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किंग जॉर्ज पंचम ने नाटकीय ढंग से दिल्ली को बनाया राजधानी, विवाद और पूरी कहानी

Kartavya Path: मच्छरों की वजह से बदलनी पड़ी थी नई राजधानी की ओरिजनल लोकेशन, चुपचाप शिफ्ट किए गए थे नींव के पत्थर.

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Kartavya Path Inauguration

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इन दिनों सेंट्रल विस्टा और राजपथ काफी चर्चा में हैं. राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ कर दिया गया है. राजपथ को किंग्सवे के नाम से भी जाना जाता था, यह मार्ग जॉर्ज पंचम के सम्मान में बनाया गया था. इन्होंने ने ही 1911 में घोषणा की थी कि देश की राजधानी को कोलकाता से दिल्ली स्थानांतरित किया जाता है. जब कोलकाता से राजधानी दिल्ली हुई तब सेंट्रल विस्टा का निर्माण हुआ. अब सेंट्रल विस्टा का पुनर्विकास हो रहा है. आइए जानते हैं क्यों और कैसे कोलकाता से राजधानी दिल्ली लाई गई. इसे कैसे तैयार किया गया, क्या विवाद हुए और कैसी समस्याएं आईं...

"कोलकाता" से राजधानी "दिल्ली" क्यों लाई गई?

इस पूरी कहानी की शुरुआत बंगाल विभाजन से होती है. वर्ष 1905 में ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का बंटवारा कर दिया था, लेकिन पांच साल बीतते-बीतते विरोध इतना बढ़ गया कि ब्रिटिश हुकूमत को लगने लगा कि बंटवारे का यह फैसला गलत था.

इस बीच 1910 में जॉर्ज पंचम इंग्लैंड के राजा बने और गद्दी संभालने के बाद उन्होंने बंगाल मुद्दे पर ही बड़ा फैसला किया था. राजा बनने के बाद उन्होंने तय किया था कि उनकी ताजपोशी के लिए दिल्ली में एक दरबार लगाया जाए. वे यहां से भारत की जनता को एक शाही तोहफा देना चाहते थे, उनके पिटारे में बंगाल विभाजन को रद्द करने का ऐलान छिपा हुआ था.

किंग जॉर्ज बंगाल विभाजन को रद्द करने का तोहफा देने वाले थे, लेकिन उस वक्त भारत के वायसराय लॉर्ड हार्डिंग को बंगाल का बंटवारा रद्द करने का विचार ठीक नहीं लगा, ऐसे में यह बात वहीं रुक गई थी.

तब हार्डिंग को मनाने के लिए ब्रिटिश पार्लियामेंट के एक तत्कालीन सांसद जॉन जेनकिन्स ने सुझाव दिया कि क्यों न बंगाल का बंटवारा रद्द कर उसकी सरहद नए सिरे से तय की जाए और कोलकाता से ले जाकर राजधानी को दिल्ली में शिफ्ट कर दिया जाए.

ब्रिटेन की संसद की तरफ से जब यह प्रस्ताव आया तब उसे हार्डिंग समेत सभी ने पसंद किया. इस तरह दिल्ली को राजधानी बनाने की बात जून 1911 में सबसे पहले उठी.

बाद में लॉर्ड हार्डिंग ने भी घोषणा करते हुए कहा था कि देश के नक्शे के लिहाज से, ऐतिहासिक विरासत के लिहाज से और राज करने की सहूलियत के लिहाज से भारत की राजधानी दिल्ली में ही होनी चाहिए.

हार्डिंग की ओर से तब बताया गया था कि इसका आधिकारिक ऐलान दिल्ली में लगने वाले अगले शाही दरबार में खुद किंग जॉर्ज करेंगे. तय कार्यक्रम के अनुसार दिल्ली में किंग जॉर्ज पंचम की अगवानी 7 दिसंबर 1911 को होनी थी और 12 दिसंबर 1911 को उनकी ताजपोशी होनी थी.

दिल्ली में कहां लगा था शाही दरबार, जहां से हुआ नई राजधानी का ऐलान?

कॉरोनेशन ग्राउंड में शाही दरबार लगा था, यहीं से किंग ने नई राजधानी की घोषणा की थी. यह ग्राउंड रिंग रोड से सटे जीटी रोड के थोड़ा पहले बुराड़ी के पास है. 1911 में यहीं पर दरबार लगा था और जॉर्ज पंचम की ताजपोशी हुई थी.

सबको लगा दरबार खत्म लेकिन किंग ने चौंकाया

12 दिसंबर के दिन कॉरोनेशन ग्राउंड पर एक लाख लोगों की भारी भीड़ मौजूद थी. इसके अलावा वहां पर यूनिफॉर्म में सजे सैकड़ों सरकारी अफसर और शाही दमकते लिबासों में लिपटे देशभर के राजा, महाराजा और राजकुमार उपस्थित थे. किंग जॉर्ज पंचम को 101 तोपों की सलामी दी गई, उनके लिए खास ताज बनवाया गया था, जिसमें 60,000 पाउंड खर्च हुए थे. मंच पर किंग और क्वीन आसीन थे.

किंग जॉर्ज पंचम अपने संबोधन के लिए खड़े हुए. उन्होंने अपने राज्याभिषेक के ऐलान के लिए खुद दिल्ली आने पर खुशी जताई और पहले किए वादों का सम्मान करने और उन्हे पूरा करने की बात कही. इसके बाद अंत में मेडल, इनाम और वजीफे बांटने की बारी थी. इस प्रक्रिया के बाद दरबार खत्म माना जाता है. लेकिन अभी तक दिल्ली को राजधानी बनाने का ऐलान नहीं हुआ था. राजा ने अपने पिटारे से अभी तोहफा नहीं निकाला था.

जब दरबार खत्म होने वाला था, तभी किंग जॉर्ज अचानक उठ खड़े हुए और वायसराय के हाथ से एक कागज लेकर ऊंची आवाज में उसे पढ़ना शुरू कर दिया. उसमें लिखा था कि कोलकाता से हटाकर दिल्ली को राजधानी बनाने का ऐलान किया जाता है. इस तरह 1911 के दिल्ली दरबार का सबसे अहम शाही ऐलान बड़े ही नाटकीय तरीके से पूरे समारोह के अंत में हैप्पी एंडिंग के तौर पर हुआ. ये किंग जॉर्ज का अपना शाही अंदाज़ था.

नई राजधानी की नींव कब पड़ी?

दिल्ली दरबार तो खत्म हो गया और दिल्ली को भारत की नई राजधानी बनाने का ऐलान भी हो गया, लेकिन अभी नींव के पत्थर रखे जाने बाकी थे. दिल्ली दरबार खत्म होने के तीन दिन बाद राजधानी की नींव रखी गई. किंग्सवे कैंप में 15 दिसंबर की शाम को समारोह हुआ, इसमें पांच सौ लोग मौजूद थे. बकायदा चांदी और हाथीदांत के बने औजारों से किंग और क्वीन ने दो शिलाएं रखीं. इस तरह 15 दिसंबर 1911 को कॉरोनेशन पार्क में खड़े कॉरोनेशन कॉलम के पास राजधानी दिल्ली की नींव रखी गई.

इस समारोह में एक बार फिर किंग जॉर्ज ने कहा कि ‘हम जिस जगह पर खड़े हैं वहां नई शाही राजधानी उभरेगी और हमारे दिल्ली छोड़ने के पहले उस राजधानी के प्रथम शिलाखंडों (नींव) को रखना हमारे द्वारा संभव हो सका, ये हमारे लिए परम संतोष की बात है.'

जहां नींव पड़ी वहां नई राजधानी की इमारत नहीं बन पाई

यह बड़ी ही दिलचस्प बात है कि जिस जगह पर किंग और क्वीन ने नींव रखी थी वहां पर न तो नई राजधानी की इमारत बनी और न ही शहर. इतना ही नहीं जहां नींव के पत्थर रखे गए थे, वहां से उनको हटाना पड़ा.

कहां बनाई जाए नई राजधानी, इसका फैसला कैसे हुआ?

अंग्रेज चाहते थे कि उनकी हुकूमत की राजधानी बनने वाली दिल्ली मुगलिया दिल्ली से बिल्कुल अलग दिखे. इसीलिए इमारतों की डिजाइन से लेकर उनके पत्थर और रंग-रोगन तय करने का काम भी खास लोगों को सौंपा गया था. मैल्कम हेली को दिल्ली का चीफ कमिश्नर नियुक्त किया गया था, इनको ही नई राजधानी बनाने का प्रोजेक्ट सौंपा गया.

नई राजधानी यानी एक पूरा शहर इतनी जल्दी तो बस नहीं सकता था लेकिन चूंकि इसका ऐलान हो चुका था और नींव के पत्थर पड़ चुके थे, ऐसे में किंग्सवे कैंप के पास ही एक अस्थाई राजधानी बनाई गई थी. जिसे आज हम और आप ओल्ड सेक्रेट्रिएट (पुराना सचिवालय) के नाम से जानते हैं, उसे काउंसिल चैंबर यानी सेंट्रल असेंबली और सचिवालय के नाम पर बनाया गया था.

अंग्रेज नॉर्थ दिल्ली के इसी इलाके में बसे हुए थे और नॉर्थ दिल्ली से ही सटे बुराड़ी में दिल्ली दरबार लगा था, इस लिहाज से दरबार ग्राउंड से ही लगे हुए और थोड़ा पहले पड़ने वाले इसी इलाके में अस्थाई राजधानी तैयार की गई.

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नई राजधानी के ऐलान के साल भर के भीतर ओल्ड सेक्रेट्रिएट वाली इमारतें खड़ी हो गई थीं और अस्थाई राजधानी से सरकारी काम काज शुरू हो गया था. वहीं दूसरी तरफ असली राजधानी के लिए जमीन हासिल करने की कवायद शुरू हो गई थी.

दिल्ली उस वक्त अविभाजित पंजाब प्रांत का जिला था. नई राजधानी बनाने के लिए दिल्ली और बल्लभगढ़ तहसील के 128 गांवों की करीब सवा लाख एकड़ जमीन ली गई. 21 दिसंबर 1911 को एक नोटिफिकेशन जारी कर पचासी हजार जमीन मालिकों को जमीन अधिग्रहण का नोटिस भेजा गया था.

बाद में 1914 में इसमें मेरठ के भी 65 गांव शामिल किए गए थे. नई राजधानी के लिए अधिग्रहीत तमाम गांवों की जमीनों में मालचा, रायसीना, कुशक, मंगलापुरी, जयसिंहपुरा, माधोगंज, तालकटोरा, बाराखंबा, जाब्तागंज, राजा का बाजार जैसे गांव शामिल थे.

उस समय मुआवजे की दर 150 रुपए प्रति एकड़ तय हुई थी. लेकिन राजधानी के लिए अधिग्रहीत किए कुछ गांवों के किसानों को आज भी उनका मुआवजा नहीं मिला है.

मच्छर की वजह से खारिज हुई पहली लोकेशन, फिर सामने आई रायसीना हिल्स

कॉरोनेशन ग्राउंड या किंग्सवे कैंप के आसपास ही नई राजधानी बसाने की तैयारी थी, लेकिन यह योजना विफल हो गई. यह प्लान मच्छरों की वजह से फेल हो गया, दरअसल नई इंपीरियल राजधानी बनाने के लिए 1912 में मशहूर आर्किटेक्ट एडविन लैंडसीयर लुटियन्स और हरबर्ट बेकर को दिल्ली बुलाया गया था. लुटियन्स डेल्ही टाउन प्लानिंग कमेटी के सदस्य थे उन्होंने एक रिपोर्ट दी थी, जिसमें उन्होंने कॉरोनेशन पार्क और इसके आसपास की जगह को छोटा, तंग और मलेरिया के खतरे के लिहाज से उपयुक्त नहीं बताया था.

इसके बाद लुटियन्स और बेकर नई जगह की तलाश में महीनों घूमते रहे. अंत में खुद वायसराय और कमिश्नर हेली ने रायसीना हिल्स को नई राजधानी के लिए चुना. रायसीना पहाड़ी पर बसे मालचा और रायसीना गांव के पास नई जगह तय हो गई. इसके बाद दिसंबर 1912 को वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की दिल्ली में स्टेट एंट्री होती है.

बम से हुआ वायसराय का स्वागत

वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की स्टेट एंट्री के दौरान उनके हाथी पर एक बम आकर गिरा था, जिसे क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने फेंका था. इस कांड में हार्डिंग को थोड़ी चोटें आईं, लेकिन उसकी जान बच गई. वायसराय के दिल्ली आ जाने के बाद अब नई राजधानी के काम में भी तेजी आई.

किंग जॉर्ज द्वारा स्थापित नींव के पत्थरों का क्या हुआ?

नींव के पत्थर को लेकर यह तय हुआ था उनको चुपचाप उखाड़ कर रायसीना हिल पर शिफ्ट कर दिया जाए. यह काम दबे कदम इसलिए करना था क्योंकि इससे किसी तरह की अफवाह न उड़े और अंग्रेज राजा की शान में कोई दाग न लगे. वहीं अंग्रेजों में क्रांतिकारियों से डर पैदा हो गया था कि कहीं वो नींव के पत्थर उखाड़ न फेंके.

पत्थर हटाने के काम का जिम्मा अंग्रेजों के करीबी कॉन्ट्रैक्टर सरदार शोभा सिंह को दिया गया, जो मशहूर अंग्रेजी लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह के पिता थे. शोभा सिंह ने बैलगाड़ी पर पत्थर लदवाकर आधी रात को रायसीना हिल्स पर पहुंचाए और ये पत्थर नई राजधानी की असली नींव में लगे. ये घटना मई 1913 की है. रायसीना हिल्स पर जहां ये पत्थर रखे गए, आगे चलकर वहां नॉर्थ और साउथ ब्लॉक बने.

विश्वयुद्ध ने बिगाड़ा राजधानी का बजट

नई राजधानी की जगह तय हो गई, जमीन पर कब्जा हो गया, नींव के पत्थर भी नई जगह पर शिफ्ट गए लेकिन दिल्ली अभी दूर थी. तैयारियां जोर-शोर से चल रही थीं लेकिन उस दौरान अगस्त 1914 में इंग्लैंड ने जर्मनी के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया. पहला विश्वयुद्ध शुरू हो गया, जो चार साल तक चला. इसने ब्रिटिश सरकार का खर्च बढ़ा दिया, जिसका असर राजधानी के निर्माण पर भी पड़ा. सही मायनों में देखें तो 1918 में पहला विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद ही राजधानी के काम ने तेजी पकड़ी थी.

लुटियन्स और बेकर ने नई दिल्ली को कागज से जमीन पर उतारा

1913 में अंग्रेज सरकार और लुटियन-बेकर के बीच एग्रीमेंट साइन हुआ, जिसके तहत उन्हें इंपीरियल कैपिटल का निर्माण करना था. नई दिल्ली बसाने में लुटियन्स और बेकर की अहम भूमिका थी, इन्होंने ने ही नई दिल्ली बसाने के ऐलान को कागजों से जमीन पर उतारा था. किंग जॉर्ज और वायसराय हार्डिंग दोनों चाहते थे कि नई राजधानी पारंपरिक भारतीय शैली की हो. यही वजह है कि लुटियन्स की बनाई इमारतों में यूरोपियन शैली होने के साथ-साथ उनमें भारतीय पारंपरिक शैली के तौर पर छज्जा, जाली और छतरी यानी गुंबद बने हुए हैं.

राह आसान नहीं थी

करीब दस हजार एकड़ खाली पड़ी जमीन को शहर की शक्ल देने के लिए वास्तुकारों द्वारा नक्शे बनाये जाने लगे. रायसीना की पहाड़ी को विस्फोट से उड़ाया गया. मालचा गांव के पीछे की जमीन पथरीली थी, उसे ठीक किया गया. सैंड स्टोन और मार्बल राजस्थान की खदानों से रेल के जरिए मंगाया गया था और इन्हें ढोने और काम करने के लिए राजस्थान से करीब तीस हजार मजदूर भी बुलवाए गए थे.

लुटियन्स ने राजधानी क्षेत्र को कुल 169 ब्लॉक्स में बांट दिया था. ब्लॉक्स के अलावा लुटियन्स ने शहर की योजना को कई प्वाइंट्स और जोन में बांटा था.

आज का राष्ट्रपति भवन उस समय वायसराय निवास के तौर पर बनाया गया था. लाल और सफेद सैंड स्टोन से बने राष्ट्रपति भवन का निर्माण कार्य 17 साल में पूरा हुआ था. इंडिया गेट को बनाने में दस साल लगे थे. इसे पहले विश्वयुद्ध में मिली जीत उसमें मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए बनाया गया. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रतिनिधि जहां बैठते हैं उस संसद भवन को बेकर ने डिजाइन किया था. इंडिया गेट और वायसराय निवास के शिल्पकार लुटियन्स ही थे.

बेकर ने नॉर्थ और साउथ ब्लॉक इमारत बनाई थी, ये दोनों ही इमारतें इटैलियन और भारतीय आर्किटेक्चर का बेहतरीन नमूना हैं. पार्लियामेंट हाउस या काउंसिल चैंबर की डिजाइन का जिम्मा बेकर का था, लेकिन इसे गोलाकार बनाने का सुझाव लुटियन्स ने दिया था.

लुटियन्स के अनुसार नई राजधानी बनाने के लिए कुल 29000 मजदूर लगे थे. इसके लिए साढ़े तीन सौ करोड़ क्यूबिक पत्थरों को तराशा गया, सात सौ करोड़ ईंटे इस्तेमाल हुईं. सात सौ कारीगरों ने लकड़ी का काम किया था.

कहानी कनाट प्लेस की...

माधोगंज गांव जिस जगह था, वो डी प्वाइंट था, यहां शॉपिंग के लिए सिटी सेंटर की योजना थी. लेकिन 1921 में जब किंग जॉर्ज के अंकल ड्यूक ऑफ कनॉट दिल्ली आए तो उन्होंने दिल्ली शहर के लिए अपने प्यार का इजहार किया और ऐसे में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा इस शॉपिंग सेंटर का नाम कनॉट प्लेस रख दिया गया.

कनॉट प्लेस को गोलाई में ब्लॉक्स और खंबो पर बनाने का आइडिया इंपीरियल दिल्ली कमेटी के सदस्य डब्ल्यू एच निकोलस ने दिया था, जिसे बाद में सीपीडब्ल्यूडी के चीफ आर्किटेक्ट आर टी रसेल ने साकार किया.

आखिर नई राजधानी का उद्घाटन कब हुआ?

सिविल लाइंस में बनी आस्थाई राजधानी से 1911 से 1931 तक काम चला था. नई राजधानी के औपचारिक उद्घाटन की तारीख 15 फरवरी 1931 को तय हुई थी. उद्घाटन समारोह में दुनिया भर से मेहमान आए थे. इस तरह दिग्गज वास्तुकारों की प्लानिंग, मजदूरों की कड़ी मेहनत और वर्षों के इंतजार के बाद नई राजधानी, नई दिल्ली सबके सामने आयी थी.

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