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JNU की बेजुबान दीवारें चीखती हैं, बहस करती हैं, क्यों इन्हें चुप करा दिया गया?

JNU जिंदा है, इसकी 'बोलने वाली दीवारें' बदरंग क्यों हो रही हैं?

कंचना यादव
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>JNU की बेजुबान दीवारें चीखती हैं, बहस करती हैं, क्यों इन्हें चुप करा दिया गया?</p></div>
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JNU की बेजुबान दीवारें चीखती हैं, बहस करती हैं, क्यों इन्हें चुप करा दिया गया?

फोटो: क्विंट हिंदी

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प्राचीन काल से ही राजनीति में कला का प्रयोग होता रहा है. अजंता, एलोरा, बाघ और बादामी की गुफाओं के चित्रों से लेकर अब तक यह प्रथा चली आ रही है. पेंटिंग, पोस्टर, कविता और रंगमंच प्राचीन काल से ही प्रतिरोध के वाहक रहे हैं और नई राजनीतिक और सामाजिक चेतना के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आ रहे हैं. राजनीतिक विचारों और संस्थानों को आकार देने के लिए कला का उपयोग ऐतिहासिक रूप से फ्रांसीसी क्रांति के बाद शुरू हुआ, जब फ्रांस में जैक्स-लुई डेविड और जीन-अगस्टे डोमिनिक जैसे कलाकारों ने आधुनिक फ्रांस के निर्माण के लिए राजनीतिक कला को मोर्टार के रूप में इस्तेमाल किया.

भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान प्रगतिशील समूहों द्वारा कला का उपयोग किया गया था, हालांकि स्वतंत्रता के बाद आधुनिक क्रांतिकारी चित्रकारों और मूर्तिकारों के समूहों ने बदलते राजनीतिक विचारों के अनुरूप कला के पाठ्यक्रम को बदल दिया.

दीवार लेखन और पेंटिंग की कला भारत में अभी तक एक बड़ी अवधारणा नहीं बन पाई है, फिर भी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ऐसी कलाओं की वजह से हमेशा एक अलग पहचान रखता है. JNU के दीवार पोस्टर और पेंटिंग लोकप्रिय हैं. छात्रों, शिक्षकों, श्रमिकों और अन्य लोगों द्वारा बनाई गई कला न केवल परिसर के भीतर बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रशंसित है. जेएनयू की दीवारें बोलती हैं, बहस करती हैं, सहमत और असहमत होती हैं. जेएनयू में दीवारें सिर्फ दीवारें नहीं हैं, बल्कि लोकतंत्र, शिक्षाविदों और कला का स्थान हैं, और वे अत्याचार, शोषण और अन्याय का दर्पण भी हैं. जेएनयू की दीवारों पर बनी पेंटिंग्स हमेशा एक शक्तिशाली अभिव्यक्ति रही हैं जो दुनिया भर में हुए और हो रहे दमन और प्रतिरोध की याद दिलाती हैं.

JNU सबसे अधिक राजनीतिक रूप से सक्रिय विश्वविद्यालयों में से एक है और अपनी राजनीतिक प्रथाओं में भित्तिचित्रों की परंपरा का पालन करता है. ढाबों से लेकर विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों से लेकर विभिन्न विभागों तक दीवार कला पाई जाती है. यह कला समाज में व्याप्त हर तरह की बुराइयों को और सत्ता में बैठे लोगों के मुखौटों को भी उजागर करती हैं, जिसे देखकर यह समझने में एक पल भी नहीं लगेगा कि "दीवारें बोलती हैं". महिलाओं पर लगाए गए विभिन्न रूढ़िवादी बंधनों को तोड़ते हुए, पवित्रता और अशुद्धता, अच्छे और बुरे की धारणाओं को ध्वस्त करते हुए और महिलाओं के आचरण को नियंत्रित करने वाले फरमानों को तोड़ते हुए भी पेंटिंग और पोस्टर पाए जाते हैं.

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JNU की लाल ईंटें जितनी पुरानी हैं, इसकी कला और राजनीति की संस्कृति भी उतनी ही पुरानी है. जेएनयू की दीवारों ने न केवल उनकी संरचनात्मक ताकत बल्कि कलात्मक साहस को भी बरकरार रखा है. राजनीति का यह रंग जेएनयू को भारत के अन्य विश्वविद्यालयों से अलग करता है. जेएनयू की दीवारें गरीबों की प्रकाशक हैं, इन पोस्टरों को देखकर ही लगता है कि समाज जिंदा है,  हम सभी जीवित और एकजुट हैं और इसी कारण से "जेएनयू ज़िंदा है" का नारा भी बहुत प्रसिद्ध है.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में कला लोकतांत्रिक है. यह खुद को लोगों के एक वर्ग तक सीमित नहीं रखता है, बल्कि विभिन्न आवाजों का प्रतिनिधित्व करता है. लोकतंत्र की मौजूदा स्थिति को मजबूत करने और सुधारने के लिए राजनीतिक कला सबसे मजबूत साधनों में से एक है. पोस्टर और भित्तिचित्र विभिन्न विचारधाराओं को एक मंच प्रदान करते हैं. इसलिए, जेएनयू की दीवारें उन लोगों को व्यक्त करती हैं, चिल्लाती हैं और आवाज देती हैं जिन्हें सदियों से नहीं सुना गया है.

लेकिन सत्ता का पहला तमाचा विश्वविद्यालयों पर ही पड़ता है, ऐसा ही जेएनयू के साथ हुआ. राइट विंग हिंदुत्ववादी पार्टी सत्ता में आने पर जेएनयू के पूर्व कुलपति ममिडाला जगदीश कुमार ने पोस्टर और भित्तिचित्रों को हटाकर इन दीवारों को उजाड़ दिया, जिससे पता चलता है कि वे युवा दिमाग की रचनात्मकता और छात्रों की कला, शब्दों और चित्रों के माध्यम से अपने मन की बात कहने की आजादी से कितने डरे हुए हैं.

जिस जेएनयू में कला के माध्यम से अपने अधिकार की मांग शांति से की जाती थी, उसी जेएनयू के माहौल में समय-समय पर अशांति का जहर घोल दिया जाता है. अशांति को बढ़ावा देने के लिए एक समुदाय विशेष को निशाना बनाया जाता है. इस साल की शुरुआत में अज्ञात व्यक्तियों द्वारा जेएनयू की दीवारों पर "मुस्लिम लाइव्स डोंट मैटर" लिखा गया था. परिसर का माहौल खराब करने के लिए इस तरह के बयान दिए जाते हैं. गुमनाम की आड़ में नापाक मकसद पूरा किया जा रहा है, जो बाद में हिंसा का रूप ले लेता है.

जेएनयू का प्रगतिशील छात्र आंदोलन सामाजिक न्याय की बात करता है. फुले, आम्बेडकर, सावित्री, फातिमा को मानने वाले किसी विशेष समूह को भारत छोड़ने के लिए नहीं कह सकते. इसलिए यहां इस पर ध्यान देने की जरूरत है, और इसकी जांच करने की जरूरत है कि जिन दीवारों पर सामाजिक न्याय के मुद्दे लिखे गए हैं, उन दीवारों पर गुमनामी की आड़ में "भारत छोड़ो" लिखकर कैंपस के माहौल को खराब करने के अपने उद्देश्य को कौन साध रहा है?

(लेखिका कंचना यादव JNU में PhD स्कॉलर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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