कश्मीर (Kashmir) में एक किस्म का अनकहा मुकाबला चल रहा है. एक तरफ सत्ता के मुख्य कर्ताधर्ता हैं, तो दूसरी तरफ सत्ता का विरोध करने वाले, यानी नॉन स्टेट एक्टर्स. यह मुकाबला है, लोगों की पहचान करके, उन्हें ‘साफ’ करने का. पहले सत्ता ने उन लोगों को सरकारी नौकरियों से निकाल बाहर किया जिन्हें वह देशद्रोही समझती है. अब सत्ता विरोधी ताकतें एक घातक किस्म की ‘सफाई’ कर रही हैं, उन लोगों की जिन्हें वे ‘बाहरी’ मानती हैं.
हाल ही में कश्मीर में जिस तरह कश्मीरी पंडितों (Kashmiri Pandits) और वहां बसे दूसरे इलाके के लोगों की हत्याएं की जा रही हैं, उसे समझने के लिए हालिया कार्रवाइयों और उनकी जवाबी कार्रवाइयों पर गौर करना जरूरी है. ये दोनों ही पक्ष जिस भविष्य का सपना देख रहे हैं, उसके लिए यह ‘सफाई’ बहुत अहम है. तीसरी हैं, भारत विरोधी ताकतें इसे जिंदगी और मौत का मामला मानती हैं (हालांकि यह टिप्पणी कड़वाहट भरी और काफी घिसी-पिटी है).
और अब उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए. इससे साफ जाहिर होता है कि सत्तासीनों ने इस बात की कल्पना भी नहीं की थी (चलिए, सूचनाओं की कमी की बात करते हैं, इंटेलिजेंस का तो कहना ही क्या) कि दूसरा पक्ष भी अपनी फेहरिस्त बना सकता है.
अब सत्तासीन बुरी तरह लड़खड़ा रहे हैं, जैसा कि 1989-90 में हुआ था. उस समय उनके पास कम से कम जायज बहाना तो था कि यह भंवर एकाएक उठी है.
हाल की हत्याओं से संकेत मिलता है कि जो लोग सरकार के भूमि हस्तांतरण से संबंधित संवेदनशील काम को अंजाम दे रहे हैं, उन्हें खास तौर से निशाना बनाया जा रहा है.
बेशक, शासन की संरचना को देशद्रोही गतिविधियों से बचाने की जुगत तो करनी ही चाहिए लेकिन इसके साथ ही साथ, लोगों की रायशुमारी करनी भी जरूरी है.
कश्मीरियों के दिमाग में यह बात घर कर गई है कि 2019 से सरकारी कदमों के जरिए उन्हें आर्थिक तंगहाली में धकेला जा रहा है. साथ ही यह भावना भी भड़की है कि इलाके में बाहरी लोग घुस आएंगे
प्रशासन को यह समझ नहीं आ रहा कि क्या किया जाए. यानी साफ है कि सत्तासीनों ने इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि दूसरा पक्ष भी अपनी फेहरिस्त बना सकता है.
नौजवानों ने बंदूकें उठा ली हैं
‘साफ-सफाई’ के नए दौर में, खास तौर से और शारीरिक रूप से नौजवानों को निशाना बनाया जा रहा है. इस साल की शुरुआत से कश्मीर में बहुत से नौजवानों को उठाया जा रहा है, उनसे पूछताछ की जा रही है और फिर जेल में बंद किया जा रहा है. कई को कश्मीर से दूर स्थित जेलों में भेजा गया है. हालांकि इसमें नया कुछ नहीं है, लेकिन इस साल की शुरुआत से इसमें तेजी आई है और इसमें से ज्यादातर की खबरें भी नहीं मिलतीं.
एक और नया चलन है: इनमें से कुछ नौजवानों की एक नई श्रेणी बनाई गई है- जैसे ‘हाईब्रिड आतंकवादी’, या जिन्होंने अभी हथियार नहीं उठाए हैं लेकिन कभी भी ऐसा कर सकते हैं.
इन क्रियाओं की भी एक प्रतिक्रिया है: हाल के महीनों में कश्मीर के कुछ हिस्सों में बड़ी संख्या में नौजवान भूमिगत हो गए, और उनमें से कई के लापता होने की खबर भी दर्ज नहीं की गई. इसलिए पुलिस और दूसरी राज्य एजेंसियों के पास जमीनी हकीकत के बारे में अधूरी जानकारियां हो सकती हैं. ये ऐसे कुछ नौजवान हैं जो लोगों को ‘बाहरी’ मानकर तबाही मचा रहे हैं.
जनमत पर ध्यान देना क्यों जरूरी है
2020 के अंत से, सरकार उन सरकारी कर्मचारियों का ‘सफाया’ कर रही है जिनके बारे में संदेह है कि वे आतंकवादियों से सहानुभूति रखते हैं या जमात-ए-इस्लामी से जुड़े हुए हैं. यह सिलसिला कॉलेज के लेक्चरर्स और टीचर्स से शुरू हुआ, और फिर दूसरे विभागों तक पहुंच गया. कुछ कर्मचारियों का तबादला किया गया और कइयों को खड़े-खड़े निकाल दिया गया.
साफ है कि कुछ ताकतवर लोग या संगठन बहुत मेहनत से उन लोगों की फेहरिस्त बना रहे होंगे जिनसे निपटना है. यह भी मुमकिन है कि लोगों की निशानदेही की प्रक्रिया अगस्त 2019 के संवैधानिक बदलावों के पहले से शुरू हो गई हो.
बेशक, शासन की संरचना को देशद्रोही गतिविधियों से बचाने की जुगत तो करनी ही चाहिए लेकिन इसके साथ ही साथ लोगों की रायशुमारी करनी भी जरूरी है, चाहे जांच बैठाकर या/और जनमत का निर्माण करके.
जनमत निर्माण कुछ इस तरह किया जा सकता है कि जमीनी स्तर पर काम करने वाले लोगों को सुशासन अपने फायदे के तौर पर नजर आए.
अब यह साफ नजर आ रहा है कि सत्ता विरोधी ताकतें भी उन लोगों की फेहरिस्त बना रही है जिन्हें अपने रास्ते से, या उनके पदों से हटाना है. हाल की हत्याओं से संकेत मिलता है कि जो लोग सरकार के भूमि हस्तांतरण से संबंधित संवेदनशील काम को अंजाम दे रहे हैं, उन्हें खास तौर से निशाना बनाया जा रहा है. उनमें से कुछ की हत्या करने से दूसरों में खौफ पैदा होगा. और वह हुआ भी है.
कश्मीरियों को डर है कि वहां बड़े पैमाने पर बाहरी लोग आ जाएंगे
सही हो या गलत, बहुत से कश्मीरियों को लगता है कि सरकार उन पर आर्थिक हमला कर रही है. कश्मीर में बेरोजगारी हमेशा से एक गंभीर मुद्दा रहा है. बेरोजगारी वहां काम या आमदनी की कमी का पर्याय नहीं है, बल्कि इसका मतलब यह है कि वहां के लोग सरकारी नौकरियां, और उससे जुड़े फायदों से महरूम हैं.
और अब इस ‘सफाये’ से कुछ कश्मीरियों की बची-खुची सरकारी नौकरियां भी जाती रहीं. सिर्फ यही नहीं, बहुत से अधिकारियों को बाहर से लाया गया और ऊंचे ओहदों पर बैठाया गया.
इसी तरह सरकार ने रोशनी कानून और दूसरी योजनाओं को निरस्त कर दिया है जिसके जरिए तत्कालीन राज्य में बहुत से परिवारों को जमीन पर मालिकाना हक मिला था. कई जमीनों को बागों के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा था, जो आमदनी का जरिया था.
कश्मीरियों के दिमाग में यह बात घर कर गई है कि इन कदमों के जरिए उन्हें आर्थिक तंगहाली में धकेला जा रहा है. साथ ही यह भावना भी भड़की है कि इलाके में बाहरी लोग घुस आएंगे. इलाके में जनसांख्यिकी बदलाव होने वाला है.
बहुत से नौजवानों को इन बातों पर यकीन हो रहा है और उनका झुकाव धार्मिक कट्टपंथी विशिष्टतावाद यानी एक्सक्लूसिविज्म की तरफ होने लगा है. विशिष्टतावाद का मतलब है, ऐसा सिद्धांत या विश्वास है कि सिर्फ एक धर्म विशेष ही सत्य है.
सोचे-समझे बिना कार्रवाई करने से क्या फायदा होगा
सरकार विचार शून्य है, यह जाहिर हो चुका है. हाल की हत्याओं के मद्देनजर कुछ अधिकारियों ने घाटी छोड़कर जाने वालों, खासकर कश्मीरी पंडितों को जबदस्ती रोका. कई पंडितों ने अपनी हाउसिंग कालोनियों में इस बात पर विरोध प्रदर्शन किया कि उन्हें घाटी छोड़कर जाने नहीं दिया जा रहा.
ऐसे ही बेसिर-पैर के कदम पहले भी उठाए गए हैं. कई साल पहले जब घाटी में पंच और नगर निगम पार्षद (खासकर कश्मीरी मुसलमानों) आतंकवादियों के निशाने पर थे तो उनको गुनहगारों की तरह ‘कैद’ कर दिया गया था. हद तो यह थी कि किसी ने भी अपने दिमाग का इस्तेमाल करके, उनकी हिफाजत का कोई दूसरा तरीका नहीं सोचा था.
हालात विडंबनापूर्ण तब बने, जब 2019 में संवैधानिक बदलाव करने के कुछ ही महीने बाद सरकार ने कश्मीर में हर नुक्कड़ पर सैनिक तैनात कर दिए. यह तर्क दिया जा सकता है कि इससे आतंक के हर निशाने को महफूज किया जा सकता था.
हैरानी नहीं है कि सरकार को इतनी गहरी नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है.
(डेविड देवदास ‘द स्टोरी ऑफ कश्मीर’ और ‘द जनरेशन ऑफ रेज इन कश्मीर’ (ओयूपी, 2018) के लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडिल है, @david_devadas. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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