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सावन का महीना आते ही जगह-जगह केसरिया कपड़े पहने कांवड़ियों का ग्रुप नजर आने लगता है. कांवड़ियों के लिए सावन शिव की पूजा-आराधना का अनूठा अवसर होता है. लेकिन इन कांवड़ियों को देखकर कुछ लोगों के मन में कई दूसरे तरह के सवाल उठने लगते हैं.
दरअसल, बीते साल कांवड़ियों से जुड़ी कुछ अप्रिय घटनाएं सामने आईं. इस वजह से कांवड़ियों की इमेज पर बुरा असर पड़ा, साथ ही इस यात्रा को लेकर भी सवाल खड़े किए गए. लेकिन मेरा मानना है कि अगर कांवड़ यात्रा के धार्मिक पहलुओं को एक ओर रख दें, फिर भी इस यात्रा से कई सबक सीखे जा सकते हैं.
कांवड़िए कुछ ऐसे अनमोल सबक देते हैं, जिनका इस्तेमाल करके कोई मुश्किल लक्ष्य भी हासिल किया जा सकता है. बस, सीख कहां है, इसका सूत्र पकड़ने की जरूरत है.
ये बात मैं सिर्फ एक बार की कांवड़ यात्रा से मिले अनुभव के आधार पर दावे से कह सकता हूं.
बिहार-झारखंड में लोग आम तौर पर सावन और इसके बाद के महीने भादो में कांवड़ लेकर यात्रा करते हैं. ये यात्रा बिहार के भागलपुर जिले के सुल्तानगंज से शुरू होती है और झारखंड के बैद्यनाथधाम में शिवलिंग पर जल चढ़ाने के बाद समाप्त होती है. कांवड़िए उत्तरवाहिनी गंगा से जल लेकर करीब 120 किलोमीटर की यात्रा पैदल करते हैं, वह भी नंगे पांव. वैसे इस रास्ते पर कवड़िए छिटपुट पूरे साल नजर आ जाते हैं.
धर्म को परे रखकर इस यात्रा से क्या सीखा जा सकता हैं, जरा विस्तार से देखिए.
हर साल लाखों लोग पैदल ही 120 किलोमीटर की दूरी औसतन 72 घंटे में तय करते हैं, मतलब इरादे के पक्के लोगों ने 'वॉकिंग डिस्टेंस' का पैमाना बहुत ऊपर कर दिया है.
खैर, अपनी पहली कांवड़ की शुरुआत में मैं बेहद उत्साहित था. काफी तेज चलकर कम वक्त में लक्ष्य तक पहुंचने को बेताब नजर आ रहा था. एक बुजुर्ग कांवड़िए ने मुझे जो नसीहत दी, उसका सार इस तरह है:
पूरी यात्रा में मैंने इस सुझाव पर अमल किया. इसे थकान बहुत कम हुई और वक्त भी कम लगा.
सबक क्या है
अब किसी परीक्षा की तैयारी करने वालों की ओर देखिए. जो लोग किसी दिन 16 घंटे पढ़ाई करते हैं, अगले ही दिन थकान और नींद की वजह से सिर्फ 3 घंटे, ऐसे लोगों की कामयाबी को लेकर संदेह बना रहता है. दूसरी ओर अनुशासित रूप में 6-8 घंटे रोज पढ़ने वाले कामयाब होते ज्यादा देखे जाते हैं. मतलब कामयाबी का सूत्र है 'अनुशासित निरंतरता'. इसे बुद्ध का 'मध्यम मार्ग' भी कह सकते हैं.
लंबी यात्रा के दौरान कांवड़ियों के ठहरने के लिए कई जगह धर्मशाला या कैंप बने होते हैं. कई कैंप एकदम खुले मैदान में होते हैं. वैसे कई लोग समय बचाने के लिए देर रात तक चलते हैं, फिर सड़क किनारे कहीं भी 'आराम से' सो जाते हैं.
सबक क्या है
इंसान धन-दौलत के अभाव की वजह से नहीं, बल्कि अपनी बेहिसाब जरूरतों और तृष्णा की वजह से हमेशा असंतुष्ट बना रहता है. अब जरा How to stop worrying and start living के लेखक डेल कारनेगी का सूत्र याद कीजिए: अगर हमारे पास पीने के लिए साफ पानी हो, भूख मिटाने लायक भोजन हो और सोने के लिए बिस्तर, तो जीवन में किसी और चीज के लिए शिकायत नहीं करनी चाहिए.
वैसे तो कांवड़ लेकर जाने वालों में हर वर्ग और तबके के लोग शामिल होते हैं, लेकिन इनमें बड़ी तादाद में वैसे लोग भी होते हैं, जो अभाव की वजह से पर्यटन के लिए शिमला-दार्जिलिंग या ऐसे किसी पर्यटन स्थान का रुख नहीं कर पाते हैं.
रास्ते में चलते आपको ऐसे कई लोग मिल जाएंगे, जो बताएंगे कि वे 5वीं बार, 12वीं बार या 20वीं बार या इससे भी ज्यादा बार कांवड़ ले जा चुके हैं. साथ ही वे हर साल इस यात्रा से खुद को ज्यादा सेहतमंद पाते हैं.
दरअसल, हर साल पैदल कांवड़ लेकर जाने से लगातार उनका 'फिटनेट टेस्ट' होता रहता है. अगर शरीर में कोई गड़बड़ी होती है, तो लक्षण उभरने पर वे इसका निदान भी करवा लेते हैं. यही उनकी सेहत का राज होता है.
सबक क्या है
कांवड़ियों की बेहिसाब भीड़ को केवल धर्म के चश्मे से देखना ठीक नहीं है. ये उनके जीवन की अहम जरूरत का मामला भी हो सकता है.
एक बार जो गेरुआ कपड़े पहनकर, कांवड़ लेकर निकल पड़ता है, वो कम से कम पूरी यात्रा के दौरान जात-पांत से जुड़ी अपनी पहचान को पीछ छोड़ देता है. रास्ते में चलने वाले हजारों लाखों लोगों की पहचान सिर्फ 'बोलबम' का उद्घोष करने वाले 'बम' के रूप में होती है. हर 'बम' एक-दूसरे का सहयोगी है, हमराही है और एक-दूसरे के लिए आदरणीय है. कांवड़ यात्रा के दौरान हर किसी का एक दर्जा होता है, ऊंच-नीच का सारा भेद मिट जाता है.
सबक क्या है
जात-पांत के भेद और इससे जुड़े 'हठ' से ऊपर उठना कोई मुश्किल काम नहीं है. अगर तीन दिनों के लिए जातिगत भावना से ऊपर उठा जा सकता है, तो 365 दिनों के लिए क्यों नहीं?
एक बार फिर से प्लास्टिक की चादर और खुले आसमान की ओर लौटते हैं. उस हालत में कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपके घर में कितने बंधु-बांधव हैं. कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपके बैंक खाते में कितने पैसे हैं. सब पीछे छूट जाता है और आप सबकुछ भूलकर खुद को नींद (नींद को आधी मृत्यु की भी संज्ञा दी गई है) के हवाले करने को तैयार हो जाते हैं.
सबक क्या है
सोचो, साथ क्या जाएगा?
मेरी कांवड़ यात्रा साल 2003 में हुई थी. इससे पहले भी कई बार 'बोलबम' जाने की इच्छा हुई, लेकिन कभी ऐसा संयोग नहीं बन पा रहा था कि परिजन या मोहल्ले के किसी दोस्त के साथ जा सकूं. ग्रुप के साथ चलने से क्या-क्या फायदे होते हैं या अकेले जाने में क्या-क्या परेशानी हो सकती है, ये बताने की जरूरत नहीं है.
लेकिन ग्रुप न मिल पाने की वजह से मेरी ख्वाहिश अधूरी ही रह जा रही थी. आखिरकार सावन में एक दिन मैंने बिना ज्यादा प्लान बनाए, अकेले ही 'बोलबम' जाने का इरादा कर लिया. परिजनों की स्वीकृति मिल गई. पूरी कांवड़ यात्रा का अनुभव अद्भुत रहा.
आज भी मुझे अपनी कांवड़ यात्रा की याद आ जाती है, जब टीवी पर अमिताभ बच्चन अपनी एक फिल्म में डायलॉग बोल रहे होते हैं:
आदमी दुनिया में आता अकेला है, जाता अकेला है. इसलिए अगर उसे कुछ करना है, तो अकेला ही करना चाहिए.
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Published: 22 Jul 2019,08:50 AM IST