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JNU छात्र संघ के नतीजों में देश की वामपंथ और दलित-बहुजन राजनीति के लिए सबक छिपा है

हाल के दिनों में भारत में दलित-बहुजन राजनीति और वामपंथी आंदोलन लगातार हाशिए पर रहे हैं.

हरीश एस वानखेड़े
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>JNUSU Election 2024</p></div>
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JNUSU Election 2024

(फोटो- अल्टर्ड बाई द क्विंट)

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JNUSU Election 2024: भारत की राजनीति में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) एक अलग ओहदा रखता है. जेएनयू दिल्ली की सत्ता के सजावटी मुकुट में एक कांटे की तरह प्रतीत होता है क्योंकि यह कुर्सी पर बैठे लोगों को चुभता है और उन्हें उनके गलत कामों के लिए फटकारता है.

इसलिए, हिंदुत्व समर्थकों के लिए यूनिवर्सिटी कैंपस में वामपंथी राजनीतिक विचारधारा के वर्चस्व को खत्म करना और दक्षिणपंथी राजनीतिक प्रोग्राम को एक प्रमुख नैरेटिव के रूप में पेश करना जरूरी है. हालांकि हाल ही में पूरे हुए जेएनयू छात्र संघ (JNUSU) के नतीजों ने दक्षिणपंथी राजनीतिक दल को सबसे ज्यादा हैरान किया है.

वामपंथी छात्र संगठनों ने सभी प्रमुख सीटों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) को हरा दिया है.

JNUSU में चार वामपंथी संगठनों के गठबंधन ने चुनाव लड़ा और हिंदुत्व ब्रिगेड के खिलाफ एक मजबूत विपक्ष बनाया.

वामपंथ और दलित-बहुजन विचारधारा की प्रासंगिकता

वे सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दों पर छात्रों को लामबंद करते हैं और जनविरोधी नीतियों के लिए हिंदुत्ववादी सरकार को फटकारते हैं.

दिलचस्प बात यह है कि बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (BAPSA) ने सेंट्रल पैनल में जनरल सेक्रेटरी पद पर कब्जा करके स्टूडेंट यूनियन में अपनी पैठ बना ली है.

वामपंथ और दलित-बहुजन राजनीतिक संगठनों ने महत्वपूर्ण बढ़त देखी है, जिससे पता चलता है कि ये विचारधाराएं दक्षिणपंथी वर्चस्व के खिलाफ अभी भी प्रासंगिक हैं.

यह इसलिए भी अहम है क्योंकि राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में वामपंथी-मार्क्सवादी विचारधारा के 'निधन' पर कई बार 'शोक संदेश' लिखा जा चुका है.

इसी तरह दलित-बहुजन राजनीतिक आंदोलन भी आज अस्त-व्यस्त है. इसके अलावा, आगामी लोकसभा चुनावों में आक्रामक दक्षिणपंथी मोर्चे को रोकने में दोनों विचारधाराओं की संभावना सीमित नजर आती है.

और ऐसे राजनीतिक माहौल में JNUSU के चुनाव में एकजुट विपक्ष ने जिस तरह ABVP को मात दी है वह दिखाता है कि उत्पीड़ित सामाजिक समूह और हाशिए पर रहने वाले वर्ग हिंदुत्व शासन के कुशासन के खिलाफ एक शक्तिशाली राजनीतिक अभियान चला सकते हैं और लोगों को दक्षिणपंथी राजनीति के खिलाफ लामबंद कर सकते हैं.

वामपंथ और सामाजिक न्याय आंदोलनों का पतन

आज भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)/ CPIM केवल केरल में एक प्रभावशाली राजनीतिक ताकत के रूप में प्रासंगिक है. वहीं इसके अन्य दो महत्वपूर्ण गढ़, बंगाल और त्रिपुरा ढह गए हैं.

दूसरी वामपंथी पार्टी सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) बिहार के कुछ हिस्सों में प्रभावशाली है क्योंकि उसने पिछले विधानसभा चुनावों में मुट्ठी भर सीटें जीती हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि वामपंथ ने मजदूर वर्गों पर अपना प्रभाव खो दिया है, और बहुत कम अवसरों पर, हमने देखा है कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने 'पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा वर्ग' को लामबंद किया है.

आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र में मजदूर वर्ग के आंदोलनों, किसानों के विरोध प्रदर्शन और ट्रेड यूनियन के कई अलग-अलग मोर्चों पर छिटपुट और बिखरी हुई वामपंथी राजनीतिक सक्रियता देखने को मिलती है.

मानवाधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के संघर्षों और राज्य की मनमानी के खिलाफ धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए कार्यक्रम आयोजित करने से भी वामपंथी जुड़े हुए हैं.

कई मौकों पर हम मीडिया और फिल्मों-थिएटरों जैसे सांस्कृतिक स्थानों में वामपंथ की आलोचनात्मक और सत्ता-विरोधी आवाजें देख सकते हैं. हालांकि, इन लामबंदी और विरोध प्रदर्शनों का चुनावी नतीजों को बदलने में लगभग न के बराबर प्रभाव पड़ता है.

इसी तरह, सामाजिक न्याय की आवाज उठाने वाले शक्तिशाली जाति-विरोधी आंदोलन भी कम हो रहे हैं.

1990 के दशक के मध्य में देश ने प्रमुख राज्यों में शक्तिशाली दलित नेतृत्व और आंदोलन को आते देखा. उत्तर प्रदेश में कांशीराम और मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी (BSP), महाराष्ट्र में प्रकाश अंबेडकर और रामदास अठावले जैसे प्रभावशाली रिपब्लिकन-बहुजन नेता, तमिलनाडु में थिरुमावलवन के नेतृत्व में विदुथलाई चिरुथिगल काची (VCK) और बिहार में राम विलास पासवान के नेतृत्व में जनता दल गुट ने दलित मुद्दों को एक सम्मानजनक और मजबूत आवाज प्रदान की थी. उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक अनिवार्य घटक बनाया था.

हालांकि तमाम दलित राजनीतिक संगठनों के बीच कोई गठबंधन नहीं था, लेकिन सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के नारों के इर्द-गिर्द उनकी वैचारिक सोच एक थी.

शुरू में दलित पार्टियों ने सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों के प्रति गहरी घनिष्ठता दिखाई. हालांकि, राष्ट्रीय राजनीति में जब बीजेपी का प्रचंड उदय हुआ तो दलित-बहुजन राजनीतिक आंदोलन के भीतर निर्णायक दरार आ गयी. BSP ने सबसे पहले 1995 में बीजेपी के साथ हाथ मिलाकर यूपी में मायावती के नेतृत्व वाली पहली राज्य सरकार बनाई थी.

इसके बाद राम विलास पासवान सहित कई समाजवादी नेता बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल हो गए. उन्होंने 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की कैबिनेट में एक महत्वपूर्ण विभाग हासिल किया. महाराष्ट्र में, रामदास अठावले ने खुद को दलित आंदोलन के कट्टरपंथी विचारों से दूर कर लिया और 2014 में बीजेपी के साथ चुनावी गठबंधन किया. समय-समय पर दलित राजनीतिक नेताओं में से केवल कुछ ही लोगों ने सामाजिक न्याय की राजनीति के क्रांतिकारी कार्य को आगे बढ़ाया. दलित पार्टियों में, वीसीके और प्रकाश अंबेडकर (वीबीए) के नेतृत्व वाले राजनीतिक संगठन ने लगातार बीजेपी विरोधी स्थिति बरकरार रखी है और केवल धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ गठबंधन बनाया है.

हाल के दिनों में यह देखने में आ रहा है कि भारत में दलित-बहुजन राजनीति और वामपंथी आंदोलन लगातार हाशिए पर हैं और निष्क्रिय बने हुए हैं. वाम दलों की गिरती स्थिति को पुनर्जीवित करने या एक मजबूत दलित-बहुजन वैचारिक फ्रंट तैयार करने के बहुत कम प्रयास हुए हैं.

इन चुनावी राजनीति से परे मुख्यधारा के शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में वामपंथ और दलित-बहुजन विचारधाराओं की उपस्थिति को जीवंत स्वागत मिला. इन दावों को दक्षिणपंथी धुरंधरों के बढ़ते वर्चस्व के लिए साहसी चुनौती के रूप में पेश किया जाता है. ऐसे संदर्भ में, जेएनयू ने न केवल वामपंथी राजनीति को कायम रखा है, बल्कि BAPSA को दलित-बहुजन राजनीतिक लहर के नए मशाल वाहक के रूप में भी पेश किया है.
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जेएनयू: वामपंथ और दलित-बहुजन राजनीति का गढ़

स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (AISA) जैसे वामपंथी छात्र संगठनों का जेएनयू सहित कुछ केंद्रीय यूनिवर्सिटीज में प्रभावशाली पकड़ है. जेएनयू का वामपंथी छात्र आंदोलन सरकार के प्रति अपने कट्टरपंथी और समझौता न करने वाले रवैये के लिए जाना जाता है. इसने छात्रों के गंभीर मुद्दों पर प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान किया है, और महिलाओं, दलितों, आदिवासी और धार्मिक अल्पसंख्यकों जैसे हाशिए पर रहने वाले समूहों के मुद्दों को उठाने के लिए जेएनयूएसयू को एक मंच भी बनाया है.

हिंदुत्ववादी ताकतों को उनके हिंसक और सांप्रदायिक कदमों पर फटकार लगाकर वामपंथी राजनीतिक विमर्श के लिए वैधता पैदा करने में जेएनयू सफल रहा है.

हाल के दिनों में, जेएनयू के छात्रों ने केंद्र सरकार के शक्तिशाली हमले के खिलाफ असहमति, स्वतंत्र भाषण और बौद्धिक स्वायत्तता के अपने अधिकार का बचाव किया है.

जब ये विरोध प्रदर्शन चल रहे थे, तब दलित-बहुजन छात्र आंदोलन उच्च शिक्षा संस्थानों में दलित-बहुजन छात्रों को होने वाले अन्याय, भेदभाव और हिंसा का विरोध करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण ताकत के रूप में उभरे.

विशेष रूप से 'जस्टिस फॉर रोहित' आंदोलन ने दलित-बहुजन विरोध राजनीति को फिर से शुरू किया और इस विचार को पुष्ट किया कि दलित-बहुजन और आदिवासी छात्र सम्मान और सामाजिक न्याय की लड़ाई का नेतृत्व करने में सक्षम युवा नेता हैं. ऐसे ही कठिन समय में BAPSA का जन्म JNU में हुआ.

'जेएनयू बचाओ' और 'जस्टिस फॉर रोहित' आंदोलनों ने एक वैचारिक मंच प्रदान किया जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, राष्ट्रवाद, सामाजिक न्याय और आलोचनात्मक जांच की पद्धति के मुद्दों पर ईमानदारी से बहस की गई. एक संयुक्त शक्ति के रूप में छात्रों ने हिंदुत्व शासन का मुखरता से विरोध किया और जल्द ही यह उच्च शिक्षा संस्थानों में लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक व्यापक आंदोलन बन गया.

दक्षिणपंथी बाजीगर ने हर कदम उठा लिया

जेएनयू में वामपंथी और दलित-बहुजन संगठनों की प्रगतिशील वैचारिक योग्यता और बौद्धिक क्षमता ने एबीवीपी को छात्र संघ चुनाव जीतने से रोक दिया है. जेएनयू में इन प्रभावों का मुकाबला करने के लिए, कई रणनीतियों और कार्यक्रमों को लागू किया गया ताकि हिंदुत्व विचारधारा जेएनयू के कैंपस में छाई रहे.

दक्षिणपंथी राजनीति ने मुख्य रूप से विश्वविद्यालयों में वामपंथ के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए और वामपंथी सक्रियता को अपमानित, बदनाम करने के लिए 'अर्बन नक्सल' टर्म का आविष्कार किया है. जेएनयू आक्रामक संरचनात्मक परिवर्तनों, हिंसक हमलों की घटनाओं और समिति होते लोकतांत्रिक स्पेस का गवाह बन रहा है.

अभी कुछ साल पहले, विश्वविद्यालय को 'राष्ट्र-विरोधियों का अड्डा', 'केंद्रीय सरकार के लिए सबसे बड़ा खतरा' के रूप में बदनाम किया गया था और जेएनयू को बंद करने का आह्वान किया गया था. कहा गया कि यहां छात्र टैक्सपेयर्स के खर्चे पर बिना रोक-टोक की स्वतंत्रता का आनंद लेते हैं और विद्रोही हो जाते हैं.

इसके अलावा, संस्थागत स्तरों पर, कई संरचनात्मक परिवर्तन किए गए जैसे एमबीए कोर्स शुरू किये गए. छात्रों का एडमिशन कम किया गया (एमफिल कोर्स समाप्त करके) और छात्र संगठनों की राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिए गए.

अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि संस्थान के अंदर जो फैकल्टी की नियुक्तियां हो रही हैं वो उम्मीदवार की शैक्षणिक साख या बौद्धिक योग्यता पर आधारित नहीं हैं और इसके बजाय उन्हें चुना जाता है जो सत्तारूढ़ हिंदुत्व आकाओं को खुश करते हैं.

ऐसी घटनाओं और परिवर्तनों के बीच, यह उम्मीद की गई थी कि जेएनयू में नाटकीय रूप से दक्षिणपंथी विचारधारा की ओर शिफ्ट देखा जाएगा, और वामपंथी-राजनीति का प्रभाव कम हो जाएगा.

इसके अलावा, कैंपस में दलित, बहुजन और आदिवासी छात्रों के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में बहुत सुधार नहीं हुआ है. कैंपस में दक्षिणपंथी उपस्थिति के साथ-साथ, जातिगत भेदभाव, हिंसा के बढ़ते मामले और यौन उत्पीड़न की समस्याओं ने यहां के सामान्य माहौल को खराब और सामान्य छात्रों के लिए अनुपयुक्त बना दिया है.

यही वजह है कि छात्र संघ के चुनाव में वामपंथियों और BAPSA की जीत को वामपंथी-उदारवादी समुदाय के भीतर बहुत महत्व दिया जा रहा है. कई लोगों के लिए जेएनयू अभी भी एक चमकीले सितारे की तरह दिखाई देता है जो ऐसे अंधेरे समय में भी शानदार ढंग से चमकता है.

इस जोरदार जनादेश के साथ, यह आशा है कि राष्ट्रीय स्तर पर निष्क्रिय वामपंथी और दलित-बहुजन दल एक अच्छा सबक सीखेंगे और एक महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकत के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी संभावना को फिर से जगाएंगे.

(डॉ. हरीश एस वानखेड़े सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जेएनयू, नई दिल्ली में पढ़ाते हैं. वह पहचान की राजनीति, दलित प्रश्न, हिंदी सिनेमा और नए मीडिया पर लिखते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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