ऐसे हैं जो 1947 में पहले भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान POK से पूर्ववर्ती राज्य जम्मू-कश्मीर में चले गए थे.
इनमें से 26 हजार 319 परिवार जम्मू-कश्मीर में बस गए जबकि 5 हजार 460 परिवार भारत के अन्य हिस्सों में चले गए. बिल में बताया गया है कि 1965 और 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य संघर्ष के दौरान और 10 हजार 65 परिवार विस्थापित हुए थे. इस तरह, इन सभी वर्षों के दौरान जम्मू-कश्मीर छोड़कर अन्य स्थानों में जाने वाले विस्थापित परिवारों की कुल संख्या 41 हजार 844 हो गई है.
विधेयक में कहा गया है कि परिसीमन आयोग ने नामांकन के माध्यम से विधानसभा में इन समुदायों के प्रतिनिधित्व की सिफारिश की थी.
जम्मू-कश्मीर में विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों को "तोड़-मरोड़कर" संशोधित (फिर से आकार देने) करने को लेकर परिसीमन आयोग की पहले से ही आलोचना की जा रही है. जैसा कि परिसीमन आयोग की फाइनल रिपोर्ट से जुड़े असहमति नोट में कहा गया है, "डूरू की जनसंख्या लगभग तीन निर्वाचन क्षेत्रों (पद्दार, श्री माता वैष्णव देवी और जम्मू के बानी निर्वाचन क्षेत्रों) की जनसंख्या के बराबर है." "जहां एक ओर डूरू की 2 लाख से थोड़ी कम आबादी के पास विधानसभा में एक सदस्य होगा, वहीं दूसरी ओर उपरोक्त 3 निर्वाचन क्षेत्रों से लगभग समान आबादी के लिए विधानसभा में तीन सदस्य होंगे. इसलिए, डूरू के लोग निर्णय लेने में समान हितधारक और शासन में समान भागीदार नहीं हो सकते हैं."
दूसरा बिल, 'संविधान (जम्मू और कश्मीर) अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) विधेयक, 2023' है, जोकि जम्मू-कश्मीर के अनुसूचित जनजाति आदेश, 1989 में संशोधन करता है ताकि इस केंद्र शासित प्रदेश में अनुसूचित जनजातियों की सूची में 'गड्डा ब्राह्मण', 'कोली', 'पद्दारी जनजाति' और और 'पहाड़ी जातीय समूह' समुदायों को शामिल किया जा सके. इससे अब जम्मू-कश्मीर में अनुसूचित जनजातियों की कुल संख्या 15 हो जाएगी.
तीसरा बिल, 'संविधान (जम्मू और कश्मीर) अनुसूचित जाति आदेश (संशोधन) विधेयक, 2023' है. इस विधेयक में जम्मू-कश्मीर की एससी (अनुसूचित जाति) सूची में 'चूरा, भंगी, बाल्मीकि और मेहतर' समुदायों के पर्याय के रूप में ‘वाल्मीकि’ को जोड़ने का प्रस्ताव है.
चौथा बिल, 'जम्मू और कश्मीर आरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2023' है. इस विधेयक में "कमजोर और वंचित वर्गों (सामाजिक जातियों)" शब्द को "अन्य पिछड़ा वर्ग" में बदलने का प्रस्ताव है.
कश्मीर विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले पॉलिटिकल साइंटिस्ट (राजनीतिक वैज्ञानिक) नूर अहमद बाबा के अनुसार, "ऐसा प्रतीत होता है कि इस सब में बहुत सारा अंकगणित लगाया गया है." "ऐसा लगता है कि आबादी के कुछ हिस्सों को बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि चुनावी आधार का विस्तार किया जा सके. यह काम करता है या नहीं, यह एक अलग सवाल है."
गुज्जर-बकरवाल यूथ वेलफेयर कॉन्फ्रेंस (एक ट्राइबल एक्शन ग्रुप) के मुखिया जाहिद परवाज के अनुसार, "गुज्जरों को एसटी का दर्जा इसलिए दिया गया ताकि हम ऊंची जातियों की बराबरी कर सकें. लेकिन यह कदम (नया बिल जो पेश किया गया है) उन वर्गों को उन लाभों पर अतिक्रमण करने की अनुमति देता है जो आदर्श रूप से हमें मिलना चाहिए."
वे आगे कहते हैं कि "कॉर्पोरेट, अमीर लोग और ऊंची जातियां अब जाति का लाभ उठाती हैं. जाति-आधारित सकारात्मक कार्रवाई का कोई आर्थिक या भाषाई आधार नहीं हो सकता. पहाड़ी की कोई परिभाषा नहीं है. जम्मू-कश्मीर में पहाड़ी लोगों को ये लाभ मिलने के बाद 300 जातियां सीधे एसटी दर्जे में शामिल हो जाएंगी.''
आरक्षण के लाभ को लेकर गुज्जरों और पहाड़ियों के बीच प्रतिस्पर्धा तब से है, जब 1991 में सरकार ने गुज्जरों, बकरवाल, गड्डी और सिप्पी समुदायों को एसटी के रूप में अधिसूचित किया था.
इस समावेशन ने शैक्षणिक संस्थानों और सार्वजनिक सेवा तक उनकी पहुंच को तेजी से ट्रैक किया और शासकीय संरचनाओं में उनके प्रतिनिधित्व को बढ़ाया.
चूंकि एसटी का दर्जा मिलने के बाद गुज्जरों की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों में काफी सुधार हुआ, इसलिए पहाड़ी जैसे अन्य समुदायों द्वारा भी इसी तरह की मांगें उठाई गईं.
परिसीमन के हिस्से के रूप में, नौ सीटें 'अनुसूचित जनजातियों' (एसटी) के लिए आरक्षित की गईं, जिनमें से अधिकांश पीर पंजाल क्षेत्र में हैं, जहां बड़ी संख्या में पहाड़ी रहते हैं. अतीत में यह क्षेत्र बीजेपी के लिए चुनावी तौर पर बहुत अनुकूल नहीं रहा है.
2014 के विधानसभा चुनावों के दौरान, BJP ने क्षेत्र की सात विधानसभा सीटों में से केवल दो पर जीत हासिल की थी. डीडीसी चुनावों में, पुंछ और राजौरी डीडीसी के लिए चुने गए अध्यक्ष गैर-बीजेपी दलों से जुड़े थे.
हालांकि, ऐसा करने पर पार्टी को नए घाव भी लग सकते हैं. जम्मू के एक संपादक, लेखक और राजनीतिक विश्लेषक जफर चौधरी का कहना है कि "पहाड़ियों के लिए एसटी का दर्जा सामाजिक पहचान के समग्र पुनर्गठन का हिस्सा है. इसका असर मौजूदा जम्मू-कश्मीर विशिष्ट आरक्षित श्रेणियों जैसे पिछड़े क्षेत्र (RBA) और वास्तविक नियंत्रण रेखा (ALC) से सटे क्षेत्र के निवासियों और कमजोर और वंचित वर्गों/सामाजिक जातियों (OSC) पर पड़ेगा."
चौधरी ने कहा कि चूंकि सभी आरक्षणों को 50 प्रतिशत की सीमा के तहत रखा जाना है, इसलिए संभावना है कि इन मौजूदा कोटा में बदलाव होगा. "इसका मतलब है कि पारंपरिक लाभार्थियों का कंसंट्रेशन (संकेंद्रण) मौजूदा क्षेत्रों से नए क्षेत्रों में शिफ्ट हो सकता है."
घाटी में कश्मीरी पंडित नेताओं ने भी आरक्षित सीटें देने के बारे में बहुत प्रतिकूल दृष्टिकोण अपनाया है. श्रीनगर की कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के प्रमुख संजय टिक्कू का कहना है कि "यह बीजेपी की वोट बैंक की राजनीति के लिए है."
टिक्कू कहते हैं कि इस तरह के आरक्षण से पूरे समुदाय को कोई लाभ नहीं हुआ. इसके साथ ही उन्होंने कहा कि "हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों को बीजेपी में दोयम दर्जे की भूमिका निभाने के बजाय पंडित समुदाय को आवाज देनी चाहिए थी."
(शाकिर मीर एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उन्होंने The Wire.in, Article 14, Caravan, Firstpost, The Times of India, आदि के लिए भी लिखा है. उनका ट्विटर हैंडल @shakirmir है. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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