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अंग्रेजों ने भारत में अपनी पहली राजधानी कलकत्ता को बनाया था, जहां से उन्होंने 1912 तक देश भर में शासन किया, लेकिन यहां पर उन्होंने कभी भी किंग्स-वे का निर्माण नहीं किया. यहां पर उन्होंने क्ववींस-वे का निर्माण करवाया था, हालांकि इसका सीमित महत्व था. यह महारानी विक्टोरिया के भव्य स्मारक के सामने से गुजरने वाली एक छोटी सड़क थी, जिसका उद्घाटन ब्रिटिशों द्वारा किया गया था.
निश्चित तौर पर एक भव्य इम्पीरियल सिटी के केंद्र में स्थित यह मार्ग एक भव्य शाही द्वार नहीं था. हालांकि कलकत्ता ब्रिटिश साम्राज्य में दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला शहर था, लेकिन अंग्रेजों के लिए इसे एक शाही शहर के रूप में सोचना मुश्किल था. कलकत्ता के इतिहास ने इसके खिलाफ काम किया था.
इस बात को कभी भी नहीं भुलाया जा सकता है कि कलकत्ता की उत्पत्ति कभी ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यावसायिक पोस्ट के तौर पर हुई थी. जैसा कि रुडयार्ड किपलिंग ने अपनी कविता में कहा है :
"Once, two hundred years ago, the trader came
Meek and tame.
Where his timid foot first halted, there he stayed,
Till mere trade
Grew to Empire, and he sent his armies forth
South and North
Till the country from Peshawur to Ceylon
Was his own.
Thus the midday halt of Charnock – more's the pity!
Grew a City."
1876 में जब महारानी विक्टोरिया ने 'भारत की साम्राज्ञी' की उपाधि धारण करने का फैसला किया था, तब कलकत्ता को उपयुक्त स्थान नहीं माना गया था, जहां से भारत के लोगों के लिए इस फैसले की घोषणा की जा सके.
भले ही ब्रिटिश क्राउन ने 1858 में कंपनी से अपने भारतीय क्षेत्रों का अधिग्रहण कर लिया था, लेकिन यह एक ऐसा एसोसिएशन नहीं था जो शाही नाम को गौरव प्रदान कर सके.
यहां पर भारत के अतीत से संबंध बनाना आवश्यक था.
इस तर्क के अनुसार यह निष्कर्ष निकला कि महारानी के टाइटल की उद्घोषणा के लिए सबसे उपयुक्त स्थान दिल्ली था, जोकि शाही मुगल राज-वंश की अंतिम राजधानी थी.
इसने न केवल 1877 के दरबार के लिए मंच तैयार किया बल्कि 1903 और 1911 के राज्याभिषेक दरबारों के लिए नजीर भी बन गया. गौरतलब है कि दिल्ली में 1903 और 1911 में शाही दरबार का आयोजन किया गया था, जिसमें क्रमश: एडवर्ड सप्तम और जॉर्ज पंचम का नाम भारत के नए सम्राटों के तौर पर घोषित किया गया था.
हर बार इस बात को न्यायसंगत बताया जाता है कि दिल्ली लोगों के दिमाग में बसी है, यह भारत की असली राजधानी है. यह न केवल मुगल काल में, बल्कि अधिकांश दिल्ली सल्तनत की राजधानी थी. वहीं पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महाभारत के दौर में यह क्षेत्र इंद्रप्रस्थ के तौर पर जाना जाता था जहां पांडवों ने अपनी राजधानी बनाई थी.
कुछ अतिशयोक्ति के साथ दरबार के आधिकारिक इतिहास में कहा गया है -
जो हमें किंग्स-वे की तरफ ले जाता है. पहले की दरबार की तरह ही 1911 में एक शाही दरबार का आयोजन किया गया था, जिस जगह पर यह दरबार लगा था, आज उसे कोरोनेशन पार्क के रूप में जाना जाता है.
इस दरबार के लिए जॉर्ज पंचम दिल्ली आए थे, इस शाही यात्रा के दौरान वे जहां कैंप में रुके थे, वहां आज दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति का कार्यालय मौजूद है.
दरबार के लिए तैयार गई टेंट सिटी को जल्द ही गिरा दिया गया था. जबकि किंग्स-वे की संरचना बच गई और इसके विभिन्न हिस्सों को आज के समय में शांति स्वरूप त्यागी मार्ग, भाई परमानंद मार्ग, लोक मार्ग और विजय नगर मार्ग नाम दे दिया गया है.
इस दरबार की सबसे स्थायी विरासत जॉर्ज पंचम द्वारा की गई एक महत्वपूर्ण घोषणा थी जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत में ब्रिटिश राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित किया जाएगा.
राजधानी का स्थानांतरण 1911 में विचार किए जा रहे भविष्य के संवैधानिक सुधारों का एक हिस्सा था- जहां अधिक प्रांतीय स्वायत्तता हो. पिछले भारतीय साम्राज्यों के उत्तराधिकारी के रूप में पेश करने के लिए और भारतीयों के लिए अधिक स्वीकार्य बनाने के लिए, यह भारत में ब्रिटिश शासन की छवि को सुधारने का भी एक प्रयास था.
शाही दरबार के बाद दिल्ली छोड़ने से पहले दरबार स्थल के पास जॉर्ज पंचम ने नए शहर की आधारशिला रखी थी.
इस मौके पर किंग जॉर्ज ने घोषणा की थी कि दिल्ली में एक भव्य राजधानी बनाने का काम जल्द ही शुरू होगा, ऐसी राजधानी जो “हर प्रकार से इस प्राचीन और सुन्दर शहर के अनुरूप होगी.”
जैसा कि आखिरकार हुआ, जहां नींव के पत्थर रखे गए थे, उस स्थान पर शहर को नहीं बनाया गया, क्योंकि टाउन प्लानिंग कमेटी ने रायसीना पहाड़ी के आसपास एक अधिक उपयुक्त स्थान को चुना था.
यहां भी ऐतिहासिक जुड़ावाें को ध्यान में रखा गया था. इसलिए प्रमुख सड़कों को सफदरजंग के मकबरे (पृथ्वीराज रोड के अंत में) और जामा मस्जिद (संसद मार्ग-मिंटो रोड एक्सिस के लिए एक विजुअल टर्मिनेशन) जैसे ऐतिहासिक स्थलों के साथ जोड़ा गया था.
1928 से 1932 तक दिल्ली के चीफ कमिश्नर जॉन थॉम्पसन के शब्दों में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि :
यह नजरिया उस भावना के साथ अच्छी तरह से फिट बैठता है जिस पर नई राजधानी की स्थापना की गई थी.
आजादी के बाद राजधानी नई दिल्ली पर भारत के लोगों की एक सरकार काबिज हुई थी. यह राजतंत्र वाली नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित सरकार थी.
इसलिए राजधानी के मुख्य मार्ग का नाम बदलना उचित समझा गया. 'राजपथ' को अभी भी 'राज' या 'सरकार' के तौर पर संदर्भित किया जाता है, लेकिन सरकार अब भारतीय और लोकतांत्रिक थी.
(डॉ. स्वप्ना लिडल एक इतिहासकार और लेखक हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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