नागरिकता संशोधन कानून को लेकर हुए विशाल प्रदर्शनों ने कुछ ऐसी बातों की ओर ध्यान दिलाया है जिस पर किसी ने बहुत ध्यान नहीं दिया है. जैसे कि जब सरकार किसी को खुश करना चाहती है तो कुछ अलग तरीके से व्यवहार करती है. 1966 और 1977 के बीच इंदिरा गांधी की दो सरकारों की तरह मोदी सरकार इसका सटीक उदाहरण है.
श्रीमती गांधी जनवरी 1966 में प्रधानमंत्री बनीं और पिछली सरकार की निरंतरता बरकरार रखते हुए उन्होंने इसे 1969 तक आगे बढ़ाया. आर्थिक संकट को हल कर पाने में विफल रहने पर उनकी बुरी तरह आलोचना हुई.
ठीक उसी तरह मई 2014 और नवंबर 2016 के बीच मोदी सरकार निरंतरता के मोड में थी और सबकी शिकायत थी कि इसमें पर्याप्त तेजी नहीं दिख रही है.
जुलाई 1969 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी को बांट दिया और उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की मदद से अल्पमत की सरकार चलायी.
राष्ट्रीयकरण के दौर की शुरुआत
उन्हें उपकृत करने के लिए उन्होंने देश के सबसे बड़े 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया. फिर आजाद भारत के शासकों ने भारतीय संघ से जुड़ने के बदले मासिक वेतन के तौर पर जो भत्ता देने का वादा किया था, उसे भी बंद कर दिया. उन्होंने कहा कि वह विशेषाधिकार खत्म कर रही हैं.
1971 और 1973 के बीच उन्होंने कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया. कोयला मंत्री थे पूर्व कम्युनिस्ट पी कुमारमंगलम. यहां तक कि 1973 में उन्होंने अनाज के कारोबार का राष्ट्रीयकरण कर दिया. दयापूर्वक यह महज कुछ महीनों तक चला. 1974 और 1976 के बीच विदेशी तेल कंपनियां का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया गया.
2016 के बाद से मोदी सरकार ने भी ऐसा ही रूप अख्तियार किया, जो कभी-कभी ठीक उसी तरह बहुत विघटनकारी रहा जिस तरह इंदिरा गांधी की नीतियां रहीं. चाहे वह नोटबंदी हो, जीएसटी, तीन तलाक या अनुच्छेद 370 या फिर नागरिकता कानून में हुआ ताजा संशोधन. सरकार ने सामान्य तरीका न अपनाकर अचानक और तेज झटके से बल पूर्वक बदलाव का रास्ता चुना. यहां तक कि जेएनयू में शुल्क बढ़ोतरी भी बड़े पैमाने पर थी, जो कि घटते क्रम में दसवें नंबर पर थी, एक कमरे का 10 रुपये मासिक किराया 2400 रुपये कर दिया गया!
इस व्यवहार को समझने के लिए हमें शायद जर्मन लोगों के बीच कहे जान वाले युगसत्य को समझने की जरूरत है. यह होती है समय की भावना. इसके साथ ही यह सरकार की ओर से जोर लगाकर राजनीतिक दान करने जैसा अभ्यास भी होता है.
जानते हैं ऐसा क्यों?
मेरे पास दो स्पष्टीकरण हैं कि सरकारें अक्सर इतने जोरदार तरीके से बाधा क्यों पैदा करती हैं. एक मौलिक है और दूसरा व्यावहारिक. दूसरे की जरूरत सरकार को इसलिए होती है कि वह कुछ लोगों की सहायता करे, जिनका समर्थन अस्तित्व के लिए जरूरी होता है.
लेकिन इसमें सफलता के लिए यह जरूरी है कि पहला भी पूरा हो. युगसत्य में या समय की भावना के हिसाब से बड़ा परिवर्तन. एक अच्छा राजनेता इसें भांप लेता है जब यह होता है और इसका दोहन करता है. इंदिरा गांधी ने धन के पुनर्वितरण की अहमियत को पहचान लिया था 1960 के अंतिम दौर में यह विकसित हुआ था और उस पर निवेश किया.
इस अर्थ में यह समझना जरूरी है कि जबरदस्त विघटन की समस्या सरकार अकेले पैदा नहीं करती, बल्कि देश का मूड अपने आप में इस बदलाव की वजह होता है. इसलिए सही तरीके से पूछने वाला सवाल है कि क्यों नया मूड बनता है और क्या यह नेता ही हैं जो इस नये मूड को जन्म देते हैं या फिर राजनीतिज्ञ जो पैदा करते हैं वही नया मूड है.
उदाहरण के लिए, 1960 के दशक के अंत तक न तो समाजवाद और न ही स्वचेतन धर्मनिरपेक्षता, जिसे हम अब देखते हैं, राजनीतिक प्लेटफॉर्मों पर बहुत स्पष्ट थे. किसी ने इस बारे में बहुत ज्यादा बातचीत नहीं की.
वास्तव में इन विचारों के उपयोग के किसी भी प्रयास को लोगों ने जानबूझकर नापंसद और खारिज किया. जनसंघ की तरह जिन लोगों ने इस पर जोर दिया, उन्हें नजरअंदाज कर दिया गया. 1989 तक जनसंघ का चुनावी प्रदर्शन इसका गवाह है.
तो बदला क्या? जैसा कि मैंने पहले कहा 1960 तक सबसे महत्वपूर्ण ड्राइविंग फोर्स थी कांग्रेस की कम्युनिस्ट पार्टी पर निर्भरता. इन दोनों ने पुनर्वितरण के समर्थन के नाम पर एक साथ समय की भावना का खूब दोहन किया और भारत अति समाजवादी हो गया.
1976 में इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना के साथ ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ दिया. उन्होंने खुद भी ‘सेकुलर’ शब्द डलवाया.
ड्राइविंग फोर्स- धर्मनिरपेक्षता के साथ समाजवाद
मुझे लगता है कि मूड में बदलाव जैसा कुछ इस कदर हुआ कि अब धर्मनिरपेक्षता के साथ समाजवाद आ गया. इसके कारण तात्कालिक या दीर्घकालिक चाहे जो रहे हों, भारतीय अब खुल्लमखुल्ला गैर धर्मनिरपेक्ष हो गये.
लेकिन राजनीतिक मोलतोल कभी एकतरफा नहीं हुआ करते. 1974 तक, एक बड़ा आर्थिक संकट साथ-साथ संसद और राज्य विधानसभाओं में बड़े बहुमत ने इंदिरा गांधी को कम्युनिस्टों को छोड़ने के लिए मजबूर और सक्षम किया, क्योंकि उन्हें अब उनकी जरूरत नहीं रह गई थी. उसके बाद देश की अर्थव्यवस्था को वह समाजवादी बनाने और कमी वाले रूप में स्थिर और मजबूत करने में सक्षम थी.
चलिए अब इसकी तुलना वर्तमान से करते हैं. अपने दूसरे कार्यकाल के सात महीनों में मोदी सरकार ने हर उस चीज पर जोर दिया, जिसे वह और उनकी सोच वाले सहयोगी चाहते हैं- तीन तलाक, धारा 370 को समाप्त करना और नयी नागरिकता कानून.
लेकिन अब जबकि बड़ा राजनीतिक काम हो चुका है, वक्त आ गया है जब सरकार अर्थव्यवस्था पर ध्यान दे जो इस वक्त सबसे बड़ी समस्या है.
संभावनाओं के सिद्धांत में इसे वैरिएबल चेंज कहते हैं, जिसका मतलब ये है कि अगर आपको यह पता हो कि ऐसा करने से बाधाएं दूर हो जाएंगी तो आप वैरिएबल को बदल देते हैं .
इंदिरा गांधी ने इसका बहुत सफलता के साथ इस्तेमाल किया. अब मोदी भी कर रहे हैं. वास्तव में यह उन्हें निश्चित रूप से करना चाहिए. इंदिरा ने राष्ट्रीयकरण किया, उन्हें इसे पलट देना चाहिए.
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