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इधर निर्भया के कातिलों को फांसी की सजा मुकर्रर की गई, उधर गुजरात से निर्भया जैसा एक और मामला सामने आया. फर्क सिर्फ इतना है कि गुजरात की पीड़िता लड़की दलित है. उसके समुदाय वाले सामूहिक बलात्कार और हत्या की इस वारदात के बाद अहमदाबाद सिविल अस्पताल के बाहर धरने पर बैठे हैं. पुलिस की लापरवाही का आरोप तो लगा ही रहे हैं, इंसाफ की गुहार भी लगा रहे हैं.
यह सिर्फ औरत के साथ अत्याचार का मामला नहीं-दलित अत्याचार का भी है. हमारे यहां औरत की देह पर पुरुष, खासकर ‘उच्च’ वर्ण और वर्ग के पुरुषों का हक रहा है. ऐसे में दलित औरतें तो समाज के सबसे निचले पायदान पर हैं.
गुजरात में दलित अत्याचार के मामले तेजी से बढ़े हैं. पिछले साल गुजरात के एक आरटीआई कार्यकर्ता कौशिक परमार ने पुलिस के अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति सेल से यह जानकारी मांगी थी कि गुजरात में दलितों की क्या स्थिति है.
आरटीआई के जवाब में बताया गया था कि पिछले एक साल में ऐसे 1545 मामले दर्ज किए गए हैं जोकि 2001 के बाद सबसे अधिक हैं. इसमें हत्या की 22, बलात्कार की 104 घटनाएं शामिल हैं. इससे पहले जिग्नेश मेवाणी जैसे विधायक बता चुके हैं कि गुजरात सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार, अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराधों में 32% और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराधों में 55% की बढ़ोतरी हुई है.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि गुजरात में दलितों-आदिवासियों के अत्याचार के मामलों में दोष सिद्धि यानी कनविक्शन की दर बहुत कम है. यह पूरे देश में आम है कि दलितों-आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार के अधिकतर मामले आईपीसी के अंतर्गत दर्ज किए जाते हैं, जबकि इनके लिए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून पहले से मौजूद है. गुजरात में भी यह बहुत सामान्य है.
मार्टिन मैकवेन के मुताबिक, 1995-2007 के दौरान दलितों-आदिवासियों के खिलाफ एक तिहाई से भी कम मामले इस कानून के तहत दर्ज किए गए. नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स के पॉल दिवाकर का कहना है कि यह प्रवृत्ति अब भी जारी है. दलितों पर होने वाले अत्याचार के अलावा एक दूसरे किस्म का अत्याचार भी उन पर होता है. उन्हें मुकदमे बाजी में फंसाया जाता है, जेलों में ठूंसा जाता है.
राज्य के 11 जिलों में ऐसे मामले सर्वाधिक हैं- जैसे राजकोट, जूनागढ़, बनासकांठा, मेहसाणा, पाटन, आणंद, गांधीनगर, भावनगर, सुरेंद्रनगर, कच्छ और अहमदाबाद.
शहरों में भी दलित दमन के सैकड़ों किस्से सुनने में आते हैं. गुजरात के ही अहमदाबाद जैसे शहर में 2018 में दलितों पर अत्याचार के कुल 140 मामले सामने आए. यह पूरे राज्य में सबसे अधिक हैं.
दरअसल अक्सर यह मिथ कायम रहता है कि शहरों में आपको किसी की जाति पता नहीं चलती है और मेरिट आधार रहता है. लेकिन जातिगत भेदभाव कई दूसरी तरह के भी होते हैं. पिछले साल पायल तड़वी जैसी आदिवासी डॉक्टर ने इसी भेदभाव के चलते आत्महत्या की थी. यह मुंबई की घटना थी. इससे कई साल पहले हैदराबाद में रोहित वेमुला ने भी यही किया था.
न्यूयार्क के कॉर्नेल विश्वविद्यालय ने इस सिलसिले में एक वर्किंग पेपर पब्लिश किया है. इस पेपर को लिखने वाले नवीन भारती, दीपक मलघन और अंदलीब रहमान का कहना है कि भारत के मेट्रोपॉलिटन शहरों में भी जाति के आधार पर सेग्रेगेशन होता है. दलित और आदिवासी खास इलाकों में बसते हैं. दरअसल आधुनिकीकरण, विकास और उदारीकरण ने जाति व्यवस्था को खत्म नहीं किया है. लोग काम और पढ़ाई के सिलसिले में कस्बों, छोटे शहरों से बाहर निकले हैं तो शहरों में भी अपने साथ सामाजिक और आर्थिक सच्चाइयों को लेकर पहुंचे हैं.
इस दमन का जवाब देने का समय आ गया है और खुद दलित इसका जवाब दे रहे हैं. 2016 में ऊना में जब गो रक्षक दल ने मरी गाय का चमड़ा उतारते हुए दलितों को बुरी तरह मारा तो इस घटना के बाद पूरे गुजरात में दलितों का गुस्सा भड़क उठा. वे गाड़ी-छकड़ा भरकर मरी हुई गाय लाए और सड़कों पर उन्हें गिरा दिया. दुर्गन्ध फैल गई. म्यूनिसिपैलिटी के फोन पर फोन आते रहे पर दलितों ने उन गायों को हाथ लगाने से इनकार कर दिया.
क्रोध की इस स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति से सभी आश्चर्य चकित थे. दलित आज भारतीय जनतंत्र का सबसे ऊर्जावान समुदाय है. जनतंत्र का अर्थ ऐतिहासिक अन्याय और गैर बराबरी का मुकाबला भी है. दलित समाज स्वयं इस अर्थ को याद दिला रहे हैं. सवर्णों को भले ये शब्द पुराने लगें, लेकिन न्याय और समानता दलितों के लिए जीने-मरने का सवाल हैं. फिलहाल दलित बलात्कार पीड़िता का परिवार धरने पर बैठकर हमें यही याद दिला रहा है.
(ऊपर लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है)
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Published: 11 Jan 2020,08:28 AM IST