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मौजूदा दौर के कश्मीर संकट को 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश के जन्म के समय से जोड़कर देखा जा सकता है. तब पाकिस्तान ने शिकस्त का अपमान झेला था और करीब 93,000 युद्ध बंदियों के साथ हथियार डाल दिए थे. सबसे बड़ी बात यह थी कि पाकिस्तान दो देशों में टूट गया था. इसके अलावा उसे एहसास हुआ था कि वह परंपरागत तरीके से भारत से टक्कर नहीं ले सकता. इसीलिए उसने भारत को धीमे-धीमे खोखला करने की कोशिशें शुरू कर दीं, जिसे अंग्रेजी में कहते हैं- ‘डेथ बाय थाउज़ेंड कट्स’. यानी इतने जख्म दो कि अंत में मौत ही हो जाए.
मौजूदा कश्मीर संकट बहुत हद तक, 1971 से पाकिस्तान के जरिए पैदा किया गया है.
पिछले तीन सालों में, अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद से स्थितियां बेहतर हुई हैं. हिंसा का चक्र टूटा है. लेकिन इससे आतंकवादियों के मंसूबों पर पानी फिर गया है.
राजनीतिक खतरों को पहले ही पहचानने के लिए नागरिक समाज और स्टेकहोल्डर्स को मजबूत करना होगा जैसे जमीनी स्तर के राजनेता, धार्मिक नेता, शिक्षक वगैरह. जब तक सभी सक्रिय नहीं होंगे, सार्थक परिवर्तन नहीं हो सकता.
ज्यों-ज्यों दूसरे मापदंडों पर चीजें सुधर रही हैं, तत्कालीन राज्य की राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करने का वक्त आ गया है.
जब तक हालात स्थिर नहीं होते, तब तक कश्मीरी पंडितों या अन्य अल्पसंख्यकों को घाटी में फिर से बसाने की कोई जल्दी नहीं होनी चाहिए. तीन दशकों में जो खराब हो चुका है, उसे रातोंरात नहीं बदला जा सकता है.
पाकिस्तान ने अस्सी के दशक में पंजाब से इसकी शुरुआत की, फिर जम्मू और कश्मीर में सफलता के साथ इसे अंजाम दिया जो अब भी जारी है.
वैसे बेमन से ही सही, लेकिन हमें पाकिस्तान को इस रणनीति के लिए पूरे अंक देने चाहिए कि किस तरह उसने हींग लगे, न फिटकरी फिर भी रंग चोखा वाली रणनीति अपनाई. सीमा पार के आतंकवादियों और अंदरूनी अलगाववादियों की मदद से उसने खुद से ताकतवर प्रतिद्वंद्वी के पैरों में बेड़ियां डाल दीं. यहां तक कि सीमा पार बैठे उनके आका उनके काम करने के तरीकों को स्थितियों और संदर्भों के लिहाज से बदलते रहे.
करीब दो दशकों तक जम्मू-कश्मीर में व्यापक हिंसा हुई और हजारों की संख्या में आतंकवादी वहां घूमते और अपना काम करते रहे. जब सुरक्षा बल वहां हालात को काबू में लाए और हिंसा कम हुई, तो अलगाववादियों और उनके स्पांसर्स ने कश्मीर में काठ की हांडी को फिर चढ़ाने के लिए नए पैंतरे और रणनीतियां रचनी शुरू कर दीं. यह सिलसिला एक दशक तक जारी रहा. 2009 से 2011 तक, हर साल गर्मियों में पत्थरबाजी शुरू हो जाती. यह कश्मीर में विरोध प्रदर्शन का नया रूप था. लेकिन वे जल्दी समझ गए कि निहत्थे संघर्ष को पश्चिमी दुनिया में ज्यादा स्वीकृति मिलती है.
लेकिन पिछले दशक में घुसपैठ को रोकने वाले अभियानों और सुरक्षा के हालात से घाटी में आतंकवादियों की संख्या हजारों से सिमटकर सैकड़ों में आ गई. इनमें से ज्यादातर आतंकवादी प्रशिक्षित नहीं थे क्योंकि प्रशिक्षण लेने के लिए ये पीओके में घुसपैठ नहीं कर सकते थे. इसलिए उन्होंने सोशल मीडिया के इस्तेमाल की रणनीति अपनाई. मीडिया और सोशल मीडिया का कुशलता से इस्तेमाल करके नेरेटिव गढ़ा गया और भीड़ इकट्ठी की गई. सोशल मीडिया भी कट्टरता का मुख्य जरिया बन गया.
सुरक्षा बल, खुफिया एजेंसियां और प्रशासन इन घटनाक्रम पर बेहतर तरीके से प्रतिक्रिया देते आए हैं. 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 के बालाकोट हवाई हमले ऐसे ही दो कदम थे जो संकट को रोकने के लिए उठाए गए थे. 5 अगस्त, 2019 को भारत ने अनुच्छेद 370 और 35 ए को हटाया. उस समय अलगाववादियों, पाकिस्तान और दूसरे निहित स्वार्थों को समझ नहीं आया कि क्या प्रतिक्रिया दें.
आइए देखें कि पिछले लगभग तीन वर्षों में विभिन्न मापदंडों पर स्थिति कैसी रही.
सड़कों पर कम हिंसा है, जम्मू और कश्मीर प्रशासन लोगों तक पहुंच बना रहा है, विभिन्न क्षेत्रों में प्रशासन बेहतर हुआ है, आर्थिक गतिविधियों में सहायता कर रहा है, और लगभग दो वर्षों तक सुरक्षा बलों की कार्रवाइयों के परिणामस्वरूप किसी नागरिक की मौत नहीं हुई. हिंसा का चक्र टूट चुका था. इसने स्पष्ट रूप से आतंकवादियों के मंसूबों पर पानी फेर दिया है.
दूसरा पक्ष विक्टिम कार्ड खेलना चाहता था. इसीलिए चुन-चुनकर लोगों की हत्याएं की जा रही हैं- सॉफ्ट टारगेट चुने जा रहे हैं, यह साबित करने के लिए कि हालात सामान्य नहीं हो रहे. अगर आतंकवादी सुरक्षा बलों पर निशाना साधते हैं तो इसका जनता पर बहुत ज्यादा असर नहीं होता.
लेकिन जब आम लोग निशाने पर होते हैं तो उसका बहुत डरावना असर होता है. यह महसूस नहीं होता कि स्थितियां बेहतर हो रही हैं. यह जनता के मन में भय और अनिश्चितता पैदा करता है, खासकर अगर अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाया जाता है.
तो इस मोर्चे पर आगे रहने के लिए क्या किया जा सकता है? अच्छा प्रशासन देना जारी रखें, बेहतर व्यावसायिक अवसरों और विकास की आकांक्षाओं को पूरा करना अच्छे कदम हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं हैं. चुन-चुनकर हत्याएं करना, इसका हल यह नहीं कि सिर्फ सुरक्षा प्रदान कर दी जाए क्योंकि इसके नतीजे सीमित होंगे. यूं हर घटना के बाद यही रास्ता निकाला जाता है.
इस तरह के संभावित खतरों की पहले से पहचान करने के लिए नागरिक समाज और अन्य स्टेकहोल्डर्स, जैसे जमीनी स्तर के राजनेताओं (पंचायतों, जिला विकास परिषदों), धार्मिक नेताओं, शिक्षकों, आदि को मजबूत करने की जरूरत है. जब तक इन स्टेकहोल्डर्स को सक्रिय नहीं किया जाता, तब तक सार्थक परिवर्तन नहीं हो सकता.
इस बीच ज्यों-ज्यों दूसरे मापदंडों पर चीजें सुधर रही हैं, तत्कालीन राज्य की राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करने का वक्त आ गया है. परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के साथ ही चुनाव कराने की तैयारी है. बेहतर हालात के लिए केंद्र की मदद की जरूरत है लेकिन राजनीतिक प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए. स्टेकहोल्डर्स को जिम्मेदार महसूस करना चाहिए और उसे राज्य के हालात में सुधार के लिए मिलकर काम करना चाहिए. मेरे विचार से, जब तक हालात स्थिर नहीं होते, तब तक कश्मीरी पंडितों या अन्य अल्पसंख्यकों को घाटी में फिर से बसाने की कोई जल्दी नहीं होनी चाहिए. तीन दशकों में जो खराब हो चुका है, उसे रातोंरात नहीं बदला जा सकता है. निराशा और जान गंवाने के बजाय प्रक्रिया में देरी करना बेहतर है. कुछ स्थितियों में धीरज रखना ही एक रणनीति होती है.
हमारी सोच हमेशा आगे रहनी चाहिए और आतंकवादियों के मंसूबों पर प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए. तभी पूरी स्थिति में सुधार हो सकता है, और तभी कश्मीर में अल्पसंख्यकों के रहने और काम करने के लिए हालात सुरक्षित होंगे.
(लेफ्टिनेंट जनरल सतीश दुआ कश्मीर में एक पूर्व कोर कमांडर हैं, जो एकीकृत रक्षा स्टाफ के प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुए हैं. व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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