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नीति आयोग के CEO अमिताभ कांत ने हाल में आई अपनी किताब में लिखा है कि बेहतर आर्थिक नतीजों के लिए शासन बहुत जरूरी है. उन्होंने खास तौर पर न्यायपालिका पर जोर दिया जिसके फैसले कई बार विकास में बड़ी रुकावट बन जाते हैं.
उन्होंने पर्यावरण और विकास के बीच टकराव का जिक्र किया और बताया कि अदालतें कई बार अपने विवेक, यानि संतुलन की दरकार, को भी दरकिनार कर देती हैं.
अमिताभ कांत ने कहा कि इस समस्या का समाधान निकालना होगा क्योंकि जजों को उनके फैसलों के आर्थिक असर की समझ जरूर होनी चाहिए. कांत की राय बिलकुल सही है.
टेलीकॉम रेवेन्यू की व्याख्या करने वाले सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश से गैर-टेलीकॉम कंपनियों की मुश्किलें बढ़ गईं क्योंकि टेलीकॉम डिपार्टमेंट ने उनसे सैटेलाइट कम्यूनिकेशन के लिए स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल करने के एवज में करीब 3 लाख करोड़ रुपये की मांग की है.
अब सरकार इस मामले के निपटारे के लिए एक कमेटी बनाने जा रही है. इस फैसले को लागू कर टेलीकम्यूनिकेशन्स डिपार्टमेंट को इतनी बड़ी रकम अदा करना नामुमिकन है. इसलिए कोई ना कोई रास्ता निकालना ही पड़ेगा.
उम्मीद है सुप्रीम कोर्ट, पिछले हफ्ते इस मामले की सार्वजनिक सुनवाई से मना करने के बाद, टेलीकॉम इंडस्ट्री की याचिका पर 24 जनवरी (भुगतान की डेडलाइन) से पहले बंद कमरे में सुनवाई के लिए राजी हो जाए. सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद है कि वो गैर-टेलीकॉम कंपनियों से जुड़े अपने पुराने आदेश पर पुनर्विचार करेगा, ताकि यह कंपनियां अपने मूल कारोबार पर ध्यान दे सकें.
यह निहायत जरूरी है क्योंकि समाज, इसे बनाने वाले लोग और इन दोनों को जिंदा रखने वाली अर्थव्यवस्था के फर्क के बीच फर्क को समझना लाजिमी है.
समाज समानता मांगता है. व्यक्ति न्याय मांगता है. लेकिन अर्थव्यवस्था क्षमता मांगती है. 1970 के दशक तक न्यायपालिक इन फर्क को अपने जेहन में रखती थी. जज खुद को कानून का रखवाला समझते थे और कानून बनाने का काम उन्होंने संसद पर छोड़ रखा था.
न्यायाधीश ना सिर्फ कानून बल्कि अपनी सोच के आधार पर भी फैसले लेने लगे. इस तरह से वो सकारात्मक से निर्देशात्मक हो गए. जिससे किसी का फायदा नहीं हुआ.
इंसान के बनाए संस्थानों के लिए समाजिक समानता, व्यक्तिगत न्याय और आर्थिक क्षमता का यह संतुलन बनाना आसान नहीं है. असल में वैश्विक अनुभव की अगर बात करें तो यह नामुमकिन है.
हालांकि न्यायपालिका इसकी मंजूरी नहीं देता क्योंकि उस पर न्याय और समानता की बात पूरी तरह हावी होती है. लेकिन अगर हम यह मान भी लें कि यह न्यायपालिका का मूल काम है, फिर भी दो परेशानियां हमारे सामने रह जाती हैं.
एक यह कि व्यक्तिगत न्याय को बढ़ावा देने से सामाजिक समानता का ह्रास होता है और सामाजिक समानता को तवज्जो देने से व्यक्तिगत न्याय का नुकसान होता है. इस समस्या का अर्थशास्त्रियों ने दर्शन की तर्ज पर विस्तार से अध्ययन किया है.
दूसरा यह कि बिना आर्थिक क्षमता के न्याय और समानता दोनों पर बुरा असर पड़ता है, चाहे वो मध्यम या फिर दीर्घकालिक ही क्यों ना हो. भारत में हम अपने आसपास ही इसे देख सकते हैं.
जैसे कि 1970 के दशक में इंदिरा गांधी के कांग्रेस ने पूराने ढांचे को किनारे कर दिया, इस बार यह प्रक्रिया बीजेपी को शुरू करनी चाहिए क्योंकि अकेली ऐसी राजनीतिक पार्टी है जिसे बौद्धिक यथास्थिति को तोड़ने में कोई डर नहीं है.
सच कहें तो बीजेपी ने ऐसा करने की कोशिश तो की है. लेकिन दुर्भाग्य से इसने छल का रास्ता अपनाया और क्षमता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का खुलकर इजहार नहीं किया. जो कि शुभ संकेत नहीं है.
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Published: 11 Jan 2020,12:10 PM IST