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J&K Row: नागरिक अधिकारों को खत्म करने का क्या नया चलन है पासपोर्ट पुलिसिंग?

Jammu-Kashmir में नेताओं पर यात्रा प्रतिबंध लगाए गए हैं, जिसकी वजह से लेखकों ने इसके कानूनी आधार पर बहस छेड़ दी है

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पिछले चार वर्षों में जम्मू-कश्मीर (Jammu and Kashmir) में कई बदलाव हुए हैं. उन बदलावों ने पूर्व राज्य में पुलिसिंग के तरीके के बारे में नई वास्तविकताएं उजागर की हैं. फरवरी 2019 में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) के काफिले पर आत्मघाती हमले के बाद से ही केंद्र सरकार ने अलगाववादियों और आतंकवादी सहयोगियों के खिलाफ संगठित कार्रवाई में और ज्यादा तेजी ला दी है.

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पीछे मुड़कर देखें तो इसे जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने की दिशा में एक कदम के रूप में देखा गया. हालांकि, इस कार्रवाई के कई पहलू अगस्त 2019 के प्रकरण के बाद से ही बढ़े हैं और, अगर आलोचकों की मानें तो, और अधिक मनमाने ढंग से बढ़े हैं.

जम्मू-कश्मीर में विशिष्ट लोगों, विशेषकर राजनेताओं, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को देश छोड़ने से रोकने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है. हाल ही में, श्रीनगर में एक विशेष राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) अदालत ने दक्षिण कश्मीर के पुलवामा क्षेत्र के एक राजनीतिक नेता वहीद उर रहमान पारा को इस साल 2023 में येल पीस फेलोशिप में भाग लेने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था.

वहीद उर रहमान पारा के खिलाफ 2020 में आतंकवाद का मामला दर्ज किया गया था. एनआईए जांचकर्ताओं ने उन पर चुनावी लाभ के लिए आतंकवादी समूहों के साथ अपने कथित संबंधों का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है. हालांकि, जम्मू, कश्मीर और लद्दाख (JK&L) उच्च न्यायालय ने पिछले साल उन्हें इस आधार पर जमानत दे दी थी कि "अभियोजन पक्ष द्वारा एकत्र किए गए सबूत इतने अस्पष्ट हैं कि प्रथम दृष्टया (वह भी अपीलकर्ता को जमानत देने से इनकार करने के उद्देश्य से) सच माना जाना मुश्किल है."

इसके बावजूद भी अमेरिका में प्रतिष्ठित फेलोशिप में हिस्सा लेने की उनकी प्लानिंग विफल हो गई, क्योंकि श्रीनगर में एनआईए कोर्ट ने अमेरिका जाने की अनुमति देने के उनके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया था. कोर्ट जब उनकी अपील खारिज की थी तब यह तर्क दिया था कि इस कदम से न केवल उस मामले की सुनवाई में बाधा आएगी, जो साक्ष्य के स्तर पर है, बल्कि इस बात की "वास्तविक आशंका" है कि पारा देश छोड़ देगा.

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प्रतिकूल पृष्ठभूमि का मामला

वहीद उर रहमान पारा का मामला एकमात्र मामला नहीं है जिसने हाल ही में जम्मू-कश्मीर में लोगों को विदेश जाने से रोकने के लिए आतंकवाद कानूनों के इस्तेमाल या राष्ट्र-विरोधी व्यवहार के आरोपों पर बहस छेड़ दी है.

जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती को लेकर भी जम्मू-कश्मीर पुलिस के आपराधिक जांच विभाग (CID) द्वारा एक "प्रतिकूल" रिपोर्ट पेश की गई थी. इल्तिजा मुफ्ती के अतीत के प्रतिकूल मूल्यांकन के कारण अधिकारियों से कानूनी पासपोर्ट प्राप्त करने के उनके प्रयास बाधित हो गए.

पिछले साल जून में इल्तिजा मुफ्ती ने अपने पासपोर्ट के नवीनीकरण के लिए आवेदन किया था, लेकिन जब उन्हें कोई रिस्पॉन्स नहीं दिया गया तो उन्होंने जेके एंड एल हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. मुफ्ती ने कहा कि चूंकि उन्हें फेलोशिप का ऑफर मिला है, इसलिए उनका इरादा विदेश में मास्टर प्रोग्राम की पढ़ाई करने का है. इसके बाद, अधिकारियों ने उसे केवल दो वर्षों के लिए वैध देश-विशिष्ट (country-specific) पासपोर्ट जारी किया था.

द क्विंट से बात करते हुए इल्तिजा मुफ्ती ने बताया कि "उन्होंने (अधिकारियों ने) यह नहीं बताया कि उन्होंने मुझे एक विशेष राष्ट्र के लिए पासपोर्ट क्यों जारी किया. मेरा पासपोर्ट इस साल जनवरी में एक्सपायर हो गया. नियम यह है कि कोई भी व्यक्ति समाप्ति तिथि (एक्सपायरी डेट) से छह महीने पहले यात्रा नहीं कर सकता. इसलिए मैंने पिछले साल जून में पासपोर्ट रीन्यू कराने के लिए आवेदन किया था. फरवरी तक जब मैं अदालत नहीं गई थी, तब तक वे यह नहीं बता पा रहे थे कि वे मेरा पासपोर्ट रीन्यू कर रहे हैं या नहीं. अनऑफिशियली, शायद उनका इरादा मुझे पासपोर्ट देने का नहीं था, लेकिन आधिकारिक तौर पर उनके पास कोई शब्द नहीं थे."

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यात्रा पर प्रतिबंध लगाने का कानूनी ढांचा

जम्मू-कश्मीर में कई व्यक्तियों पर यात्रा प्रतिबंध लगाने से इस बात पर बहुत ही जोर-शोर से बहस छिड़ गई है कि इस तरह के कदमों को किस हद तक कानूनी आधार प्राप्त है.

श्रीनगर स्थित रिटायर्ड लॉ प्रोफेसर डॉ. शेख शौकत ने कहा कि "अतीत में, यह केवल अलगाववादियों और उन आम युवाओं तक ही सीमित था, जिनकी विरोध प्रदर्शनों में भागीदारी हो सकती है. लेकिन अब यह जाल मुख्यधारा के राजनेताओं तक भी फैल गया है."

उन्होंने बताया कि "मेनका गांधी Vs भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा था कि विदेश यात्रा का अधिकार जीवन के अधिकार का हिस्सा है." यह फैसला 25 जनवरी 1978 को सर्वोच्च न्यायालय की 7-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया था. जिसमें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और 21 (जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा) की अविभाज्यता पर जोर दिया गया था और इस निर्णय ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कानूनी समझ को व्यापक बनाया.

शौकत ने कहा कि इस निर्णय के व्यापक निहितार्थ थे और इसने देश भर में प्रशासनिक काम करने वालों की मनमानी ज्यादतियों को रोकने में मदद की. उन्होंने आगे कहा, "हालांकि पूर्वोत्तर राज्य और जम्मू-कश्मीर अपनी संघर्षपूर्ण पृष्ठभूमि के कारण अपवाद बने हुए हैं."

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नो फ्लाई लिस्ट को लेकर पत्रकारों में डर

आर्टिकल 370 के निरस्त होने के बाद से, जम्मू-कश्मीर में "राष्ट्र-विरोधी" समझी जाने वाली हर अभिव्यक्ति पर एक नपी-तुली कार्रवाई देखी गई है. और चूंकि यह शब्द बहुत अस्पष्ट और व्यापक है, इसलिए कभी-कभी आलोचनात्मक कथनों को भी इसके दायरे में लाना आसान हो गया है. केंद्र शासित प्रदेश (UT) में काम करने वाले कई पत्रकारों का कहना है कि इसका तत्काल परिणाम पत्रकारिता की स्वतंत्रता को कम कर रहा है. हालिया दिनों की बात करें तो एक पुलित्जर पुरस्कार विजेता सहित कम से कम चार पत्रकारों को विदेश जाने से प्रतिबंधित कर दिया गया है. अगर उनके खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज हुई भी है तो उन्हें इसकी जानकारी नहीं दी गई है.

जेके एंड एल हाई कोर्ट के एक वकील ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "इस तरह की हरकतें बहुत मनमानी हैं." उन्होंने कहा कि “यहां तक कि अगर किसी पर किसी भी चीज का आरोप लगाया जाता है, लेकिन उनकी यात्रा करने की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करना मुश्किल है. ऐसा तभी होता है जब अदालत इस आशंका से आश्वस्त हो जाती है कि संबंधित व्यक्ति कानून से बचने की कोशिश कर सकता है, और जब अदालत उनकी जमानत में ऐसी शर्तें लगाती है, जिससे उन्हें वैध रूप से यात्रा करने से रोका जा सके."

वकील ने कहा, हालांकि "पासपोर्ट अधिकारी किसी को देश से बाहर जाने से रोक सकते हैं या पासपोर्ट जब्त कर सकते हैं, लेकिन फिर भी उन्हें उचित आधार प्रस्तुत करने होंगे. विस्तृत आरोप पर्याप्त नहीं होंगे."

खुद को विमान से उतारे जाने का डर इस कदर है कि घाटी के कई पत्रकारों ने आलोचनात्मक मामलों पर रिपोर्टिंग करना बंद कर दिया है.

पहचान न बताने की शर्त पर एक 27 वर्षीय कश्मीरी पत्रकार ने द क्विंट को बताया कि "“नो-फ्लाई-लिस्ट ने हम सभी को डरा दिया है. कोई भी इसको लेकर निश्चित नहीं है कि वहां (लिस्ट में) कौन है और कौन नहीं. उन्होंने क्या अपराध किया है और उस लिस्ट में शामिल न होने के लिए उन्हें क्या करने की जरूरत है."

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आग भड़काने वाला और देशद्रोही नैरेटिव

जम्मू-कश्मीर पुलिस के महानिदेशक (DGP) ने पिछले साल कहा था कि "कुछ पत्रकार" विदेश गए थे और वहां से "जहरीले प्रकार के नैरेटिव" फैला रहे थे. उन्होंने कहा, "इसलिए एहतियात के तौर पर, आपको कुछ लोगों को निगरानी सूची में रखना होगा. और उन्हें इस निगरानी सूची में रखने का मतलब यह है कि उन्हें विदेश यात्रा की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, मुझे लगता है कि यह काफी तार्किक है. ऐसे मामले पहले भी आ चुके हैं. हम इसे सार्वजनिक नहीं कर सकते हैं."

जब इस सवाल पर दबाव डाला गया कि पुलिस इस तरह के प्रतिबंधों का कारण बताने में सक्षम नहीं है, तब डीजीपी ने कहा, ''उन्हें कोर्ट जाने दीजिए. हम देखेंगे कि क्या कहने की जरूरत है.”

सकारात्मक न्यायिक हस्तक्षेप

UT (केंद्र शासित प्रदेश) में हर कोई इस मुद्दे को न्यायपालिका में घसीटने को तैयार नहीं दिखता. हालांकि, ऐसा करने वाले कुछ लोग, मुख्य तौर पर राजनेता और उनके रिश्तेदार, आश्चर्यजनक रूप से अदालतों से अनुकूल फैसले प्राप्त करने में सक्षम हुए हैं, न्यायाधीशों ने कभी-कभी अधिकारियों की कठोर निंदा भी की है.

यह इस साल जनवरी में हुआ, जब जेके एंड एल उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने "सीआईडी के मुखपत्र" के रूप में कार्य करने के लिए अधिकारियों को फटकार लगाई थी और उन्हें महबूबा मुफ्ती की अस्सी वर्षीय मां गुलशन नजीर के पासपोर्ट से जुड़े मामले की फिर से जांच करने का निर्देश दिया था.
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अदालत के फैसले में कहा गया है कि "याचिकाकर्ता के खिलाफ ऐसा कोई आरोप नहीं है जो किसी भी सुरक्षा चिंताओं की ओर इशारा करता हो", और आगे कहा गया कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा तैयार की गई पुलिस सत्यापन रिपोर्ट पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 6 (जो कि यात्रा दस्तावेजों को अस्वीकार करने से संबंधित है) के वैधानिक प्रावधानों का स्थान नहीं ले सकती है. इसके अलावा, अदालत ने कहा "क्षेत्रीय पासपोर्ट अधिकारी और अपीलकर्ता प्राधिकारी द्वारा जिन रिपोर्ट्स पर भरोसा किया गया था उनमें भी किसी भी सुरक्षा चिंताओं के संबंध में उनके खिलाफ कुछ भी प्रतिकूल दर्ज नहीं किया गया है."

इसी तरह इस महीने की शुरुआत में, लंबी कानूनी लड़ाई के बाद दिल्ली उच्च न्यायालय ने अधिकारियों को महबूबा मुफ्ती को फिर से पासपोर्ट जारी करने का आदेश दिया.

मुफ्ती ने कहा कि वह अपनी मां के साथ हज यात्रा पर जाना चाहती थीं. उनका पासपोर्ट 31 मई 2019 को एक्सपायर हो गया था. दो महीने बाद, जैसे ही केंद्र सरकार ने पूर्व राज्य को विभाजित करने और उसकी अर्ध-स्वायत्त स्थिति को रद्द करने का कदम उठाया, मुफ्ती को हिरासत में ले लिया गया था. 2020 में उन्होंने अपने पासपोर्ट को रीन्यू कराने के लिए आवेदन किया था, लेकिन सीआईडी की एक "प्रतिकूल" (“adverse” ) रिपोर्ट के कारण 31 मार्च को उन्हें मंजूरी देने से इनकार कर दिया गया था.

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99% पासपोर्ट आवेदनों का क्लियरेंस

महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा का कहना है कि वह तब तक संघर्ष करेंगी जब तक उन्हें वैध पासपोर्ट जारी नहीं किया जाता, न कि "सशर्त दस्तावेज" (“conditional document”) जो उन्हें अप्रैल में दिया गया था. उन्होंने अप्रैल में एक उग्र प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी, जिसमें उन्होंने सीआईडी पर उन्हें बुनियादी अधिकारों से "वंचित" करने का आरोप लगाया था. “यदि आप अपनी रिपोर्ट को लेकर इतने आश्वस्त हैं, तो आपको आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम क्यों लागू करना पड़ा? आप क्यों नहीं चाहते कि डॉक्यूमेंट पब्लिक डोमेन में आये?”

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उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस के दबाव के तुरंत बाद, सीआईडी ने एक असाधारण मीडिया बयान जारी कर उनके दावों को खारिज कर दिया. बयान में यह कहा गया कि अधिकांश कश्मीरियों के पासपोर्ट आवेदन "प्रतिकूल रिपोर्ट" ( “adverse reports”) के आधार पर खारिज कर दिए जा रहे हैं.

बयान में यह भी कहा गया है कि 2020 के बाद से पासपोर्ट कार्यालय द्वारा 99 प्रतिशत से अधिक आवेदनों को क्लियर कर दिया गया है. बयान के अनुसार, 2020 में प्राप्त पासपोर्ट वेरिफिकेशन में से 99.95 प्रतिशत को मंजूरी दे दी गई, 2021 और 2022 के लिए संबंधित प्रतिशत क्रमशः 99.68 प्रतिशत और 99.61 प्रतिशत था.

सीआईडी ने पहले की वेरिफिकेशन प्रथा को "हाई-वैल्यू वाली पब्लिक सर्विस" करार देते हुए कहा कि सीआईडी ने यह पता लगाया है कि 2017-2018 में जब महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री थीं तब 54 व्यक्तियों को बिना वेरिफिकेशन के पासपोर्ट दिए गए थे, जोकि हथियारों की ट्रेनिंग लेने के लिए पाकिस्तान गए थे, जिनमें से 24 की बाद में लौटने की कोशिश करते समय या विभिन्न गोलीबारी में मौत हो गई थी.

सीआईडी के बयान में कहा गया है कि "इनमें से 12 युवा लड़कों को पाकिस्तान से लौटने के बाद सीआईडी द्वारा उनकी जान बचाई जा सकी, उन्हें प्रिवेंटिव कस्टडी में रखा गया ताकि आतंकवादी-अलगाववादी सिंडिकेट उन पर आतंकवादी रैंकों में शामिल होने के लिए दबाव डालने में सफल न हो सकें. आखिरकार, उन सभी 12 युवाओं को उनके परिवारों को सौंप दिया गया."

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असमंजस की स्थिति में फंसे लोग

हालांकि, द क्विंट से बातचीत के दौरान इल्तिजा ने दावा किया कि सीआईडी डेटा में उन मामलों को ध्यान में नहीं रखा गया है, जहां आवेदन उनके कार्यालयों के अंदर इस बात की पुष्टि किए बिना धूल खा कर रहे हैं कि उन्हें मंजूरी दी जाएगी या नहीं. उन्होंने कहा, "मेरे द्वारा हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के बाद ही वे कार्रवाई के लिए प्रेरित हुए. कोर्ट में जाने के बाद ही मुझे पता चला कि मेरा आवेदन रिजेक्ट कर दिया जा रहा है. बहुत से लोग अदालत नहीं जाते, क्योंकि या तो उनके पास संसाधन नहीं हैं या वे डरते हैं. वे असमंजस की स्थिति में हैं."

इल्तिजा ने कहा कि मुझे अपने पासपोर्ट के मुद्दे पर मुकदमेबाजी करने का एक बड़ा फायदा मिला है. "इसने बांध के गेट खोल दिए हैं और अब बहुत से लोग जिनके पास साधन हैं, वे कोर्ट में जाने के अपने अधिकार को अस्वीकार किये जाने या नकार दिए जाने के खिलाफ लड़ने के लिए प्रोत्साहित हुए हैं."

(शाकिर मीर एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उन्होंने The Wire.in, Article 14, Caravan, Firstpost, The Times of India, आदि के लिए भी लिखा है. उनका ट्विटर हैंडल @shakirmir है. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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